सवालों के घेरे में भारत की अफ़गान नीति?

ड़ा डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर
डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर

20 साल पहले अफ़गानिस्तान जहाँ था, वहीं फ़िर पहुँच गया है। ऐसा दक्षिण एशिया के इस सर्वाधिक संवेदनशील देश में एकबार फ़िर से तालिबानी हुकूमत ‘स्थापित होने’ से हुआ है। जिस जनता ने बड़े अरमानों के साथ सितम्बर, 2019 में अशरफ़ गनी को राष्ट्रपति चुना था उन्होंने रविवार को ही देश छोड़कर ताज़िकिस्तान में पनाह ले ली। (2019 का चुनाव 2001 में तालिबान की तात्कालिक हुकूमत के ख़ात्मे के बाद चौथा था।) उन्हीं के साथ उप राष्ट्रपति तथा अनेक राजनेताओं के अलावा दर्ज़नों वरिष्ठ अधिकारियों ने भी क़ाबुल से भागने में भलाई समझी है।

ईरान की चालों, चीन की कुचालों और पड़ोसी पाकिस्तान से सम्बन्ध ‘नियंत्रण में’ रखने की गरज़ से भारत के लिए शुरू से ही अफ़गानिस्तान अधिक अहमियत वाला देश रहा है। इसके मद्देनज़र भारत ने पहले के गम्भीर सङ्केतों के बावज़ूद अफ़गानिस्तान के विभिन्न भागों में अपनी उपस्थिति बनाये रखी। हालाँकि भारत की वहाँ तालिबान विरोधी फौज़ी कार्रवाइयों में कोई प्रत्यक्ष भागीदारी कभी नहीं रही। इससे अलग भारत वहाँ पर सड़कों, अस्पतालों तथा स्कूलों जैसे बुनियादी निर्माण कार्यों में न केवल तत्परता से संलग्न रहा बल्कि इन कार्यों में अब तक अरबों रुपये खर्च भी किये गये हैं। पूरे दो दशक बाद जब तालिबान फ़िर से अफ़गानिस्तान की हुकूमत पर क़रीब-क़रीब चढ़ बैठा है तो संज़ीदा सवाल उभरता है कि ‘भारत की अफ़गान नीति’ का क्या निष्कर्ष निकाला जाए?

“9/11” की भयङ्करतम घटना


गौरतलब है कि “9/11” की भयङ्करतम घटना के बाद अमेरिकी फ़ौजें तालिबान के खात्मे के लिए अक्टूबर, 2001 में अफ़गानिस्तान पहुँचीं थीं। तब उसके सैनिकों की पहली खेप कान्धार में उतरी थी। उसने उस समय इस देश की भी किस्मत का ज़िम्मा परोक्ष रूप से लिया था और कालान्तर में अपने साथ के लिए उत्तर अटलाण्टिक सन्धि सङ्गठन (नाटो) की फ़ौजों को लगा लिया। ख़ास रणनीति से अमेरिका पाकिस्तान में छुपकर रहने वाले तालिबान पोषित आतङ्की सरगना ओसामा बिन लादेन का ख़ात्मा कर दिया, परन्तु वह तालिबान को ख़त्म कर पाने में बुरी तरह से नाकामयाब रहा। हाँ, इस बीच अपनी कथित ‘रणनीति’ के अन्तर्गत उसने तालिबान को उदारवादी और इंसानी ढर्रे पर लाने के लिए उससे बातचीत के भी घोषित-अघोषित कई दौर चलाये।
‘दुनिया का दारोगा’ कहे जाने वाले अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दो साल पूर्व (8 सितम्बर, 2019 में) अचानक तालिबान से बातचीत ख़त्म करने का ऐलान कर दिया।

तभी से अनुमान लगाया जाने लगा था कि अमेरिका अपने को असफल मानने लगा है, और उसके साथ ‘नाटो’ की फ़ौजें मौक़ा पाते ही निकल भागेंगी। ट्रम्प के बाद इस वर्ष राष्ट्रपति बने जो बाइडन चुनाव के समय ही अमेरिकी सैनिकों को अफ़गानिस्तान से वापस बुलाये जाने को प्रमुख मुद्दा बनाये हुए थे। ‘व्हाइट हाउस’ में बैठने के बाद उन्होंने तेज़ी तथा दृढ़ता से अमल किया। परिणामस्वरूप बीती 7 जुलाई तक 90 फ़ीसद अमेरिकी सैनिक स्वदेश लौट चुके थे।
उल्लेख्य है कि अफ़गानिस्तान में लगभग 20 सालों के दौरान तालिबान से चले सङ्घर्ष में 2,40,000 (दो लाख, चालीस हज़ार) से ज़ियादा लोग मारे गये। (यह संख्या रोज़ाना ढाई दर्ज़न से अधिक मौतों पर पहुँचती है।) इनमें ख़ुद अमेरिकी सैनिकों की संख्या ढाई हज़ार (2,500) से अधिक रही है।

