जून 1975 – इमर्जेंसी की आहट :विपक्ष का प्रस्ताव भी अख़बारों में न छप सका – जय प्रकाश नारायण

25 जून, 1975 को रामलीला मैदान में जे पी का ऐतिहासिक भाषण भाग - एक

जेपी

वर्तमान को समझने के लिए इतिहास का ज्ञान आवश्यक 

भारत में आज आपातकाल की 45 वीं बरसी है. 25 जून  1975 के देर शाम दिल्ली के राम लीला मैदान में विपक्षी दलों की एक रैली हुई थी, जिसे मुख्य रूप से  लोक नायक जय प्रकाश नारायण ने सम्बोधित किया था. जेपी ने देश की जनता को लोकतंत्र और उसकी महत्वपूर्ण संस्थाओं पर ख़तरे से  आगाह किया था.तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कुछ ही घंटे बाद आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया.  रातों रात जेपी समेत सभी आंदोलनकारी नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया . दिल्ली के अख़बारों की बिजली काट दी गयी. सेंशरशिप लागू कर दी गयी. इसलिए जय प्रकाश जी का यह पूरा  भाषण एक तरह से अप्रकाशित रहा.वास्तव में यह भाषण से अधिक आम नागरिकों के लिए साफ़ सुथरी राजनीति और लोकतंत्र की शिक्षा का महत्वपूर्ण पाठ है, जो हमेशा  प्रासंगिक रहेगा.यह भाषण लगभग दस हज़ार शब्दों का है, यह  पहली किश्त  हैं. यह सिलसिला लगभग एक सप्ताह चलेगा

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आदणीय सभापति जी,

सभी उपस्थित  सज्जनों, देवियों और युवकों !

अभी परसों ही इसी मैदान में एक बहुत बड़ी सभा बावजूद बारिश के हुई थी। मैं उस सभा में आने वाला था जैसी कि घोषणा थी। परन्तु दुर्भाग्यवश जिस विमान से मैं आने वाला था, वह कलकत्ते से उड़ा ही नहीं और मैं पटना में ही पड़ा रह गया, फिर उसी दिन ट्रेन से चलकर कल सुबह यहां पहुंचा: दो ही दिनों के बाद आज सभा रखने की जरुरत नहीं थी। लेकिन इसका मुख्य कारण है सुप्रीम कोर्ट का फैसला। उस फैसले के ऊपर विभिन्न विरोधी दलों और उनकी कार्यकारिणियों ने बैठकर जो चर्चायें की, उनका जो निष्कर्ष निकला उस पर उनका प्रस्ताव हुआ। इस सबके बाद यह सभा करना आवश्यक था, दूसरा कारण यह रहा कि उस दिन चूंकि मैं नहीं आया और आपके सामने उपस्थित नहीं हुआ, इसलिए कई मित्रों की राय थी कि मुझे भी आपके सामने आना चाहिए। लेकिन मुख्य कारण यह है कि उस दिन की परिस्थिति में और आज की परिस्थिति में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ और इस सम्बन्ध में जनता को बताने की आवश्यकता है।

छोटा सा प्रस्ताव भी छप सका

दु:ख की बात है कि कल का प्रस्ताव जो महत्वपूर्ण प्रस्ताव था जिसे विरोधी दलों की कार्यकारिणी समितियों के लोगों ने मिलकर पास किया था, बहुत बड़ा प्रस्ताव भी नहीं था वह, परन्तु जो अंग्रेज़ी के अखबार यहां से निकलते हैं, उनमें वह नहीं आया। हिन्दुस्तान टाइम्स में और मदरलैंड में पूरा प्रस्ताव छपा। क्या कारण हुआ, मैं नहीं कर सकता हूँ। लेकिन मैं यह शिकायत करना चाहता हूँ । यह लोकतंत्र है, इतना महत्वपूर्ण प्रश्न देश के सामने उपस्थित है, आल इंडिया रेडियो की तरफ से टेलिविजन की तरफ से, शासक दल से स्वयं प्रधानमंत्री भी ऐसी बातें कर रही है जिनसे जनता का ध्यान मुख्य प्रश्न से हटकर दूसरी तरफ चला जाए। जनता को उसकी तरफ से भ्रम में भी डाला जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में कम से कम इतना तो होना चाहिए था कि उस छोटे से प्रस्ताव का फुल टैक्स्ट, पूरा मजमून हर समाचार पत्र में छपता। अंग्रेज़ी का ही मैंने देखा है। हिन्दी में हिन्दुस्तान देखा, उसमें भी पूरा मजमून नहीं छपा। उनका अपना विचार होगा। संचालकों का अपना विचार है। उनके साथ झगड़ने का विषय नहीं है। मालूम नहीं कि देश में हिन्दी में जो और अखबार छपते हैं, उनमें यह प्रस्ताव पूरा छपा कि नहीं छपा ? यह एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव है, उसमें सारी बातें कहीं गयी हैं। उन्हीं बातों को समझाने मात्र के लिए मैं आपके सामने आया हूं। जितना व्यापक प्रचार हो सके, उतना करना चाहिए। पांच विरोधी दल, उनकी संख्या लोकसभा में या राज्य सभा में कम हो सकती है शासक दल के मुकाबले में, लेकिन इन दलों को जिन लोगों ने वोट दिया था पिछले लोकसभा के चुनाव में अगर आप उनकी संख्या जोड़े तो शासक दल को जितने वोट मिले, इन्हें मिलने वाले वोट उससे कम नहीं होंगे। इसलिये जनता क्या चाहती है, यह छपना चाहिये। ये जनता के प्रतिनिधि लोग हैं, ये पार्टियां उनका प्रतिनिधित्व करती हैं। पहली बार इतिहास में यह हुआ है कि इन पार्टियों की कार्यकारिणियां साथ बैंठी। कई दन बैठे ये लोग और बैठकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विचार किया और प्रस्ताव तैयार हुआ। अब भी वक्त है, समय है। यहां जो पार्टियों का शाखायें हैं उनका यह काम है कि कम से कम इस प्रस्ताव का हिन्दी, उर्दू में तरजुमा करके लाखों का तादाद में बांटा जाये जिसे लोग पढ़ें। बात समझने में बहुत आसान है।

