आज़ादी के अधूरे सपने कैसे पूरे हों!

रामदत्त त्रिपाठी,पूर्व संवाददाता बीबीसी
राम दत्त त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार

आज भारत जब अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे कर ज़ोर – शोर से “अमृत महोत्सव” मना रहा है, हमें एक पल ठहरकर यह भी सोचने की ज़रूरत है कि आज़ादी के अधूरे सपने कैसे पूरे हों और यह भी कि कहीं हम अपने उद्देश्य से उल्टी दिशा में तो नहीं चल रहे हैं।

अगस्त का महीना भारतीय राजनीति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। इसी महीने की नौ तारीख़ को, “अंग्रेजों भारत छोड़ो” के रूप में ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ आख़िरी जंग लड़ी गयी थी और इसी महीने की पंद्रह तारीख़ को आज़ादी मिली, हालाँकि उस रूप में नहीं जिस रूप में स्वतंत्रता संग्राम के नायक चाहते थे। इस समय हम अपनी स्वतंत्रता का “अमृत महोत्सव वर्ष” मना रहे हैं। घर – घर तिरंगा झंडा पहुँचाया जा रहा है – हालाँकि वह भी मूल अवधारणा के अनुसार खादी का न होकर पॉलिएस्टर का है और आयातित भी . हम अपने देश में अपने झंडे का कपड़ा भी नहीं बुन सकते . 

घर – घर झंडा फहराने के  बहाने वे राजनीतिक ताक़तें स्वतंत्रता आंदोलन की मुख्य धारा से जुड़ने का दिखावा कर  उसका श्रेय लेना चाहती हैं और जो आज़ादी की  लड़ाई के वास्तविक हीरो थे उन्हें विलेन साबित करना चाहती हैं। देश की नयी पीढ़ी को इस प्रवंचना से कैसे बचाया जाए? 

ज़ाहिर है उसके लिए हमें भी घर – घर जाना होगा। दरअसल महात्मा गांधी का सबसे बड़ा योगदान यही था कि उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को मुट्ठी भर सशस्त्र क्रांतिकारियों तक सीमित रहने देने के बजाय जन – जन तक पहुँचाया और उनको सक्रिय रूप से शामिल किया।सत्य और अहिंसा के ज़रिए आम आदमी को अत्याचारी हुकूमत से लड़ना सिखाया। बिना जन विश्वास के कोई सत्ता टिक नहीं सकती और गांधी ने अंग्रेजों के शासन  करने के नैतिक अधिकार को सफलता पूर्वक चुनौती दी, जिसमें उन्हें ब्रिटिश जनता के एक वर्ग का भी समर्थन मिला – जो बहुत बड़ी उपलब्धि थी। 

यह अच्छी बात है कि सरकार घर – घर तिरंगा झंडा  पहुँचा  रही है।अब बाक़ी लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वे घर – घर जाकर आज़ादी और तिरंगे का मतलब समझाएँ। भारत का  केसरिया झंडा मात्र तीन रंग के कपड़ों का गँठजोड नहीं है। यह भारतीय गणतंत्र की शक्ति, साहस, सत्य, शांति उर्वरता और समृद्धि का प्रतीक है। तिरंगे झंडे के साथ हमें घर – घर संविधान की प्रस्तावना भी पहुँचाना चाहिए जिसमें हमने अपने उद्देश्य निर्धारित किए थे – स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व। सबको राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय। लोगों को समझाना होगा कि पिछले कुछ वर्षों से देश की गाड़ी इन मूल्यों से विपरीत दिशा में चल रही है और इसके परिणाम भयावह होंगे। 

हमने संकल्प लिया था कि क़ानून का शासन होगा, यानी क़ानून के सामने सब बराबर होंगे। उसमें बुलडोज़र की गुंजाइश नहीं है। हमने वादा किया था कि सबको आर्थिक न्याय मिलेगा यानी लोग आत्मनिर्भर होंगे न कि दो जून की रोटी के लिए सरकार के सामने हाथ पसारना पड़ेगा। किसी दिन का अख़बार उठाकर देख लीजिए साफ़ पता चलता है कि लोगों के जीवन में कितना असंतोष है। बेरोज़गारी और क़र्ज़ बढ़ता जा रहा है और आत्महत्या की दर भी।

कहने की तो हम संसदीय लोकतंत्र चला रहे हैं लेकिन संसद एक औपचारिकता बनकर रह गयी है। संविधान में सांसदों को बोलने की पूर्ण  आजादी दी गयी है, और वहाँ कुछ भी बोलने के लिए उन पर किसी तरह की कार्यवाही नहीं हो सकती, लेकिन सॉंसद राजनीतिक दलों के गुलाम हो गये हैं और राजनीतिक दल अपने – अपने सर्वोच्च नेता की मुट्ठी में क़ैद हैं. 

