आदिवासी मुर्मू जनजाति का इतिहास और संस्कृति का परिचय

                                                 *डॉ.आर.अचल पुलस्तेय

डा आर अचल
डा आर अचल

राष्ट्रपति पद के लिए सत्ताधारी दल की प्रत्याशी द्रोपदी मूर्मू का आदिवासी समुदाय से होना ऐतिहासिक उपलब्धि मानी जा रही है।इसलिए आज उस आदिवासी कुल की चर्चा भी जरुरी हो जाती है कि वे किस आदिवासी कुल से संबंध रखती हैं। भारत में आदिवासियों के अनेक कुल है, सभी का इतिहास,परम्परायें,धर्म,कर्मकाण्ड अलग-अलगहै।मूर्मू जी संथाल आदिवासी समुदाय के चौदह गोत्रों में से एक मूर्मू गोत्र से आती है।जिनकी आस्था, धर्म,परम्परायें,संस्कृति अन्य आदिवासी कुलो व  प्रचलित धर्मों से बिल्कुल अलग है।हाँलाकि अन्य आदिवासी समूहो की ही तरह संथाल कुल के शिक्षित विकसित लोग हिन्दू और ईसाई परम्पराओं के मानने लगें है,परन्तु गाँवों में रहने वाले आज भी अपनी परम्पराओं पर कायम है। आइये संथाल आदिवासी समुदाय के बारे में जानते है।

 संथाली भाषा बोलने वाले आदिवासी समुदाय को संथाल कहते हैं।परन्तु विभिन्न क्षेत्रो में रहने वाले इस समुदाय लोग क्षेत्रीय भाषा-बोलियों के प्रभाव में खुद को संथाल, संताल, संवतल, संवतर,संताड़ी आदि कहते हैं,जबकि संथाल, संताल, संवतल, संवतर आदि ऐसा कोई शब्द ही नहीं है। शब्द केवल “संथाली” है, जिसे उच्चारण के अभाव में देवनागरी में “संथाली” और रोमन में Santali लिखा जाता है। संथाली भाषा बोलने वाले खेरवाड़ समुदाय से आते हैं, जो अपने को “होड़” (मनुष्य) अथवा “होड़ होपोन” (मनुष्य की सन्तान) भी कहते हैं। यहां “खेरवाड़” और “खरवार” में अंतर है।

खेरवाड़ एक समुदाय है, जबकि खरवार इसी की ही उपजाति है। इसी तरह हो, मुंडा, कुरुख, बिरहोड़, खड़िया, असुर, लोहरा, सावरा, भूमिज, महली रेमो, बेधिया आदि इसी समुदाय की बोलियां है, जो संताड़ी भाषा परिवार के अन्तर्गत आते हैं। संताड़ी भाषा भाषी लोग भारत में झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, असम, त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, सिक्किम, मिजोरम राज्यों तथा देश के बाहर चीन, न्यूजीलैंड, नेपाल, भूटान, बंगलादेश, जवा, सुमात्रा आदि देशों में रहते हैं।उपजाति के खरवार लोग बहुत कम संख्या में उत्तर,मध्यप्रदेश  भी रहते हैं।

संथाल आदिवासी समुदाय

संथाल आदिवासी समुदाय भारत की प्राचीनतम जनजातियों में से एक हैं। किन्तु वर्तमान में इन्हे झारखंडी (जाहेर खोंडी) के रूप में जाना जाता है। झारखंडी का अर्थ झारखंड में निवास करने वाले से नहीं है बल्कि “जाहेर” (सारना स्थल) के “खोंड” (वेदी) की पूजा करने वाले लोगो से है, जो प्रकृति को विधाता मानते है। अर्थात् प्रकृति पूजक है,जिसमें पानी,सूर्य,चन्द्र,धलती,पेंड़ो की पूजा करते है।संथाली मिथकों के अनुसार पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति आदि पिता  “मारांग बुरु” और आदि माता “जाहेर आयो” से हुई है,इस लिए उनकी आदि देवता है. है।

यह समुदाय वस्तुत: संथाली भाषा भाषी के लोग मूल रूप से खेरवाड़ समुदाय से आते हैं, किन्तु मानवशास्त्रियों ने इन्हें प्रोटो आस्ट्रेलायड मानव प्रजाति से मानते है। 

संताड़ी समाज की जीवन शैली और परम्परायें प्रकृति पर आधारित हैं,उनके लोकसंगीत, गीत, नृत्य और भाषा अपनी हैं। उनकी स्वयं की मान्यता प्राप्त लिपि ओल-चिकीहै, जो खेरवाड़ समुदाय के लिये अद्वितीय है। इनकी सांस्कृतिक शोध दैनिक कार्य में परिलक्षित होते है- जैसे डिजाइन, निर्माण, रंग संयोजन और अपने घर की सफाई व्यवस्था में है।