तालिबान तथा दुनिया में आतङ्कवाद के उस समय के सरगना लादेन के ख़ात्मे के नाम पर रणनीति के तहत अमेरिकी फ़ौजों ने अक्टूबर, 2001 में अफ़गानिस्तान प्रवेश किया था। हालाँकि उसे मारने में अमेरिका को 10 साल से अधिक लग गये। ओसामा 2 मई, 2011 में पाकिस्तान के ऐबटाबाद में मारा जा सका। प्रमाणित माने जाने वाले आँकड़े के अनुसार इस अभियान में अमेरिका को सिर्फ़ अफ़गानिस्तान में कम से कम तीन खरब (ट्रिलियन) डॉलर गँवाने पड़े। इसके अलावा जो ज़लालत झेलनी पड़ी उसका तो कोई पैमाना ही नहीं है।

भारत ने भी कोई दो दशक के दौरान अफ़गानिस्तान में 22 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक ख़र्च किये। यद्यपि भारत सरकार इसे निवेश बताती है। विदेश मंत्रालय के अनुसार ये धनराशि 400 से अधिक छोटी-बड़ी परियोजनाओं पर लगायी गयी है। उल्लेख प्रासङ्गिक होगा कि भारत का अफ़गानिस्तान के साथ मौज़ूदा कुल क़ारोबार क़रीब 75 हज़ार करोड़ रुपयों का है।
जानकारों के अनुसार अमेरिका की दो दशकों तक अफ़गानिस्तान में उपस्थिति न केवल तालिबान से निपटने बल्कि एशिया के एक बड़े भाग में अमेरिकी हितों की व्यापक रणनीति का हिस्सा रही है। भले ही अब अचानक इस पर वह गम्भीर उधेड़बुन में है। इसका अन्दाज़ा इस बात से लगता है कि सोमवार को उसने क़ाबुल स्थित अपने दूतावास पर से अपना झण्डा उतार लिया। जहाँ कई घण्टे हेलिकॉप्टरों की निगरानी में अमेरिकी वायुसेना के चले ‘ऑपरेशन’ के ज़रिये राजनयिकों एवं अन्य कर्मचारियों को क़ाबुल हवाई अड्डे पर पहुँचाया जा सका। रातोंरात ये सभी स्वदेश बुला लिये गये। इसके बाद सोमवार को दोपहर इस हवाईअड्डे पर हमले की भी ख़बर आयी जिसके बाद इसे बन्द किया जाना बताया गया। यह इस बाद का सङ्केत माना जा सकता है कि अमेरिकी दूतावास पूरी तरह खाली हो चुका है।

यद्यपि इसी बीच यह ख़बर भी है कि सोमवार सुबह से 48 घण्टों में अमेरिका के 6,000 फौज़ी अफ़गानिस्तान में होंगे जो देश में एयर ट्रैफिक क़ाबू करने का काम सम्भालेंगे।
बहरहाल अमेरिका अपने नागरिकों समेत 2,000 अफ़गानी नागरिकों को भी विशेष वीज़ा देते हुए बुला चुका है। उधर ख़बर है कि अमेरिका की अफ़गान नीति की विफलता पर वहाँ भारी नाराज़गी है और अमेरिकी सैनिक अफ़गानिस्तान में जान गँवाने वाले साथियों की मौत का हिसाब माँग रहे हैं। इस घटना को अनेक विशेषज्ञ चर्चाओं में प्रकारान्तर से ‘फौज़ी असन्तोष’ का नाम दे रहे हैं। अमेरिका के अफ़गानिस्तान से उलटे पाँव लौटने को अमेरिका में ही ‘पराजय’ के बतौर समझा जा रहा है। कूटनयिक क्षेत्रों में तो कहा जा रहा है कि अमेरिकी फ़ौजों की वापसी राष्ट्रपति बाइडन की बड़ी भूल साबित हो सकती है!


इधर भारत 34 प्रान्तों वाले अफ़गानिस्तान में तालिबान की एक के बाद एक शहरों में बढ़ती बढ़त को देखते हुए दो महीनों से ख़ास चौकन्ना रहा। उसने गम्भीरता बढ़ने के साथ अपने नागरिकों को अफ़गानिस्तान से लौटने की सलाह देनी शुरू कर दी थी।

इनमें अनेक नागरिक वहाँ काम-धन्धों के अतिरिक्त ज़मीन-ज़ायदाद आदि ख़रीद कर दूसरे क़ारोबार में लगे हुए हैं। भारत सरकार की सतर्कता से पिछले कुछ दिनों के दौरान बहुत से भारतीय क़ाबुल और दूसरे शहरों से लौटे हैं।

वह अपने प्रमुख राजनयिकों को वापस बुला चुका है लेकिन अफ़गानिस्तान से सम्बन्धों को लेकर भारत भी दुविधा में दिखायी देता है! इसकी वज़ह पाकिस्तान के अलावा चीन एवं ईरान हो सकते हैं जिनसे भारत को हमेशा ही कभी साधना और कभी निपटना पड़ता है। यह समय और सवाल दोनों बहुत संज़ीदा हैं।

उधर यह विश्लेषण लिखे जाने तक कनाडा ने अफ़गानिस्तान से कूटनयिक सम्बन्ध तोड़ लिये हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह भारत के लिए अफ़गानिस्तान से अपने नागरिकों को बुलाने का समय तो है ही, साथ ही दो दशकों में अफ़गानिस्तान से स्थापित अपने सम्बन्धों की भी समीक्षा का वाज़िब वक़्त है। इसका प्रमुख कारण यह कि भारत जिसे वहाँ अपना निवेश बता रहा है, तालिबान के रहते उसका कोई नज़दीकी क्या, दूरगामी लाभ भी नहीं दिखता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Articles

Back to top button