लॉक डाउन प्रतिबंधों में अब किस प्रजातांत्रिक छूट की प्रतीक्षा है ?

-श्रवण गर्ग , पूर्व प्रधान सम्पादक दैनिक भास्कर एवं नई दुनिया

श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार

देश जब दिक्कतों का सामना कर रहा हो, जनता या तो घरों में बंद हो या सड़कों पर पैदल चल रही हो ,आपदा प्रबंधन के तहत सारी शक्तियाँ कुछ व्यक्ति-समूहों में केंद्रित हो गई हों, उस स्थिति में अदालतों, विपक्ष और मीडिया को क्या काम करने चाहिए ?और क्या इन सबके कामों का प्रबंधन भी कोरोना के इलाज और वेंटिलेटरों की ख़रीदी की तरह ही कार्यपालिका के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए ? क्या 1975 के आपातकाल के दौरान ऐसी ही सर्व-मान्य व्यवस्था क़ायम थी ?क्या यू.पी.ए.सरकार के दौरान अदालतों की कोई भूमिका ही नहीं थी ? टू-जी प्रकरण और कोयला खानों के आवंटन में हुए कथित भ्रष्टाचार के मामले क्या तब सड़कों पर निपटाए गए थे ?

सरकार के क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने हाल ही में जो कुछ कहा या इनके भी पहले ‘संकट के समय में’ अदालतों की ज़िम्मेदारी को लेकर प्रसिद्ध न्यायविद हरीश साल्वे ने जो वैचारिक बहस छेड़ी उन सबको इस परिप्रेक्ष्य में देखना ज़रूरी हो गया है कि भारत में प्रजातंत्र को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो मूल्यांकन हो रहा है उससे हमें चिंतित होना चाहिए या नहीं।विचार इस बात पर भी करना पड़ेगा कि लॉक डाउन की पाबंदियों में छूट देने के साथ-साथ विपक्ष और नागरिक समूहों को व्यवस्था के प्रति अपना शांतिपूर्ण विरोध व्यक्त करने के प्रजातांत्रिक अधिकारों में भी कोई ढील दी जा रही है या वे अनिश्चित काल तक बंधनों में ही क़ैद रखे जाएँगे ? नागरिक-अधिकारों को लेकर न्यायपालिका द्वारा दिशा-निर्देश जारी करने की पहल को क्या इस तरह आरोपित किया जाएगा कि अदालतों के ज़रिए समानांतर सरकार चलाई जा रही है ?क्या आरोप लगाए जाएँगे कि अदालतों के ज़रिए सरकार पर नियंत्रण करने की कोशिश की जा रही है ?

प्रसाद ने कहा है कि जिन शक्तियों को जनता द्वारा ख़ारिज कर दिया गया वे राजतंत्र(पोलीटी) पर अदालतों के अहातों के ज़रिए नियंत्रण प्राप्त नहीं कर सकतीं।उन्होंने यह भी कहा कि अदालतें जनहित से जुड़े मामलों में फ़ैसले लेने के लिए स्वतंत्र हैं पर उनपर किसी भी प्रकार के प्रकट या प्रच्छन्न दबाव नहीं लाए जाने चाहिए।प्रसाद के कथन को प्रवासी मज़दूरों के सम्बंध में सुप्रीम कोर्ट में एक सुनवाई के दौरान तुषार मेहता द्वारा की गई इस टिप्पणी के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि देश के उन्नीस उच्च न्यायालयों के ज़रिए कुछ लोग समानांतर सरकार चला रहे हैं।ज्ञातव्य है कि प्रवासी मज़दूरों की व्यथा के सम्बंध में कई उच्च न्यायालयों ने स्वतः संज्ञान लेकर सरकारों की तीखी आलोचना की है और कड़े निर्देश जारी किए गए हैं।मेहता की टिप्पणी भी इसी संदर्भ में थी।

प्रसाद और मेहता द्वारा व्यक्त विचारों को इसलिए भी गम्भीरता से लिया जाना चाहिए कि महामारी से निपटने के लिए दवा की खोजबीन के साथ-साथ अदालतों,नागरिकों और मीडिया के ‘कर्तव्यों और अधिकारों’ को भी नए सिरे से परिभाषित करने का काम अगर सम्पादित किया जा रहा हो तो चिंता की बात बन सकती है।हरीश साल्वे ने अपने हाल के एक आलेख में विचार व्यक्त किए हैं कि दुनिया भर में सरकारों ने महामारी से लड़ने के लिए अपने आपको अतिअसाधारण शक्तियों से सज्जित कर लिया है ।अतः कार्यपालिका द्वारा लिए जाने वाले निर्णयों में अदालतों की ओर से बाधाएँ नहीं उत्पन्न की जानी चाहिए।उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कार्यपालिका की जवाबदेही किसके प्रति है।दूसरी ओर इस तरह की बहस भी अब सार्वजनिक तौर पर चलाई जा रही है कि :”आपदाकाल में लोगों ने स्वेच्छा से अपनी स्वतंत्रता की अपेक्षा सुरक्षा को ज़्यादा महत्व दिया है।इससे स्पष्ट है कि भविष्य में हमें राज्य की नैतिक शक्ति का पुनर्निर्धारण करना होगा कि राज्य को कितनी शक्ति दी जाए और व्यक्ति को कितनी स्वतंत्रता।”