दीवारों पर आरेखण, चित्र और अपने आंगन की स्वच्छता कई आधुनिक शहरी घर भी फीके पड़ जाते है। अन्य विषेशता इनके सुन्दर ढंग के मकान हैं जिनमें खिड़कियां नहीं होती हैं। इनके सहज परिष्कार भी स्पष्ट रूप से उनके परिवार के माता पिता, पति पत्नी, भाई बहन के साथ मजबूत संबंधों को दर्शाता है। सामाजिक कार्य सामूहिक होता है। अत: पूजा, त्यौहार, उत्सव, विवाह, जन्म, मृत्यु आदि में पूरा समाज शामिल होता है।

हालांकि, संताड़ी समाज पुरुष प्रधान होता है किन्तु सभी को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्त्री पुरुष में लिंग भेद नहीं है। इसलिए पुत्र-पुत्री के जन्म पर एक समाज खुशी मनायी जाती है।इस समुदाय में लैंगिक भेद-भाव नहीं हैं।स्त्री-पुरुष समाज रूप खेती,शिकार,खाना पकाना एक साथ करते हैं।इस समुदाय में पर्दा प्रथा, सती प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा नहीं है बल्कि विधवा विवाह, अनाथ व नजायज बच्चों को नाम, गोत्र पंचायत के माध्यम  निर्णय किया जाता है।पंचायक के निर्णय पर उनके पालन का जिम्मेदारी उठाने की अद्बुत मानवीय  परम्परा है।

संथाल समुदाय में मृत्यु शोक व अन्त्येष्टि संस्कार को गंभीरता से मनाया जाता है।आस्था-विश्वास व धार्मिक क्रिया कलाप अलग होता है।सिञ बोंगा, मारांग बुरु (लिटा गोसांय), जाहेर एरा, गोसांय एरा, मोणे को, तुरूय को, माझी पाट, आतु पाट, बुरू पाट, सेंदरा बोंगा, आबगे बोंगा, ओड़ा बोंगा, जोमसिम बोंगा, परगना बोंगा, सीमा बोंगा (सीमा साड़े), हापड़ाम बोंगा प्रमुख देवता है।जिनकी पूजा पशुबलि के साथ की जाती है।सभी सामाजिक कार्य,पूजा-पाठ सामूहिक होता है।सामाजिक व्यवस्था के निर्वहन के लिए माझी, जोग माझी, परनिक, जोग परनिक, गोडेत, नायके और परगना नियुक्त होते हैं, जो सामाजिक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, त्यौहार, उत्सव, समारोह, झगड़े, विवाद, शादी, जन्म, मृत्यु, शिकार आदि के निर्णय भूमिका निभाते है।

चौदह मूल गोत्र

इनके चौदह मूल गोत्र हैं- हासंदा, मुर्मू, किस्कु, सोरेन, टुडू, मार्डी, हेंब्रोम, बास्के, बेसरा, चोणे, बेधिया, गेंडवार, डोंडका और पौरिया है। संथाली समाज में मुख्यतः बाहा, सोहराय, माग, ऐरोक, माक मोंड़े, जानताड़, हरियाड़ सीम, पाता, सेंदरा, सकरात, राजा साला: त्यौहार मनाया जाता हैं। इनके विवाह को बापलाकहा जाता है,जिसकी कुल 23 विधियाँ हैं। 

स्वतंत्रता संग्राम में संथाल जाति की भूमिका

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में संथाल जाति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।1857 के पहले 1855-56 में संथाल विद्रोह दुनियाँ के इतिहास की महत्व घटना है,जिसका सिद्दो,कान्हू नाम दो भाइयों ने किया था।इस विद्रोह में अंग्रेजी हूकूमत के  दांत खट्टे हो गये थे.। अंग्रेजों ने इनके विद्रोह को ऐसे कुचला कि जालियांवाला कांड भी छोटा पड़ जाता है। इस विद्रोह में अंग्रेजों ने लगभग 30 हजार संथालियों को गोलियों से भून डाला था,परन्तु खेद है कि भारतीय इतिहास इस विद्रोह उचित स्थान नहीं मिल सका।

*(लेखक-फ्रीलांसर,लेखक,विचारक,आयुर्वेद चिकित्सक एवं ईस्टर्न साइंटिस्टशोध पत्रिका के मुख्य संपादक हैं।)

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