और फिर चुहिया से तुलना

एक हास्य रचना

                           

                         

        पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ है अथवा नहीं- इसे मैंविवादास्पद विषय कहना ही सुरक्षित समझता हूं।ऐसा नहीं है कि इस विषय में मेरे मन में कोई विवादअथवा शंका है, वरन इसलिये कि अपने पारिवारिकजीवन की सुख-शांति, महिलाओं में अपनी पैठ औरपूछताछ एवं स्वयंभू प्रगतिवादी विद्वानों में अपनीप्रतिष्ठा बनाये रखने के लिये मुझे यह गरल पीनाअनिवार्य है।

        मेरी पत्नी एक सम्वेदनशील आधुनिका हैंजिनका दृढ़ विश्वास है कि ‘हम का काहू ते कम हन,हम ऐटम बम हन’- अतः अगर दो जून की रोटी कोगरम फुल्के जैसा मिलने पर ही खाने की अपनीपुरानी आदत को मुझे बदलना नहीं है तो मुझेमहिलाओं के पुरुषों से कमतर होने का विश्वासअपने सीने में दबाये हुए ही चार कंधों पर श्मशानघाट  जाना होगा।

        मेरी पत्नी भारतीय लेखिका परिषद कीकार्यकारी सचिव भी हैं जिसके इतरोत्पाद /बाई-प्रोडक्ट/ की तरह यदा कदा मुझे भी छुहारे जैसे चेहरेवाले पुरुष साहित्यकारों के बजाय मलाईदार चेहरोंवाले महिला साहित्यकारों के न केवल दर्शन हो जातेहैं वरन उन्हें अपनी रचनायें सुनाकर प्रभावित करने कासुअवसर भी मिल जाता है। अब क्या मुझे कुत्ते नेकाटा है, जो पुरुष श्रेष्ठता के अपने विश्वास काढिंढोरा पीट कर ऐसे सुअवसरों को जीवन भर केलिये खो दूं?

         आधुनिकता की मार झेल रहे किसी पाठक कोयह बताने की आवश्यकता तो नहीं होनी चाहियेकि आज प्रगतिवादी वही है जो पुरुषों एवं सवर्णों कोस्वार्थी, अत्याचारी, अनाचारी एवं भ्रष्ट घोषित करेएवं महिलाओं एवं सवर्णेतर वर्गों को उनके द्वाराशोषित एवं त्रसित सिद्ध करे। पत्नियों को पति, जेठ,ससुर आदि से त्रस्त एवं प्रताड़ित बताना फ़ैनेबिलहै- चाहे वास्तविकता यह हो कि पत्नी घर में सबकाजीना हराम किये हुए हो और रोज़ रोज़ दहेजअधिनियम के अंतर्गत मुकदमा लिखा देने की धमकीदेकर सबकी जान सांसत में किए रहती हो। यह उसीप्रकार है जिस प्रकार आजकल सवर्णों को गरियानेऔर अन्य समस्त वर्गों को उनकी निर्दयता का शिकारबताने से किसी भी नेता अथवा साहित्यकार का कदऊंचा होता है चाहे सवर्ण कितना भी निरीह, निर्धन एवंनिष्पक्ष क्यों न हो। यदि किसी नेता के मन में यहभड़ास भर जाये कि वह महिलाओं एवं अन्य वर्गों में उदित नवब्राह्मणों के अपराधियों से निकट सम्बंध, उनके द्वारा शासकीय धन की लूट एवं देशहित कोताक पर रखकर बढ़ायी जाने वाली सामाजिक फूटका अपने भाषणों में बखान करे, तो उसे अपनीनेतागीरी का क्रिया-कर्म कर देना चाहिये। यदि किसीसाहित्यकार के मस्तिष्क में ऐसी खुजली पड़ने लगेतो उसे किसी भी पत्रिका में अपनी रचनायें न छपनेऔर समस्त तथाकथित ‘जनवादी’ साहित्यकारों द्वाराअपनी लानत-मलामत किये जाने के लिये तैयार रहनाचाहिये। मुझमें ऐसा जोखिम उठाने के साहस कीअत्यंत कमी रही है, अतः दो-चार पेग पिला देने केपश्चात भी आप कभी इन वर्गों के विरुद्ध एक शब्दमेरे मुखारबिंद से नहीं निकलवा सकते हैं।     

          आप पूछ सकते हैं कि जब मैं महिलाओं द्वारामेल शौविनिस्ट पिग (पुरुष सत्तात्मक सुअर) कीपदवी से आभूषित किये जाने से इतना डरता हूं तोआज क्यों सर में कफ़़न बांध कर यह लेख लिख रहाहूं, जिसमें दैहिक एवं मानसिक दोनों क्षेत्रों में पुरुषका वर्चस्व होना इंगित होता है। इस ‘आत्महत्या’ केकारक कतिपय विदेशी विद्वानों द्वारा हाल में उद्धोषितसिद्धांत हैं। यदि ये सिद्धांत किसी भारतीय विचारकअथवा वैज्ञानिक द्वारा प्रतिपादित किये गये होते तो मैंउनके समर्थन में कुछ भी लिखने का साहस कदापि नकरता, परंतु चूंकि पाश्चात्य विद्वानों (अथवा मूर्खोंद्वारा भी) कही हुई कोई बात हम भारतीयों के लियेरामवाक्य होती है, अतः मैंने भी उनके मत के समर्थनमें कुछ लिखने का साहस जुटा लिया है। अभी तकमेरे स्वयं के ज्ञान में पुरुषों के महिलाओं से श्रेष्ठ होनेका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं था परंतु एक अकाट्यऐतिहासिक कारण अवश्य था- वह यह कि सहस्रोंवर्षों से पुरुष ही परिवार एवं समाज पर राज करतारहा है और महिलायें निर्विरोध पुरुषों के अत्याचारसहती रहीं हैं। यह तथ्य मेरी किसी व्यक्तिगत खोजका परिणाम नहीं है वरन् विदेशों में भी अनेक पुरुषविचारक इस तथ्य को घ्यान में रखकर पुरुष की श्रेष्ठता में विश्वास करते रहे हैं। दूसरी ओर महिलापक्षधारी इसे पुरुषों की क्रूर एवं असम्वेदनशीलप्रवृत्ति का द्योतक बताकर  जो़शोख़रोश से पुरुषों कीऐसी तैसी करते रहे हैं।

