वो आता था हलकी बयार की तरह और चला गया आँधी के झोंके की तरह

कभी अकेले तो कभी अपनी सहकर्मी रुचि के साथ। वही रुचि जो बाद में उसकी शरीके हयात बनी।

वो आता था हलकी बयार की तरह और चला गया आँधी के झोंके की तरह। … उम्र के इतने बड़े फ़ासले के बावजूद कितना प्यारा दोस्त था वो। अभी से नहीं, तीस बत्तीस सालों से। कभी भी आ जाता, कोई भी मुद्दा उठा लेता और देर तक हम एक दूसरे को उलझाते सुलझाते रहते। कभी घर आ जाता कभी यूनिवर्सिटी मेरे कमरे में। कभी अकेले तो कभी अपनी सहकर्मी रुचि के साथ। वही रुचि जो बाद में उसकी शरीके हयात बनी। जैसे जैसे उसे जानती गयी, उसकी खुली ज़हनियत, मानवीयता और स्वतंत्र सोच की ताक़त मुझे चौंकाती भी रही और सुकून भी देती रही।
कितना अजीब था ये शख़्स जो बात बात में मज़हबी कट्टरता को चुनौती देने के साथ ठीक उसी पल हर मज़हब की उदार और कल्याणकारी रंगत में सराबोर भी दिखाई देता था। वो भी उस वक़्त जब मज़हब को हर तरफ़ से युद्ध की ललकार की तरह स्तेमाल किया जा रहा हो। लोग अपने देवता को हथियार की तरह फेंकते रहे और वो बिल्कुल शांत साधक की तरह उसी देवता की मनोहारी कल्याणकारी छवियाँ उकेरता रहा। जिस मानस के देवता को नफ़रत के सौदागर हमलावर उग्र देव के रूप में ढालते रहे उसे वो उसी मानस की चौपाइयों से खारिज करता रहा।
वो सभी धर्मों का था। शायद। डालीबाग में रहता था तो लोग बताते थे कि दीपावली में उसके यहाँ जैसी रौनक़ किसी भी दूसरे घर में नहीं होती थी। और ईद पर उसके घर के पकवान जैसे किसी दूसरे घर में नहीं मिलते थे।
लेकिन इस त्योहारी मायने में ही नहीं, ज़्यादा गहरे अर्थ में भी ये कहना कठिन है कि वो किसी धर्म का था या किसी भी धर्म का नहीं। किसी एक खाँचे में फ़िट होने वाला जीव नहीं था वो। क्योंकि वो एक मुकम्मल इन्सान था ! ख़ालिस इन्सान !!

लेखकः रूपरेखा वर्मा Ex VC

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