लोकतंत्र बिल्कुल समाप्त होने का खतरा

मित्रों, यह मजाक करने की बात नहीं है, किसी की खिल्ली उड़ाने की बात नहीं है और न किसी को बहुत जोश दिलाने की बात है। इस वक्त होश का काम है। शंका की परिस्थिति पैदा हुई है भारत में। जब से लोकतंत्र की स्थापना हुई उसके बाद पहली बार ऐसा शंका का मौका आया है, और खतरा इस बात का है कि शायद हमारा लोकतन्त्र बिल्कुल ही मिट जाए। देखिये प्रचार का सब साधन, प्रसार के सब साधन शासन के हाथ में हैं। देहातों में जहां पढ़े-लिखे लोग कम हैं, निरक्षर लोग हैं, वहां भी आज रेडियो सुनने वाले लोग हैं। रेडियो सुनने का शौक बहुत फैला हुआ है। शायद ही कोई गांव अभागा होगा इस देश में, जहां एक भी ट्रांजिस्टर नहीं होगा। हो सकता है ऐसे गांव दूर कहीं हों आदिवासी इलाकों में। बहुत पिछड़े में हुए क्षेत्रों में। लेकिन अधिकांश गांवों में ये सब क्या सुनते हैं? वही जो रेडियो सुनाता है। एकांकी झूठी बात कहते हैं। जो एक संघर्ष की बात कुछ महीनों से चल रही है, उस सन्दर्भ में इसी दिल्ली शहर में मैंने कहा था और दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को संबोधन करते हुए उनके कैंप्स में भी मैंने कहा था उस समय से ही यह काम हो रहा है। रेडियो इतना झूठ बोल रहा है, एकपक्षीय समाचार दे रहा है, टिप्पणियां कर रहा है, भाषण दिलवा रहा है, यह ठीक नहीं है। यह सारा काम जनता के रुपयों से होता है, कोई इंदिराजी के पैसों से यह काम नहीं हो रहा है, कोई कांग्रेस पार्टी के रुपयों से यह काम नहीं चलता है। यह रेडियो इसको बन्द कराना चाहिए या इन नीतियों का परिवर्तन कराना चाहिए। जनता की सेवा के लिए यह। लेकिन  उन्होंने कुछ किया नहीं। कल मुझसे कहा गया कि शायद जनसंघ ने कुछ प्रदर्शन किया था। क्या यह सम्भव नहीं है कि चुनौती दे दी जाये कि यह पालिसी आप बंद कीजिये रेडियो और टेलीविजन की? नहीं तो हम आपकी चलने नहीं देंगे। क्या यह संभव नहीं हैं ? कार्यक्रम होगा शायद ऐसा, आपके सामने रखा जायेगा। लेकिन आज मैं आपका ध्यान  आकर्षित  करा रहा हूं कि क्या आप एकांगी, एकपक्षीय, एकतरफा खबरें सुनते रहेंगे? आप तो पढ़े लिखे लोग हैं, ज़्यादातर  मध्यम वर्ग के लोग ही आये हैं इस सभा में। इस प्रकार की बातें जो मैं कहना चाहता हूं, शायद आपसे कहने की जरुरत नहीं है। ये बातें तो देहातों तक पहुंचानी चाहिये। अब वह पहुंचाने वाले वही है। पढ़ने वाले  जहां नहीं हैं, वहां भी इनकी आवाज लोग सुनते हैं। टेलीविजन तो खैर नही है, देहातों में, लेकिन आवाज तो सुनायी देती है उनकी। ऐसा नहीं होना चाहिए। यह बराबर मैंने कहा है। लेकिन  फिर दोहराता हूँ कि इसका चलना बंद कर दिया जाये या तो इनकी नीतियों में परिवर्तन हो। या घेराव कीजिये इनका ! इनफार्मेंशन ब्राडकास्टिंग मिनिस्टर गुजराल साहब हैं न ? (श्रोता: हां गुजराल साहब हैं) – तो गुजराल साहब का घेराव करना चाहिये कि नीति बदलनी चाहिये अब। याने यह हाईकोर्ट के डिसीजन की बात समझी नहीं तो लोकतंत्र कैसे चलेगा ? एक छोटा सा प्रस्ताव भी प्रेस वाले न छापें, याने जगह भी नहीं उसके लिए, अपनी टिप्पणियां देकर के इधर का एक टुकड़ा देकर छाप दें – जो हिन्दुस्तान टाइम्स में भी छपा है उसमें भी आखिरी पैरा के पहले जो पैरा हैं उसमें हाईकोर्ट शब्द आया है। हाईकोर्ट के बदले सुप्रीम कोर्ट आना चाहिए। कल शायद उसका संशोधन आ जायेगा। आपका ध्यान मैंने उस ओर खींचा है और गलतफहमी हुई है पढ़े-लिखे सर्कल में। हाईकोर्ट ने ऐसा नहीं कहा, सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कहा है तो इन लोगों ने कैसे डाल दिया ? असल में प्रस्ताव में तो सिर्फ कोर्ट लिखा है, लेकिन उन्होंने हाईकोर्ट डाल दिया।