संसद का काम है सरकार के काम काज की जॉंच पड़ताल करना , सवाल पूछना , क़ानून बनाना और बजट की पड़ताल करके उसका अनुमोदन करना . लेकिन अब यह सब औपचारिकता मात्र रह गये हैं और इसीलिए सरकार निरंकुश. दलबंदी क़ानून से दलबदल  तो नहीं रुका सॉंसद और विधायकों की ज़ुबान ज़रूर बंद हो गयी. 

राजनीतिक दलों के नेतृत्व के चयन अथवा रीति नीति तय करने में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की कोई भूमिका नहीं रह गयी है और न ही संसद अथवा विधानसभा के उम्मीदवारों के चयन में .चुनाव इतना खर्चीला और प्रक्रिया इतनी जटिल हो गयी है कि कोई आम राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता अपनी उम्मीदवारी के बारे में सोच भी नहीं सकता . 

हमारा सपना ग्राम स्वराज अर्थात् विकेंद्रित शासन का था , लेकिन राजकाज इतना केंद्रित हो गया है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के अलावा किसी मेयर , ज़िला परिषद अध्यक्ष, ब्लॉक प्रमुख या ग्राम प्रधान के पास अपने- अपने  क्षेत्रों अनुकूल नीतियॉं और नियम बनाने का अधिकार नहीं . 

पूँजीवादी अर्थ व्यवस्था को लोकतंत्र के बजाय केंद्रित शासन सुविधाजनक लगता है, इसलिए देश में ऐसी आर्थिक नीतियाँ  बन रही हैं जिससे देश में  असमानता ख़तरनाक रूप से बढ़ती जा रही है और दौलत  मुट्ठी भर लोग या चंद कंपनियों के हाथ में केंद्रित हो रही है और असल में वही राजनीतिक दलों का भी संचालन कर रहे हैं.

इसलिए घर – घर जाकर लोगों को बताना है कि वे मात्र लाभार्थी अर्थात् कुछ किलोग्राम अनाज , सम्मान राशि अथवा मकान के हक़दार नहीं हैं बल्कि भारतीय गणतंत्र के मालिक और स्टेकहोल्डर के नाते और भी बहुत कुछ पाने के हक़दार हैं जिससे वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था उन्हें वंचित रख रही है – धर्म और जाति के झगड़े में उलझाकर .

उन्हें बताना होगा कि न्याय , शिक्षा , स्वास्थ्य, कृषि , कुटीर उद्योग , पब्लिक ट्रांसपोर्ट आदि के लिए पर्याप्त बजट क्यों नहीं आबंटित हो रहा है ? बेरोज़गारी क्यों बढ़ रही है . प्रति व्यक्ति आय क्यों इतनी कम है ? यानी लोग, विशेषकर किसान, मज़दूर और नौजवान ख़ुशहाल क्यों नहीं हैं?

लोग अपने मौलिक अधिकारों के संरक्षण और न्याय के लिए अदालत के दरवाज़े नहीं खटखटा सकते और न ही मीडिया उनका दुःख दर्द उजागर कर सकता है।

एक बड़ा सवाल है कि इन सब मुद्दों को लेकर आम लोगों तक पहुँचें कैसे ? आम आदमी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के सवालों में उलझा है . आम आदमी सीधे – सीधे राजनीति में पड़ना भी नहीं चाहता . इसलिए अगर लोगों से जुड़ना है तो हमें उनकी ज़िन्दगी से जुड़े सवालों से जुड़ना होगा. लोगों को ताक़त देने वाले कार्यक्रम सोचने होंगे जैसे आज़ादी की लड़ाई में अस्पृश्यता निवारण, चरखा, गोसेवा , बुनियादी शिक्षा और अन्य अनेक कार्यक्रम लिए गये थे . 

आज़ादी के बाद देश में परिवर्तन चाहने वाले लोगों ने अपने हीरो भी बॉंट लिए  . गॉंधी , विनोबा, नेहरू , जय प्रकाश, लोहिया , अम्बेडकर आदि – आदि . ये सब एक दूसरे के पूरक थे- विरोधी नहीं . आज जब हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो आज़ादी के अधूरे सपने पूरे करने के लिए सबके अनुयायियों को  एक छतरी के नीचे आने की ज़रूरत है – तभी एक मज़बूत ताक़त बनेगी जो देश को उल्टी दिशा में जाने से रोक सके. 

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