डाक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले क्यों!
भारत में हाल ही में कोरोना ड्यूटी पर काम करने वाले डाक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों पर हमले चिंताजनक हैं.
कोरोना वायरस कोविड-19 की संक्रामक महामारी की रोकथाम और बचाव के लिए चल रही विश्वव्यापी जंग की अगुआई लाखों डॉक्टर, नर्सें और स्वास्थ्य कर्मचारी कर रहे हैं।
संक्रामक रोगियों की देखभाल में लगे रहने की वजह से सबसे बड़ा जोखिम का काम उन्हीं का है। चीन के आँकड़े तो बहुत विश्वसनीय नहीं माने जाते पर यदि यूरोप के सबसे बुरी तरह प्रभावित देशों, जैसे इटली, स्पेन और फ़्रांस की बात करें तो हज़ारों डॉक्टर, नर्सें और स्वास्थ्य कर्मी संक्रमण का शिकार हो चुके हैं और सैंकड़ों की मौत हो चुकी है।
यहाँ ब्रिटन की स्वास्थ्य सेवा में काम करने वाले डॉक्टरों और नर्सों में आधे से ज़्यादा आप्रवासी हैं और अपनी जान जोखिम में डाल कर दिन-रात कोरोना मरीज़ों को बचाने में लगे हैं। अब तक संक्रमण से बीमार होकर मरे सभी आठ डॉक्टर भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, मिस्र, नाइजीरिया और सूडान से काम करने आए आप्रवासी थे।
यूरोप में स्वास्थ्य कर्मियों और डॉक्टरों के इतनी बड़ी संख्या में बीमार होने की एक वजह संक्रमण से बचाने वाले साधनों की किल्लत भी है। यूरोपीय देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ दुनिया के हर पैमाने पर चोटी की सेवाएँ मानी जाती हैं। लेकिन ये भी महामारी से बचाव के लिए तैयार नहीं थी। बीमारी फैलते ही साँस के लिए हवा छानने वाले मास्कों, आँखों को बचाने वाले चश्मों, चेहरे को बचाने वाले पारदर्शी प्लास्टिक के पैनलों और सर से पाँव तक ढाँपने वाले हज़मत गाउनों की भयंकर कमी हो गई थी। डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों को मास्क की जगह कपड़े बाँध कर और हज़मत गाउनों की जगह कूड़ेदान में लगने वाले काले प्लास्टिक के बैग पहन कर काम करना पड़ा जिनसे पूरी तरह बचाव नहीं हो पाया। स्वास्थ्य कर्मचारियों ने उफ़ न करते हुए जुगाड़ से अपना बचाव करते हुए सेवा जारी रखी।
डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों की इसी निष्ठा और सेवाभाव से अभिभूत हुआ समाज आभार प्रकट करने के लिए अस्पतालों में अचानक तालियाँ बजा उठता था।
शायद इसी से प्रेरणा पाकर प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन ने लोगों से शाम के समय खिड़कियों और दरवाज़ों में खड़े होकर स्वास्थ्य कर्मियों की सेवा का आभार प्रकट करने के लिए दो मिनट तक तालियाँ बजाने का अनुरोध किया था जो पिछले कुछ सप्ताहों से दैनिक परंपरा बन चुका है।
इटली और स्पेन में तो लोगों ने स्वास्थ्य कर्मियों के लिए तालियाँ बजाने के अलावा फूल बरसाने और गाने-बजाने की शुरुआत भी की जिसके चलते कुछ मोहल्लों में शाम का समय छतों और बालकनियों से बजने वाले संगीत के ऑर्केस्ट्रॉ का रूप धारण कर चुका है।