बेमतलब की रैलियां

और मित्रों, जो कुछ अब हुआ है, दो दिन पहले जो सभा हुई थी, उसमें जो भाषण दिये गए होंगे, उनकी रिपोर्ट तो मैंने नहीं पढ़ी, लेकिन जो भाषण दिये होंगे उनमें मैं समझता हूं कि यह कहा गया होगा कि औपचारिकता की दृष्टि से, प्रोप्राइटी की दृष्टि से और नैतिकता की दृष्टि से, मारल या एथिकल दृष्टि से भी यह आवश्यक था कि जब हाईकोर्ट का फैसला हुआ अगर उसके बाद तुरन्त ही प्रधानमंत्री अपना इस्तीफा दे देती तो उनकी इज्जत बढती और राष्ट्रपति कहते कि आप चलाइये जब तक कोई नयी व्यवस्था नहीं हो। फिर उनकी पार्लियामेंटरी पार्टी की बैठकें होती, फिर नये लीडर चुने जाते, फिर जब उनका सुप्रीम कोर्ट में फैसला हो जाता, जो भी फैसला होता, उसके मुताबिक- अगर फैसला यह होता है कि हाईकोर्ट का फैसला गलत था, तो ठीक है अगर प्रधानमंत्री अपना मंत्रिमंडल बनाना चाहती तो बना सकती थीं। लेकिन डर तो यह है कि- मैं जानता हूँ- गद्दी से एक बार वे हट जायेंगी तो वह गद्दी फिर उनको मिलेगी नहीं, हालांकि रोज प्रस्ताव पास हो रहे हैं कि इन पर हमारा अटूट विश्वास है वगैरह-वगैरह। यह भी उन्हीं के हलकों से मैं सुनता हूँ। तो प्रोप्राइटी और मारैलिटी इन दो बातों के आधार पर उनको चाहिए था कि वे इस्तीफा देतीं। 

दूसरे नम्बर पर वह यह कर सकती थीं कि ठीक है स्टे आर्डर मिल गया है और वह जिसको कहते हैं पूर्ण स्थगन का आदेश मिला है। एबसोल्यूट स्टे आर्डर मिला है तो ठीक है तब इस्तीफा नहीं देती मगर यह नहीं हुआ तो इस्तीफा जरुरी था। यह बहुत गलत काम हुआ लोकतंत्र के लिए और भारत के भविष्य के लिए यह बहुत खतरे की बात है और ऐसी बात है कि जिसको बराबर दोहराने की जरुरत है। उस दिन भी कहा गया होगा कि यह बहुत खतरे की बात है कि प्रदर्शन कराये जायें, मीटिंग करायी जाये, रैली करायी जायें और उसमें प्रस्ताव पास किया जाये, तरह-तरह से बसें जुटायी जायें यह आप सब जानते हैं कि किस प्रकार से लोगों को हजारों की तादाद में बुलाया गया, प्रस्ताव पास किया गया कि आप इस्तीफा मत दीजिये- इस्तीफा मत दीजिये। आपके बगैर देश का कोई काम नहीं होगा। इससे कानून का कोई मतलब नहीं था।

(क्रमश : )

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