रोना यथास्थिति के विरुद्ध एक मुनासिब कार्रवाई है

यह अंधेपन के विरुद्ध एक विद्रोह है!

“एक सामूहिक विलाप है जिसमें मैं अपनी भीगी आँखों के साथ शामिल हूँ। कभी-कभी रोना भी विद्रोह हो सकता है। यह अंधेपन के विरुद्ध एक विद्रोह है। खुली आँख से देखना और रोना।” महाकवि निराला के प्रपौत्र विवेक निराला की यह पंक्तियाँ हमें यथास्थिति को अस्वीकार करने की प्रेरणा देती हैं.

विवेक निराला

कवि पंकज चतुर्वेदी ने लिखा है कि दुःख लिखा जाना चाहिए। निराला जी (महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी) ने लिखा कि ‘दुःख ही जीवन की कथा रही।’

1918 के स्पेनिश फ़्लू में सिर्फ़ निराला जी की पत्नी मनोहरा देवी की ही मृत्यु नहीं हुई बल्कि कई स्वजन और परिजन मृत्यु को प्राप्त हुए। निराला ने अपनी आत्मकथात्मक कृति ‘कुल्ली भाट’ में लिखा है कि एक शव की अंत्येष्टि कर लौटते थे कि दूसरा शव प्रतीक्षा में। कंधे दुखते रहते थे जैसे उन्होंने लिखा- ‘दुखता रहता है ये जीवन।’

इस  महामारी में कितने लोग अपने स्वजन और परिजन खो चुके हैं। कुछ फूल जिन्हें देर तक अपने सौरभ से पृथ्वी को सुगंधि से भर देना था, उनमें से कुछ अभी खिलने से पहले ही टूट कर धूल में मिल गए।

धूल में मिल जाना भी एक आकांक्षा या एक प्रार्थना हो सकती है। जैसा निराला जी ही कहते हैं कि ‘धूलि में तुम मुझे भर दो।’ मगर यह समर्पण है, आत्मबलि है।

यह हत्या नहीं है। यह सामूहिक नरसंहार में अपना योगदान नहीं है,  यह आत्मवध नहीं है।

निराला जी का समय औपनिवेशिक भारत का समय था जबकि हमारा समय लोकतांत्रिक व्यवस्था का समय है। जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता के शासन में जनता है कहाँ? नीति निर्माताओं के लिए जनता जैसे है ही नहीं। फिर निराला याद आते हैं- ‘आशा आशा मरे/ लोग देश के हरे।’

हमारे समय में मृत्यु का पार्थिव पूजन कर जो महोल्लास शासन-सत्ता द्वारा मनाया जा रहा है, वह त्रासद होने के साथ मनुष्यता का शायद विश्वयुद्धों के दौर के बाद  का सबसे बड़ा संकट है।

हमारे समय में मृत्यु का पार्थिव पूजन कर जो महोल्लास शासन-सत्ता द्वारा मनाया जा रहा है, वह त्रासद होने के साथ मनुष्यता का शायद विश्वयुद्धों के दौर के बाद  का सबसे बड़ा संकट है।

1918 की महामारी में चारों ओर शव ही शव देखते हुए निराला जी ने ‘कुल्ली भाट’ में लिखा- ”अखबारों से मृत्यु की भयंकरता मालूम हो चुकी थी। गंगा के किनारे आकर प्रत्यक्ष की। गंगा में लाशों का ही जैसे प्रवाह हो।”

ठीक यही स्थिति हमारे समय की भी है। गाज़ीपुर, बलिया और बक्सर में बहती गंगा में जैसे शवों का ही प्रवाह हो। किसी ने कहा था कि ‘लाश थी, इसलिए तैरती रही/ डूबने के लिए जिंदगी चाहिए।’ लाश होने से पहले इन अपनी देहों के मालिक भी ज़िंदगी में डूब जाना चाहते थे। कौन भला महामारी में अपना उत्सर्ग करना चाहता है?

उत्तर प्रदेश के ही नहीं, उत्तराखण्ड के विभिन्न नगरों से भी अधजली लाशों के जानवरों द्वारा खींचने और  नोचने की ख़बरें सामने हैं। यह भी हमारे समय में ही होना था! दर्शन मात्र से मुक्ति का आश्वासन देते गंगा के जल में शवों का ऐसा प्रवाह मुक्ति का आश्वासन नहीं, हमारी मनुष्यता के पतन और शासन-सत्ता के नीति-निर्माताओं की निरर्थकता और संवेदनहीनता का साक्ष्य जरूर प्रस्तुत करता है।

शवों की दुर्गंध जैसे हमारी सड़ चुकी मान्यताओं,  हमारे गल रहे विश्वासों की दुर्गंध है और समूचे वातावरण में फैला धुआं हमारे भीतर सुलगती आत्मकेंद्रीयकता का धुआं हो जैसे।

निराला के पैतृक शहर उन्नाव से ख़बर है कि लोगों ने गंगा के किनारे रेत में शवों को दफना दिया। रेत से खींचकर कुत्ते अब उन्हें घसीट रहे हैं और नोच रहे हैं। मृत्यु के उपरांत देह की ऐसी दुर्दशा वीभत्स दृश्य उपस्थित करती है।

निराला की ही कविता पंक्ति है-‘पतित पावनी गंगे/निर्मल जल कल रंगे।’ इस गंगा को स्वच्छ करने में अब तक हजारों खरबों रुपये बहाए जा चुके हैं मगर फ़िलहाल यहाँ शवों को बहाया जा रहा है। पतित पावनी गंगा अपरिमित शव- प्रवाहिनी गंगा में बदल चुकी है।

मनुष्य आँकड़ों में बदल चुका है जबकि मृत्यु के सही आंकड़े छिपाए जा रहे हैं। दोष हमारी सरकार का नहीं, बल्कि सिस्टम का बताया जाता है जब कि न्यायालय में कहा जाता है कि सब ठीक है और सब कुछ सरकार के नियंत्रण में है।

मनुष्य की जिजीविषा प्रबल है, यह संकट भी समाप्त ही होगा। कितने ही दुर्गम पथ पार कर मनुष्य दिग्विजय कर सका है, फिर विजयी होगी मनुष्यता। मनुष्य विरोधी शक्तियों की पराजय होगी। सत्ताएं भूलुंठित होंगी मगर मनुष्यता अजेय है।

कभी-कभी रोना भी विद्रोह हो सकता है!

चचा ग़ालिब कहते हैं-‘रोयेंगे हम हजार बार,  कोई हमें सताये क्यूँ।’ और कबीर कहते हैं-‘दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै।’

कवि रात-रात भर जागता और रोता है। रोना कोई प्रतिगामी होना नहीं बल्कि रोना यथास्थिति के विरुद्ध एक मुनासिब कार्रवाई है।

एक सामूहिक विलाप है जिसमें मैं अपनी भीगी आँखों के साथ शामिल हूँ। कभी-कभी रोना भी विद्रोह हो सकता है। यह अंधेपन के विरुद्ध एक विद्रोह है। खुली आँख से देखना और रोना।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

seventeen + 18 =

Related Articles

Back to top button