लखीमपुर खीरी हिंसा : सत्ता का नशा छोड़कर किसानों से बात करें प्रधानमंत्री
राम दत्त त्रिपाठी
लखीमपुर खीरी Lakhimpur Khiri Violence की हिंसा सत्ता के नशे का परिणाम है, जिसमें नौ लोगों की जानें चली गयीं. इतनी दिल दहला देने वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना कैसे हुई इसके बारे में दो तरह की बातें आ रही हैं और सच शायद ही सामने आए – ज़रूरी नहीं है कि न्यायिक जाँच आयोग को भी सही सबूत मिलें. मामले में आपराधिक मुक़दमा लिखने, पैंतालीस लाख का मुआवज़ा और सरकारी नौकरी से भी दोनों पक्ष के वे लोग तो वापस ज़िंदा नहीं हो सकते, जो मारे गए.
लखीमपुर खीरी के भाजपा सांसद अजय कुमार मिश्रा पहली बार केंद्र सरकार में मंत्री बने हैं और वह भी आंतरिक सुरक्षा के जिसका काम है देश में शांति सद्भाव क़ायम रखना. लेकिन कुछ ही दिनों पहले केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा ने जिस तरह से एक सभा में किसानों को धमकी देने के अन्दाज़ में दो मिनट में ठीक कर देने की बात की उससे ज़ाहिर है कि सत्ता का नशा उनके दिमाग़ में चढ़ गया है.
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने जिस तरह अपने समर्थकों को गोलबंद होकर लाठी डंडे का इस्तेमाल करने और फिर जेल जाकर नेता बनने का गुरूमंत्र दे रहे हैं वह किसानों को भड़काने का ही काम है। सबको पता है कि खट्टर सरकार ने किसानों को दिल्ली जाने से रोका था. अब खट्टर को क़ानून के दायरे में लाने का काम कौन करेगा? सवाल यह भी है कि क्या खट्टर ने अपने आप ऐसा कहा या यह पार्टी कि नीति है.
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत और उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकारियों ने जिस सूझबूझ से फ़िलहाल खीरी में तनाव कम किया वह ज़रूर सराहनीय है.
आग को भड़काने का काम
लखीमपुर की हिंसा ने लगभग एक साल से चल रहे किसान आंदोलन की आग को भड़काने का काम किया है। पंजाब- हरियाणा से शुरु हुआ किसान आंदोलन अब तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित था लेकिन अब लखीमपुर घटना ने आंदोलन को पूर्वी उत्तर प्रदेश तक पहुंचा दिया है. लखीमपुर खीरी वह जिला है जो उत्तर प्रदेश के तराई इलाकों को पश्चिम उत्तर प्रदेश से एक तरह से जोड़ने का काम करता है। ऐसे में अब लखीमपुर की घटना का असर पूर्वी उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों में भी दिखाई दे सकता है।
कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के सड़क पर आंदोलन के 10 महीने से अधिक लंबा समय बीत गया है और अब किसानों का धैर्य भी एक तरह से जवाब देने लगा है। वहीं किसानों को उत्तेजित करने का काम कहीं न कहीं भाजपा नेताओं के बयान भी दे रहे है।
लखीमपुर कांड को लेकर उत्तर प्रदेश की सियासत गर्मा गई है। हिंसा की आग अब राजधानी लखनऊ तक पहुंचती दिख रही है। आज जिस तरह समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के घर के बाहर पुलिस की जीप को आग लगाई गई वह स्थिति की भयावहता को दिखाता है। वहीं लखीमपुर में पीड़ित किसानों से मिलने जा रही कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी, अखिलेश यादव , बसपा नेता सतीश चंद्र मिश्रा, शिव पाल यादव, चंद्र शेखर आदि नेताओं को सरकार ने कानून-व्यवस्था के नाम पर वहाँ जाने से रोका है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का विमान लखनऊ एयरपोर्ट पर नहीं उतरने दिया गया. लखीमपुर जाने की कोशिश मे विपक्ष के नेताओं को जिस तरह हिरासत में लेने के साथ नजरबंद किया गया है और पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को लखनऊ में उतरने पर रोक लगा दी गई वह एक तरह से इमरजेंसी के दौर की याद भी दिलाता है।
अपने नेताओं को पुलिस के द्वारा रोके जाने को लेकर राजनीतिक दल के कार्यकर्ता अब सड़क पर है। समाजवादी पार्टी ने पूरे प्रदेश में आंदोलन का एलान कर दिया है।
विधान सभा चुनाव प्रचार पर असर