          इस दुनिया में सत्य को असत्य सिद्ध करनाजितना आसान है, सत्य को सत्य सिद्ध करना उतनाही कठिन है- अगर ऐसा न होता तो वकीलों का पेशासबसे कमाऊ पेशा न होता। अभी तक पाश्चात्य देशोंके अनेक पुरुष विचारक ऐतिहासिक तथ्यों परआधारित मेरे पुरुष श्रेष्ठता के विचार से सहमत रहेहैं, परंतु वैज्ञानिक ढंग से अपने इस विश्वास को सिद्धकर पाने की असमर्थता के कारण मेरी ही तरह ज़़हरका घूंट पीकर चुप रहते रहे हैं। अब वहां पुरुषवैज्ञानिकों ने इस सत्य को वैज्ञानिक तथ्यों के आधारपर सिद्ध करने का अभियान चला दिया है। कुछ माहपूर्व ऐसी ही एक वैज्ञानिक शोध का आधार लेते हुएविश्वविख्यात हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंटलारेंस समर्स ने अपने भाषण में कह दिया था किमहिलाओं में पुरुषों की तुलना में विश्लेषणात्मकक्षमता कम होती है। फिर क्या था विश्व भर केस्वयंभू प्रगतिवादियों ने वायवेला मचा दिया औरलारेंस समर्स को हार्वर्ड विश्वविद्यालय कीप्रेसीडेंटशिप से त्याग-पत्र देना पड़ा। मैं कहूंगा किसत्य को स्थापित करने के लिये लारेंस समर्स कात्याग-पत्र कोई बहुत बड़ा बलिदान नहीं है क्योंकिसुकरात को तो सत्य पर अड़े रहने पर विषपान तककरना पड़ा था। सुकरात के गरलपान के समक्षलारेंस समर्स का बलिदान तो ऐसा हुआ जैसे गरल की जगह कड़ुआ काढ़ा पिला दिया जाये।     

        लारेंस समर्स को इतना सस्ता छूटते देखकरब्रिटिश वैज्ञानिकों के हौसले बुलंद हो गये और उन्होंनेमहिलाओं की अभिरुचियों पर शोध के नाम परउनकी कमज़ोरियों सम्बंधी अनेक शोध कर डाले।इस विषय में हाल में प्रकाशित एक समाचार विशेषध्यान देने योग्य हैः

        ‘‘वैज्ञानिकों ने चूहों की मार्फ़त इस गुत्थी कोसुलझाने का दावा किया है कि आखिर महिलायें उनपुरुषों पर ही क्यों जान छिड़कतीं हैं जिनकीपत्नियां होतीं हैं। अनुसंधानकर्ताओं के मुताबिकअनुवांशिक तौर पर महिलाओं में उन पुरुषों की ओरखिंचे चले जाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है जिनमेंपत्नियों की त्वचा की महक होतीहै।………………………………महिलाओं को साफ़सुथरे पुरुषों के बजाय वे पुरुष ज़्यादा आकर्षक नज़रआते हैं जिनमें दूसरी महिला की ख़ुशबू होतीहै।………….स्नायु तंत्र के विशेषज्ञ डा. डोनल्ड पैफ़द्वारा एकत्र किये गये आंकड़े बताते हैं कि जिस प्रकारएक चुहिया अन्य चुहियों की रुचियों का इस्तेमालकरती है, उसी प्रकार महिलायें किसी अन्य महिलाकी पसंद पर भरोसा करतींहैं।……………………….इसीलिये सदियों से रखैलों नेएकल सम्बंधों की सुरक्षा छतरी तक को ठुकरायाहै।’’

        यद्यपि ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर मैं पुरुषश्रेष्ठता के मत का पक्षधर हूं तथापि महिलाओं केविषय में की गई इस शोध को मैं पुरुष की छल-छद्मवाली प्रवृत्ति का द्योतक ही कहूंगा। यह तो ‘हिटिंगबिलो दी बेल्ट’ वाली बात हुई कि जब सीधे सीधेमहिलाओं की शान में गुस्ताख़ी करने का साहस नहुआ, तो महिलाओं की तुलना चुहियों से कर दी।वैज्ञानिकों को क्या चुहिया ही मिली थी शोध केलिये? अगर हथिनी की रुचियों पर शोध करते, तोउसकी रुचि एवं महिलाओं की रुचियों में भी अनेकसमानताएं मिलतीं। इसके अतिरिक्त सम्भव था किमहिलाओं के गजगामिनि होने की कहावत प्रमाणित हो जाती और उपयुक्त प्रकरणों में उनके गजाकार होने की वैज्ञानिकता भी स्पष्ट हो जाती।

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