जीवन दो भाग त्याग और एक भाग भोग
विनोबा का आज का वेद चिंतन विचार
![जीवन](https://mediaswaraj.com/wp-content/uploads/2020/09/ramesh-bhaiya.jpg)
ईशावास्य उपनिषद अंश तेन त्यकतेन भुनजीथा, यह धर्मसूत्र है लेकिन मैंने इसका एक रासायनिक सूत्र बनाया है ।
जैसे H20, दो भाग हाइड्रोजन + एक भाग ऑक्सीजन बराबर पानी वैसे त२भ १ मतलब दो भाग त्याग और एक भाग भोग मिलकर जीवन बनता है।
जीवन उसे ही कहा जाएगा जहां दो भाग त्याग और एक भाग भोग है। यह है इस जमाने का वैज्ञानिक सूत्र ।
तो मैं आपको यह धर्म की शिक्षा नहीं दे रहा हूं ,विज्ञान सिखा रहा हूं ।
इंद्रियों के भोग का ऐसा है कि अमुक मर्यादा के बाहर अगर भोग करेंगे तो यह भोग रोग पैदा करेगा।
इसलिए भोग के लिए यह मर्यादा ठीक है कि दोनों और त्याग और बीच में छोटा – सा भाग भोग!
त्याग करके भागेंगे तो शाश्वतीभ्यः समाभया: यानी निरंतर शाश्वतकाल तक भोग मिलेगा ।
ऋषि फिर कहते हैं – मा गृध: कस्यस्विद धनम् किसी के भी धन की वासना मत रखो।
शंकराचार्य ने इस पर अद्भुत ही भाष्य लिखा है। मंत्र का स्थूल अर्थ होगा, दूसरों के धन की इच्छा मत रखो।
परंतु शंकराचार्य ने लिखा -* कस्य – स्विद् धनम्,कस्य चित् परस्य,स्वस्य वा धनम् मा आकांक्षी– यानी अपने या दूसरे किसी के धन की कामना नहीं रखनी चाहिए ।
यह धन मेरा है । दूसरों के धन की वासना नहीं रखूंगा , लेकिन मेरे धन की वासना क्यों नहीं रखना।
दूसरों के धन की वासना न रक्खें यह बात तो हिंदुस्तान का संविधान भी कहता है।
इसके लिए शंकराचार्य की जरूरत नहीं। शंकराचाय की जरुरत तो इसमें है कि खुद के धन की भी कामना न रखें ।
यह ख्याल ही गलत है कि यह धन मेरा है और वह धन दूसरे का है । मैं इसका मालिक हूं और वह उसका मालिक है।
यह कुल धन परमेश्वर का है। और वह सारा समाज की सेवा में लगना चाहिए ।
इसलिए शंकराचार्य ने भाष्य किया कि किसी भी धन की वासना मत रख ।यानी अपने की भी और दूसरे के भी धन की ।
मा गृध: का एक अर्थ यह भी होता है कि लोभ मत करो। धन किसका है । हमारा कर्तव्य है,समर्पण करके जीना। लेकिन दूसरों के उपार्जन पर हम व्यक्तिगत तौर पर ध्यान न रखें ।
भगवान ने हमें जो बुद्धि ,शक्ति, और दौलत दी है, वह समाज की सेवा के लिए है ।उसका स्वतंत्र भोग करना उचित नहीं ।समाज को समर्पण करने के बाद ही हम उसे भोग सकते हैं।
खून यदि शरीर में एक जगह इकट्ठा हो जाएगा तो ऑपरेशन करने की नौबत आएगी। वह तो पूरे शरीर में बहते रहना चाहिए।
वैसे ही धन भी समाज में सतत बहते रहना चाहिए ।
समस्त जगत ईश्वरमय है और समर्पण करके ही प्रसाद के रूप में भोग करना चाहिए – इससे बढ़कर कोई और संदेश किसी शास्त्र में नहीं दिया गया है।
इस उपनिषद के इस प्रथम मंत्र में तत्वज्ञान और नीतिविचार दोनों बताए हैं। तत्वज्ञान है व्यापक ईशतत्व और नीति विचार है – मा गृध्: कस्यस्विद् धनम् ।