स्वीडन के एक संस्थान (V-Dem Institute) द्वारा मार्च में किए गए एक अध्ययन ने 92 देशों में ‘एकतंत्रीय’ शासन व्यवस्था(ऑटोक़्रेसीज) की गणना की है जिनमें विश्व की 54 प्रतिशत आबादी रहती है।अध्ययन में कहा गया है कि भारत में तेज़ी से प्रजातांत्रिक परम्पराओं का ह्रास होकर देश एकतंत्रीय व्यवस्था की तरफ़ बढ़ रहा है।भारत की गिनती ऐसे दस प्रमुख राष्ट्रों में की गई है जिनमें अमेरिका,ब्राज़ील और तुर्की को भी शामिल किया गया है।भय व्यक्त किया गया है कि भारत एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था के रूप में स्थापित अपनी प्रतिष्ठा को खोने के कगार पर है।

गुजरात उच्च न्यायालय ने कोरोना पीड़ितों के इलाज को लेकर 22 मई को राज्य सरकार के ख़िलाफ़ सख़्त शब्दों में टिप्पणियाँ कीं थीं।कहा गया था कि राज्य की स्थिति  एक डूबते हुए टायटेनिक जहाज़ और अहमदाबाद स्थित सिविल अस्पताल एक काल कोठरी से भी बदतर है।इसके बाद मुख्य न्यायाधीश द्वारा मामले की सुनवाई कर रही पीठ को बदलकर नई पीठ गठित कर दी गई।मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली इस पीठ ने अब कहा है कि :’राज्य सरकार अगर कुछ कर ही नहीं रही होती तो सम्भवतः हम सब अब तक बच ही नहीं पाए होते।संकट के समय हमने आबद्ध रहना है, झगड़ना नहीं है’।

कोरोना के भय और उसके साथ लड़ाई की चिंता ने हमारे यहाँ नागरिकों की प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) को इतना मज़बूत कर दिया है कि उन्हें खबर ही नहीं है (या कि दी जा रही है ) कि दुनिया के एक बड़े प्रजातंत्र अमेरिका में इस समय एक अश्वेत नागरिक की पुलिस के हाथ हुई नृशंस हत्या के विरोध में पूरे देश में किस तरह के विरोध-प्रदर्शन सड़कों पर चल रहे हैं।यह प्रदर्शन अमेरिका की कोई बीस प्रतिशत अश्वेत आबादी के प्रजातांत्रिक अधिकारों के हनन के विरोध में हो रहे हैं।प्रदर्शनकारी महामारी से होनेवाली मौतों और संक्रमण को इस वक्त भूल गए हैं।हम चाहें तो इस बात को लेकर भी चिंतित हो सकते हैं कि एक लम्बे समय तक घरों में बंद रहते हुए शेष विश्व से अलग कर दिए गए हैं।हमारी लड़ाई जबकि एक वैश्विक महामारी से है ।

======================================

Shravan Garg is a Senior Journalist of the print media.
His journalistic footprints — over more than four decades, with leading Hindi, Gujarati and English newspapers have afforded him a ringside view of India in action.

An alumnus of Thomson Foundation, London, UK and Salzburg Seminar, Salzburg, Austria — he has made forays into TV debates, mass media education, consulting, and teaching journalism at the university levels.

His time-line includes the who’s who of print media ranging from The Indian Express Group to Dainik Bhaskar Group to Dainik Jagran Group (NaiDunia) to Free Press Journal Group to Prestige Institute of Management and Research, Indore, amongst others.

He has been an editorial head for the better part of his career and has served as a member of the National Integration Council, Press Council of India, Editors Guild of India, Indian Institute of Mass Communication Society, etc.

His passion for excellence and his unstinted drive for creative journalism are well known hallmarks in the industry. His personal integrity and loyalty to journalism have afforded him a well earned stature as a national media person.

His website shravangarg.com has his writings, poetry and detailed CV.

Leave a Reply

Your email address will not be published.

six − six =

Related Articles

Back to top button