भारत को चीन नीति पर ठंडे दिमाग से काम की जरूरत 

दिनेश कुमार गर्ग 
  कोविड 19 को लेकर अमरीका सहित विश्व के कई देशों को चीन की नीयत में खोट नजर आ रहा है और  अमेरिका (यूएस ) चीन के विरुद्ध काफी आक्रमक बयानबाजी करना शुरू कर चुका है। वे जो कुछ करेंगे अपने राष्ट्रीय हित में एक सुनिश्चत चाइना पाॅलिसी के प्रकाश में करेंगे। अमेरिका, यूरोप को भूलिये , चीन के बारे में पाकिस्तान तक एक सुनिश्चत राष्ट्रीय नीति रखता है और उसी के प्रकाश में अपनी कूटनीतिक , सामरिक, आर्थिक हितों को साधता है । 
  पर यह दुर्भाग्य और घोर चिंता का विषय है कि चीन से 4056 किलोमीटर लंबी सीमा की साझेदारी, ऐतिहासिक सांस्कृतिक साझेदारी , दोनों देशों को मिलाकर विश्व की 37 प्रतिशत जनसंख्या की हिस्सेदारी , विश्व के दो सर्वाधिक जीडीपी वाले क्षेत्र होने से अन्य देशों के समक्ष अर्थव्यवस्थागत बढ़त रखने, विश्व की दो सर्वाधिक बडी़ सैन्य जनसंख्या शक्ति आदि होने के बाद भी भारत के पास कोई चीन नीति नहीं है।
चीन को लेकर पंडित नेहरू की स्वप्नदर्शी बातों और 1962 के चीन-भारत युद्ध में अपमानजनक पराजय की छाया में हमें चीन के बारे में व्यावहारिक, तथ्य आधारित सोच विकसित करने में कठिनाई हो रही है। उल्टे चीन की एक अपनी  भारत नीति होनी प्रतीत होती है जिसमें वह भारत को घेरने सदृश कई कार्य समुद्र में ,स्थल में और कूटनीति में लगातार करता आ रहा है।
1962 में चीनी नेता माओ ने प्रधानमंत्री नेहरू को झटका दिया
नेपाल जनमानस भारत के ख़िलाफ़ 
चीन के प्रति स्पष्टता का अभाव होने से विश्व के कूटनीतिक जगत में हम भारतीय गफलत में भरे लोग ही साबित होते दिखते हैं और सम्भवतः इसी कारण ,  हमारे ढुलमुलपने से सशंकित हमारे कई पूर्वकाल के घनिष्ठ पडो़सी अब चीन के आर्थिक उन्नयन से आकर्षित हो उसके सामरिक, आर्थिक और कूटनीतिक पार्टनर बनने की होड़ में चले जाते दिख रहे हैं । कई पडो़सी देशों में तो जनमत भी भारत के खिलाफ होने लगा है और सबसे ताजा उदाहरण  नेपाल है जिसे हिन्दू बहुल और हिमालयी राज्य होने के कारण भारत की प्रतिध्वनि समझा जाता है । वहां के लोग विभिन्न कारणों से भारतीयों से चिढ़ने से लगे हैं और उस कारण उत्तर प्रदेश व बिहार के सीमावर्ती नेपाली जनपदों में भारत से गये छोटे व्यापारियों और मजदूरों पर हमले तक हुए।
चीन के प्रति ढुलमुल रवैया  
तो इस कोविड 19 काल में भी जब दुनिया चीन की जवाबदेही तय करने का उद्यम कर रही है यह प्रश्न हमें मथ रहा है कि क्या इतिहास के इस मोड़ पर भी चीन के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाए रख भारत नीति निर्माण का अवसर  गवां देगा ? कोविड 19 के कारण अर्थव्यवस्था में भारी नुकसान उठाने या कहिये सत्यानाश कराने के बाद दिशाहीन अलग-थलग रह जायेगा? चीन पाॅलिसी को लेकर  भारत के प्रमुख राजनीतिज्ञ तो पूरी तरह बेपरवाह दिख रहे हैं। बीजेपी , कांग्रेस सहित सभी अन्य महत्वाकांक्षी क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने जिन्होने अतीत और वर्तमान में केन्द्रीय सत्ता की भागीदारी की या करनेकी महत्वाकंक्षा जताई हैं, वे सब अब तक इस महत्वपूर्ण मामले पर मौन हैं , अपवाद हैं तो सुब्रह्मण्यम स्वामी जो बीजेपी एम पी हैं पर उनका व्यक्तित्व बीजेपी से भिन्न भी है । वह अपने आप में एक संस्था  हैं।
सुब्रह्मण्यम स्वामी की राय