सामाजिक मेल-मिलाप पर पाबंदी और तालेबंदी के इस दौर ने लोगों को परिवार और सामाजिकता के महत्व पर नए सिरे से सोचने के लिए विवश किया है और सामाजिकता की चेतना को जगाया है। लोग घरों में बंद रहने के लिए मजबूर बुज़ुर्गों का हाल-चाल पूछने, उनकी ज़रूरत का सामान पहुँचाने और संक्रमण का शिकार हुए लोगों के एकांतवास को आसान और सहनयोग्य बनाने के लिए आगे आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने रोगियों की देखभाल में दिन-भर लगे रहने वाले स्वास्थ्य कर्मियों की मदद और राहत के लिए ढाई लाख स्वयंसेवियों की अपील की थी। दो दिनों के भीतर उससे तीन गुना लोगों ने स्वयंसेवा की पेशकश कर डाली। ये लोग स्वास्थ्य कर्मियों के लिए ज़रूरत का सामान पहुँचाने से लेकर उनके बच्चों और बुज़ुर्गों की देखभाल करने जैसे हर तरह के काम करते हैं ताकि थके-माँदे घट लौटने वाले स्वास्थ्य कर्मियों को कम से कम असुविधा हो।
एक तरफ़ भारत है। जहाँ से हर रोज़ डॉक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिसकर्मियों पर पथराव करने, थूकने, बदतमीज़ी करने और गली-मोहल्लों से निकालने की कोशिश करने की ख़बरें मिल रही हैं।
भारतीय अस्पतालों में भी संक्रमण से बचाव करने वाले सामान की कमी है। फिर भी डॉक्टर, नर्सें और स्वास्थ्यकर्मी अपनी जान जोखिम में डाल कर रोगियों की देखभाल कर रहे हैं और संक्रमण रोकने के लिए लोगों की जाँच कर रहे हैं। उनका आभार प्रकट करने के लिए उनकी मदद करना और उनका मनोबल बढ़ाने के लिए तालियाँ बजाना तो दूर लोग मारपीट करने, गालियाँ देने और गली-मोहल्लों से निकाल देने पर आमादा हो रहे हैं!
यह हाल भारत में ही नहीं, पाकिस्तान, मैक्सिको, फ़िलिपीन्स और ऑस्ट्रेलिया समेत बहुत से देशों में है। वायरस के आतंक और अपने आप को संक्रमण से बचाने की चिंता में लोग आपा खो बैठे हैं।
यह सही है कि भारत में इस तरह की हरकतें कुछ मुट्ठी भर लोग ही कर रहे हैं। अधिकांश लोग ऐसे नहीं हैं और उन्हें अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों का एहसास है।
लेकिन चिंता इस बात की है कि कहीं इसके पीछ आपाधापी और स्वार्थ की वही मानसिकता तो काम नहीं कर रही जिसके दर्शन हमें ट्रैफ़िक में, खिड़कियों पर लगने वाली लाइनों में और यहाँ तक कि पूजास्थलों पर भी हो जाते हैं ?
क्या यह वही मानसिकता नहीं है जो हमें कुछ मिनट जल्दी पहुँचने के लिए ग़लत लेन से ओवरटेक करने और लगभग हर बत्ती पर एक इंच आगे निकल जाने के लिए एक-दूसरे से गाड़ियाँ सटा देने केंकड़ावृत्ति से जाम लगाने पर मजबूर कर देती है?
दो बूँद तेल बचाने के लिए उल्टी दिशा से गाड़ी चलाने को बाध्य करती है? टिकट खिड़की हो या मैट्रो की लाइन हो या पूजास्थल की लाइन, सामाजिक शिष्टाचार को तोड़ते हुए पहले अपना उल्लू सीधा करने को विवश कर देती है? मानो ईश्वर ने अपने यहाँ कोई पहले-आओ-पहले पाओ की लॉटरी लगा रखी है!
क्योंकि ऐसी मानसिकता का वायरस अंधा आतंक ही किसी को उन स्वास्थ्य कर्मियों और पुलिस वालों पर हमले करने के लिए बाध्य कर सकता है जो समाज की यानी आपकी ही रक्षा के लिए काम कर रहे हैं।
क्या बाहर दिए जलाने के साथ-साथ हमें अंदर की सामाजिकता का दिया जलाने की ज़रूरत नहीं है? यदि मुट्ठी भर लोग भी ऐसी हरकतें कर रहे हैं तो बाकी समाज कहाँ है? उन्हें रोकता क्यों नहीं?
क्या हम इतने व्यक्तिवादी हो चुके हैं कि समाज की किसी बुराई पर कुछ नहीं करेंगे और हर काम के लिए सरकारी डंडे का मुँह ही ताकते रहेंगे? क्या हम राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की इन पंक्तियों को कतई भूल गए हैं:
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।
शिव कांत, बीबीसी हिंदी रेडियो के पूर्व सम्पादक, लंदन से
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