गॉंधी का कराची प्रस्ताव और आज का भारत: गांधी, मनरेगा कॉर्पोरेट और लोकतंत्र
जब गांधी का नाम योजनाओं से हटाया जा रहा है, तब कराची प्रस्ताव हमें क्या याद दिलाता है
राम दत्त त्रिपाठी
आज जब ग्रामीण रोज़गार योजना मनरेगा से महात्मा गांधी का नाम हटाया जा रहा है और सरकार अपनी ज़िम्मेदारी राज्यों पर डालते हुए नई योजनाएँ पेश करती है, तो यह सिर्फ़ एक प्रशासनिक बदलाव नहीं लगता। यह उस सोच में बदलाव का संकेत है, जिस पर आज़ादी के बाद भारत का लोकतंत्र टिका था।
ऐसे समय में 1931 का कराची प्रस्ताव अचानक बहुत प्रासंगिक हो जाता है — वही प्रस्ताव, जिसमें महात्मा गांधी ने साफ़ कहा था कि आज़ादी का मतलब सिर्फ़ सत्ता नहीं, बल्कि रोज़गार, बराबरी, सामाजिक सुरक्षा और राज्य की ज़िम्मेदारी है। सवाल यह है कि क्या आज का भारत उस रास्ते से दूर जा रहा है?

कराची प्रस्ताव क्यों अलग था?
यही वह मोड़ है जहाँ आज का भारत और 1931 का कराची आमने – सामने खड़े दिखाई देते हैं। अगर आज योजनाओं से गांधी का नाम और उनकी सोच धीरे-धीरे हटाई जा रही है, तो सवाल सिर्फ़ प्रतीकों का नहीं है। सवाल यह है कि क्या हम उस वैचारिक रास्ते से भी हटते जा रहे हैं, जिसकी नींव महात्मा गांधी ने कांग्रेस के कराची अधिवेशन में रखी थी?
अगर गांधी का विचार योजनाओं में बोझ लगने लगे, तो क्या कराची प्रस्ताव भी आज की सत्ता के लिए असुविधाजनक हो गया है?
कराची प्रस्ताव से पहले तक आज़ादी की माँग ज़्यादातर राजनीतिक थी — अंग्रेज़ों से सत्ता छीनने की लड़ाई। लेकिन कराची अधिवेशन में गांधी ने आज़ादी की परिभाषा ही बदल दी। उन्होंने कहा कि अगर आज़ादी के बाद भी ग़रीबी, बेरोज़गारी, छुआछूत और असमानता बनी रहती है, तो वह आज़ादी अधूरी होगी।
इस प्रस्ताव में साफ़-साफ़ कहा गया कि स्वतंत्र भारत में:
• बोलने, लिखने और संगठन बनाने की आज़ादी होगी
• क़ानून के सामने सभी बराबर होंगे
• छुआछूत का अंत होगा
• मज़दूरों को जीने लायक मज़दूरी मिलेगी
• किसानों और मज़दूरों के हितों की रक्षा राज्य करेगा
• ज़रूरी उद्योगों और संसाधनों पर समाज का नियंत्रण होगा
यह महज़ राजनीतिक घोषणा नहीं थी, बल्कि भविष्य के भारत का सामाजिक-आर्थिक नक्शा था।
गांधी: राजनीतिक और संवैधानिक चिंतक
गांधी को अक्सर केवल नैतिक उपदेश देने वाला नेता मान लिया जाता है। लेकिन कराची प्रस्ताव बताता है कि गांधी एक गहरे राजनीतिक और संवैधानिक चिंतक भी थे।
उनके लिए ‘स्वराज’ का मतलब सत्ता नहीं, बल्कि सम्मानजनक जीवन था। गांधी मानते थे कि अगर राज्य कमज़ोर वर्गों की ज़िम्मेदारी नहीं लेगा, तो बाज़ार उन्हें कुचल देगा। इसलिए उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को सामाजिक न्याय से जोड़ा।
कराची प्रस्ताव इसी सोच की औपचारिक अभिव्यक्ति था।
कांग्रेस के भीतर बहस और साझा सहमति
कराची प्रस्ताव को किसी एक व्यक्ति का एकतरफ़ा विचार न समझा जाए। उस दौर की कांग्रेस में समाजवादी, मज़दूर आंदोलनों से जुड़े नेता और उदारवादी — सब मौजूद थे।
बहसें थीं, मतभेद थे। कुछ ज़्यादा तेज़ बदलाव चाहते थे, कुछ संतुलन। कराची प्रस्ताव इन्हीं तमाम धाराओं के बीच बनी एक साझा सहमति का दस्तावेज़ था। यही कारण है कि वह आज भी प्रासंगिक लगता है।
संविधान से सीधा रिश्ता
आज जब हम संविधान के मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों को देखते हैं, तो कराची प्रस्ताव की छाया साफ़ दिखती है।
• समानता
• नागरिक स्वतंत्रताएँ
• छुआछूत का ख़ात्मा
• राज्य की सामाजिक ज़िम्मेदारी
यह सब 1950 में अचानक पैदा नहीं हुआ था। इसकी वैचारिक नींव 1931 में ही रख दी गई थी। इस मायने में कराची प्रस्ताव भारतीय संविधान का वैचारिक पूर्वज है।
यही कारण है कि कराची प्रस्ताव को स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे परिपक्व लोकतांत्रिक दस्तावेज़ माना जाता है।
आज का भारत: युवाओं की नज़र से कराची प्रस्ताव
आज का युवा पूछ रहा है — पढ़ाई के बाद नौकरी कहाँ है? स्थायी रोज़गार क्यों नहीं? गाँव छोड़कर शहर जाने की मजबूरी क्यों है?