 सुब्रह्मण्यम स्वामी ने शनिवार को प्रतिष्ठित पत्र ” द सन्डे गार्डियन लाइव” में एक लेख लिखकर इस समय भारत की चीन नीति के निर्धारण की आवश्यकता रेखांकित की है। उन्होंने लिखा कि कोविड 19 के वुहान रिसर्च लैब से निकल कर विश्व भर में फैले वायरस की समस्या पर भारत को एक सुविचारित दृष्टिकोण विकसित करना चाहिये , आलोचनाओं की परवाह किये बगैर। भारत का दृष्टिकोण इस समस्या के  प्रति स्पष्ट हो या न हो या फिर गोल-मोल हो,  वह आलोचनाओं से बच नहीं सकता ।  । इस घातक वायरस के जन्म में किसका हाथ है और उसको छिपाने में किसका,  इस प्रश्न पर गोलमोल बातें ठीक नहीं होंगी। हमें अपना मत उपलब्ध तथ्यों के आधार पर किसी बाहरी दबाव को नकारते हुए स्थिर करना होगा। हमें याद रखना चाहिए कि वायरस कोविड 19 के उद्भव और लीक की महासमस्या को लेकर यूनाइटेड स्टेट्स एक स्वयंभू  प्राॅसीक्यूटर बन कर उभर रहा है। उसका दावा है कि उसको भारी नुकसान है जिसका जवाबदेह चीन है।
पर  यूनाइटेड स्टेट्स  भूल रहा है  कि वुहान रिसर्च लैब  के प्रोजेक्ट बैट-वायरस में  अमरीकी प्रतिरक्षा विभाग की भी भागीदारी रही। और तो और , टाटा इन्स्टीट्यूट आॅफ फन्डामेण्टल रिसर्च (टी आई एफ आर) भी भारत सरकार को जानकारी दिये बगैर इस प्रोजेक्ट से जुडा़ और नागालैण्ड में चमगादडो़ पर परीक्षण हेतु इन दो संस्थाओं से जुड़ गया । ” द हिन्दू” ने में जब इस त्रिपक्षीय शोध की जानकारी प्रकाशित हुई तो भारत सरकार ने जांच के आदेश दिये। पर मुद्दा यह है कि एक निष्पक्ष जांच हो पायेगी या नहीं या फिर टाटा इन्स्टीट्यूट आफ फन्डामेण्टल रिसर्च के अनुचित दबाव में सब गोलमाल हो  जायेगा?
चीन के प्रति  दृष्टिकोण विकसित करने में हमें याद रखना होगा कि जाडो़  में यूएस में राष्ट्रपति चुनाव हैं और इस कारण अमरीकी लोगों की पुरानी चीन विरोधी भावनाओं को वोट में बदलने के लिए नवंबर तक अमरीकी लोग वायरस बनाने और फैलाने में चाइनीज हैण्ड होने के आरोपों की झडी़  लगाये रखेंगे। चुनाव खत्म होते ही आरोप खत्म होंगे और अमरीकी और चाइनीज बिजनेस की बात कर रहे होंगे।
चीन के हाथों सन् 1962 की करारी पराजय के कारण भारत में भी चीन-विरोधी भावनाओं का।ज्वार चढ़ता रहता है। इसी कारण हम भी चाइनीज वायरस दुष्कर्म को लेकर तनतना जा रहे हैं। तब हम हिमालय के ठंडे मौसम में  सेना की युद्ध तैयारियां न होने से चारोंखाने चित हुए,  पर वह घाव हम सब को टीसता तो है ही। यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि स्वतंत्रता के बाद से सरकार जिन लोगों ने भी बनायी और चलाई उनके नेताओं ने आज तक भारत के संबंध में चाइनीज पर्सपेक्टिव को समझकर उसका समुचित प्रत्युत्तर देने की क्षमता विदेश मंत्रालय में विकसित नहीं की। इस कारण भारत के लोग चीन को लेकर हमेशा द्विविधाग्रस्त रहते हैं -चीन भरोसेमंद मित्र हो सकता है या फिर दुर्धर्ष शत्रु ही बना रहेगा ?
 अतएव चीन के बारे में नीति बनाने के लिए  हमें संबंधों के ऐतिहासिक पन्नों का सावधानी से पाठ करते हुए उनके शिक्षाप्रद निष्कर्षों के प्रकाश में आगे बढ़ना चाहिए। देखिये चीन ने 1981 में भारत को कैलाश मानसरोवर यात्रा की सुविधा दी है और 1991में उस ट्रेड प्रोटोकोल ट्रीटी पर हस्ताक्षर किया जिस पर वह पहले तैयार नहीं होता था।
 ध्यान रहे कि मौजूदा माहौल चाहे जो हो सबसे बढ़कर हमारे राष्ट्रीय हित है, जिसके मद्देनजर हम चीन संबंधी नीति पर आगे बढे़ं। रिपब्लिक आफ इंडिया और पीपुल्स रिपब्लिक आफ चाइना की स्थापना के इन 70 वर्षों में हमारे स्वस्थ संबंधों को विकसित करने के लिए राष्ट्रीय हित में क्या आवश्यक है और विदेश नीति को आगे बढा़ने में सुविधाजनक/ असुविधाजनक क्या है इस पर गहन विचार नहीं किया गया है और इस वजह से इतने लम्बे दौर में हम संबंधों की अतियो (एक्सट्रीम्ज )के शिकार होते रहे। गफलत में रहने के नुकसान उठाने से अच्छा है कि सोची समझी चीन नीति तैयार हो और उसका लाभ देश को मिले।
लेखक : लेखक दिनेश कुमार  गर्ग पत्रकार, शिक्षक और उत्तर प्रदेश सरकार में अधिकारी , सम्पादक रहे हैं. सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग से उप निदेशक पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद वह स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं.  

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