अब जब राज्य विधानसभा चुनाव के लिए चुनावी मोड में आ गया है तब लखीमपुर की घटना ने विपक्ष को सरकार को घेरने का एक बड़ा मौका दे दिया है। किसान आंदोलन को लेकर पहले से ही भाजपा बैकफुट पर थी और वह आंदोलन की धार को कम करने और किसानों को रिझाने के लिए किसान सम्मेलन कर रही थी, ऐसे में अब लखीमपुर की घटना ने निश्चित तौर पर सरकार की मुसीबतें बढ़ा दी है।
लखीमपुर कांड का असर उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनावी कैंपेन पर भी असर पड़ सकता है और भाजपा को एक बड़े विरोध का सामना करना भी पड़ सकता है।
इससे भाजपा को चुनाव में बहुत नुकसान उठाना पड़ सकता है। साथ ही यदि यह मामला नहीं सुलझता है तो पांच चुनावी राज्यों में कानून-व्यवस्था की समस्या भी पैदा हो सकती है। वे मानते हैं कि पीएम मोदी को बिना देर किए अब किसानों से बात करनी चाहिए।
यह मामला केवल एक राज्य तक सीमित नहीं है। यह मसला भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व है। पिछले 10 महीने से किसान आंदोलन चल रहा है, लेकिन सरकार इस आंदोलन को लेकर दंभ भरा व्यवहार कर रही है। जिस कृषि कानून को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं वह सामान्य प्रक्रिया से नहीं बना। बल्कि इसे तुरत-फुरत में बनाया गया। किसी स्टेक होल्डर से बात नहीं की गई, संसद की सेलेक्ट कमेटी में यह बिल नहीं भेजा गया, बस सरकार ने अध्यादेश जारी कर इसे लागू कर दिया। जाहिर है इससे किसानों में नाराजगी होगी, लेकिन केंद्र सरकार ने इस मामले में जिस तरह का अड़ियल रवैया अपनाया हुआ है इससे किसानों में जबरदस्त रोष है और यह बढ़ता ही जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने क़ानून के अमल पर स्थगन आदेश दिया है, लेकिन अदालत को इस पर सुनवाई करके फ़ैसला देना बाक़ी है कि कृषि क़ानून संवैधानिक हैं भी या यह राज्यों के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण हैं.
संयुक्त मोर्चा की कोर कमेटी के वरिष्ठ सदस्य एवं राष्ट्रीय किसान मज़दूर महासंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिव कुमार ‘कक्का जी’ ने कहा कि अब तक 10 महीने के किसान आंदोलन में 706 किसान अपनी शहादत दे चुके है।लेकिन किसान आंदोलन में अब तक कोई भी हिंसा किसानों की तरफ से नहीं हुई है। आज देश में एक अघोषित आपातकाल का माहौल है और संयुक्त किसान मोर्चा की इमरजेंसी बैठक में आगे की रणनीति तय करेंगे।
पिछले दिनों राष्ट्रव्यापी बंद करके किसान मज़दूर यह साबित कर चुके हैं कि पूरे देश के किसान इससे पीड़ित हैं.
असली मुद्दा कृषि उपज का सही दाम
दरअसल , बात केवल इन तीन क़ानूनों तक सीमित नहीं है. असल मुद्दा यह है कि किसानों को खाद, बिजली, बीज, डीज़ल और अपनी ज़रूरत का सारा सामान महँगे डर पर ख़रीदना पड़ता है, लेकिन उनकी उपज का सही दाम नहीं मिलता. उत्तर प्रदेश में गन्ने का दाम चार साल बाद केवल पचीस रुपए कुंतल बढ़ा है. जब किसान की जेब में पैसा नहीं होगा तो खेतिहर मज़दूर को सही दाम नहीं मिलता और वह शहरों में पलायन को मजबूर होता है. जब इन दोनों के पास पैसा नहीं होगा तो बाज़ार में चमक कैसे आएगी. यह बात दीगर है कि देश में एक छोटा वर्ग मालामाल होता जा रहा है जो सेंसेक्स कि ऊँचाई और जी एस टी कलेक्शन में वृद्धि से साफ़ झलकता है.
खुले दिल से बात करके कृषि उपज के उचित दाम दिलायें
इसलिए आवश्यक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता का नशा और आई टी सेल के दाम पर बनावटी लोकप्रियता का नशा छोड़कर किसान संगठनों और संसद में चुनकर आए सभी जन प्रतिनिधियों से खुले दिल से बात करके कृषि उपज के उचित दाम दिलाने के लिए आम राय से नई व्यवस्था बनायें. तभी भारत ख़ुशहाल होगा.
अस्सी करोड़ लोगों को घर बैठे मुफ़्त राशन देना शान की बात नहीं है, बल्कि इस दयनीय स्थिति को बदलकर लोगों को वास्तव में आत्म निर्भर बनाने की ज़रूरत है. ऐसा हो जाएगा तो उन्हें लोकप्रियता क़ायम रखने के लिए आई टी सेल पर अरबों रुपयों के खर्च , मीडिया पर दबाव डालने , हर सरकारी काग़ज़ और झोले पर अपना फ़ोटो लगाने की ज़रूरत भी नहीं होगी. तब हिंदू- मुस्लिम साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण अथवा क़ब्रिस्तान बनाम श्मसान के नारों की ज़रूरत भी नहीं होगी.
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