इन सवालों की जड़ नीतियों में है।
मनरेगा कभी इस सोच का प्रतीक थी कि राज्य आख़िरी सहारा होगा। काम नहीं है, तो सरकार काम देगी। लेकिन आज:
• बजट दबाव में है
• भुगतान में देरी आम है
• और ज़िम्मेदारी राज्यों पर डाली जा रही है
संदेश साफ़ है — राज्य पीछे हट रहा है, बाज़ार को आगे बढ़ाया जा रहा है।
शिक्षा और स्वास्थ्य: अधिकार से बाज़ार तक
आज का युवा सबसे पहले यहीं टकराता है।
• सरकारी स्कूल और कॉलेज कमज़ोर हो रहे हैं
• निजी शिक्षा महँगी होती जा रही है
• इलाज बीमारी के साथ आर्थिक संकट भी बन गया है
जिस बराबरी की बात कराची प्रस्ताव करता था, वह बराबरी अब जेब पर निर्भर होती जा रही है।
पूंजीवादी मॉडल और लोकतंत्र का तनाव
आज विकास का मतलब बड़े प्रोजेक्ट और बड़े कॉर्पोरेट समझे जाते हैं। युवाओं से कहा जाता है — सब्रकरो, विकासनीचेतकपहुँचेगा।
लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि:
• स्थायी नौकरियाँ घट रही हैं
• गिग इकॉनमी असुरक्षा बढ़ा रही है
• और आम नागरिक निर्णय प्रक्रिया से बाहर होता जा रहा है
कराची प्रस्ताव का मॉडल इससे उलटा था — पहले इंसान, फिर मुनाफ़ा।
गांधी का स्वराज बनाम आज का मॉडल
गांधी का स्वराज नीचे से ऊपर का था — गाँव, पंचायत, समुदाय।
आज का मॉडल ऊपर से नीचे का है — केंद्रित सत्ता और नीतियाँ।
गांधी ने चेताया था: अगर राज्य ढाल नहीं बनेगा, तो बाज़ार तलवार बन जाएगा। आज यह चेतावनी सच लगने लगी है।
युवाओं के लिए क्यों ज़रूरी है कराची प्रस्ताव?
आज का युवा राजनीति से दूरी बनाता है, क्योंकि उसे लगता है कि उसकी आवाज़ मायने नहीं रखती। लेकिन कराची प्रस्ताव याद दिलाता है कि राजनीति दरअसल रोज़गार, शिक्षा, सम्मान और सुरक्षा से जुड़ी है।
यह प्रस्ताव आज भी पूछता है:
• क्या विकास सिर्फ़ कॉर्पोरेट मुनाफ़ा है?
• क्या राज्य की कोई सामाजिक ज़िम्मेदारी बची है?
• और क्या लोकतंत्र बिना न्याय के ज़िंदा रह सकता है?
अगर युवा इन सवालों पर सोचता है, बहस करता है और सवाल पूछता है —
तो वही कराची प्रस्ताव की असली विरासत होगी।
गांधी का सपना भी यही था —
नागरिक सिर्फ़ शासित न हों, बल्कि लोकतंत्र के सक्रिय हिस्सेदार बनें।
( With input from AI tool Chat-Gpt )



