जानिए : श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी क्यों नहीं होतीं!

सुप्रीम कोर्ट ने भगवान जगन्नाथ की ऐतिहासिक रथयात्रा कों कल मंज़ूरी दी थी, लेकिन कड़ी शर्तो के साथ।
18 तारीख के अपने फैसले में चीफ जस्टिस ने कहा था अगर हमने रथ यात्रा कों मंज़ूरी दी तो भगवान हमें कभी माफ़ नहीं करेंगे, पर अंततः सुप्रीम कोर्ट ने कल कुछ प्रतिबंधों के साथ कोरोना वायरस महामारी के बीच वार्षिक रथ यात्रा को आयोजित करने की अनुमति दे दी है।

भगवान जगन्नाथ की ऐतिहासिक रथयात्रा का महत्व 

नीलांचल निवासाय नित्याय परमात्मने।
बलभद्र सुभद्राभ्याम् जगन्नाथाय ते नमः।।
हमारा देश भारतवर्ष जिसे कई नामों से जाना जाता है यथा भारत, आर्यावर्त, हिंदुस्तान, इंडिया आदि. वर्ष में जितने दिन होते हैं शायद कहीं हमारे यहाँ उत्सव मनाए जाते. अगर इसे इस रूप में कहा जाए कि भारत पर्वों, उत्सवों और त्योहारों का देश है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. हर दिन पूरे देश में कहीं न कहीं कोई न कोई त्योहार जरूर होता है. उसी में एक विशिष्ट पर्व है जगन्नाथ जी की रथ यात्रा.

भारत देश का अति विशिष्ट प्रदेश है ओडिशा जो अपने अंदर कई कला संस्कृतियों को संजोए हुए है. उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है. इस उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं. यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं. इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है.

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श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है. इस ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पूरी में भगवान जगन्नाथ का विशाल मंदिर है. जगन्नाथ मंदिर को हिन्दू धर्म में चार धाम से से एक माना गया हैं. यहाँ प्रतिवर्ष भगवान जगन्नाथ की भव्य रथ यात्रा निकाली जाती हैं जो भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हैं. जगन्नाथपुरी को बोलचाल में पुरी के नाम से जाना जाता हैं. प्रतिवर्ष भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से प्रारंभ होकर दशमी तक चलती है. तत्पश्चात आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन गुंडिचा मंदिर से वापस लौटती है, जिसे ‘उल्टी रथयात्रा’ कहा जाता है. इस रथयात्रा में खास तौर पर तीन रथ भगवान् जगन्नाथ यानी श्रीकृष्ण, बलराम एवं श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा (अर्जुन की पत्नी) के रथ निकलते हैं. भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा उत्सव 10 दिन का होता हैं इस दौरान यहाँ देशभर से लाखों श्रद्धालु पहुँचते हैं

भगवान जगन्नाथ को श्रीकृष्ण का अवतार माना गया हैं। जिनकी महिमा का उल्लेख हमारे धार्मिक ग्रंथों एवं पुराणों में भी किया गया हैं. ऐसी मान्यता हैं कि जगन्नाथ रथयात्रा में भगवान श्रीकृष्ण और उनके भाई बलराम और बहन सुभद्रा का रथ होता हैं. जो इस रथयात्रा में शामिल होकर रथ को खींचते हैं उन्हें सौ यज्ञ के बराबर पुण्य लाभ मिलता हैं. रथयात्रा के दौरान लाखों की संख्या में लोग शामिल होते हैं एवं रथ को खींचने के लिए श्रद्धालुओं का भारी तांता लगता हैं.

हिन्दू धर्म में जगन्नाथ रथ यात्रा का एक बहुत बड़ा महत्व हैं. मान्यताओं के अनुसार रथ यात्रा को निकालकर भगवान जगन्नाथ को प्रसिद्ध गुंडिचा माता मंदिर पहुँचाया जाता हैं. यहाँ भगवान जगन्नाथ आराम करते हैं। गुंडिचा माता मंदिर में भारी तैयारी की जाती हैं एवं मंदिर की सफाई के लिये इंद्रद्युमन सरोवर से जल लाया जाता हैं. यात्रा का सबसे बड़ा महत्व यही है कि यह पूरे भारत में एक पर्व की तरह मनाया जाता हैं. चार धाम में से एक धाम जगन्नाथ मंदिर को माना गया हैं. इसलिए जीवन में एक बार इस यात्रा में शामिल होने का शास्त्रों में भी उल्लेख मिलता हैं. जगन्नाथ रथयात्रा में सबसे आगे भगवान बालभद्र का रथ रहता हैं बीच में भगवान की बहन सुभद्रा का एवं अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ रहता हैं. ऐसी मान्यता है कि इस यात्रा में जो भी सच्चे भाव से शामिल होता हैं उसकी मनोकामना पूर्ण होकर उसे मोक्ष की प्राप्ति होती हैं.

भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा देश में एक पर्व की तरह मनाई जाती हैं इसलिए पूरी के अलावा कई जगह यह यात्रा निकाली जाती हैं. रथयात्रा को लेकर कई तरह की मान्यताएं एवं इतिहास भी सुनी सुनाई जाती हैं. कहा जाता हैं कि एक दिन भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने नगर देखने की चाह रखते हुए भगवान से द्वारका के दर्शन कराने की प्रार्थना की तब भगवान जगन्नाथ ने अपनी बहन को रथ में बैठाकर नगर का भ्रमण करवाया. जिसके बाद से यहाँ हर वर्ष जगन्नाथ रथयात्रा निकाली जाती हैं. इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलराम एवं बहन सुभद्रा की प्रतिमाओं को रथ पर विराजित किया जाता हैं और उन्हें नगर का भ्रमण करवाया जाता हैं.

यात्रा के तीनों रथ लकड़ी के बने होते हैं जिन्हें श्रद्धालु खींचकर चलते हैं. रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज पर या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं. तालध्वज रथ 65 फीट लंबा, 65 फीट चौड़ा और 45 फीट ऊँचा है। इसमें 7 फीट व्यास के 17 पहिये लगे हैं. बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं. सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं.

अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं. गुंडीचा मन्दिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है. श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है. श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला. कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया.महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी.

अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ. नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है. इस मंदिर और यात्रा से जुड़ी कई कथाएं जगप्रसिद्ध है यथा विग्रह निर्माण, भगवान के कटहल का बगीचा, विग्रहों के हाथ का न होना आदि. आइए इन कथाओं को एक कथा के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत करूँ –

श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं. उसकी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है – द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े. महारानियों को आश्चर्य हुआ. जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है.

राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी(भगवान बलराम की माँ) भली प्रकार जानती थीं. उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की. पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है, सुनो! सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों.

माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए. सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया. अन्त:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी. उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग- अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा. साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं. तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे. सुदर्शन चक्र विगलित हो गया. उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया. यह किशोरी जी के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था.

अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्ववत हो गए. नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान! आप तीनों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे. महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया. और वो काष्ठ के प्रतिमा के रूप में ठीक उसी रूप में अपना अपना विग्रह प्रकट किया जो आज भी मंदिर में प्रतिष्ठित है.

इस अद्वितीय यात्रा का वर्णन स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण, बह्म पुराण आदि में मिलता हैं. इसीलिए यह यात्रा हिन्दू धर्म में काफी खास हैं.
भगवान जगन्नाथ संपूर्ण विश्व का कल्याण करें. 

रितेश कुमार त्रिपाठी, सचिव, रचयिता संस्थान. एवं राजेश रौशन मिश्र,  समाज सेवी, रचयिता संस्थान.

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