किसी भाषा से द्वेष नहीं रखना, सभी के सरल शब्दों को जोड़ने से बढ़ेगी हिन्दी

लखनऊ (भारत-स्वर)। ” हमें किसी भी भाषा से द्वेष नहीं रखना चाहिए। सभी की अपनी ख़ूबियाँ हैं। हम भारत समेत अन्य देशों की भी प्रमुख भाषाओं के सरल शब्दों का अपने बोलने, लिखने में सही प्रयोग करते हुए चलें तो हमारी राष्ट्रभाषा और सशक्त एवं विकसित होगी तथा इसकी ग्राह्यता बढ़ेगी।” यह बात उप्र विधानसभा के पूर्व मुख्य सम्पादक डॉ० अरुणेन्द्र चन्द्र त्रिपाठी ने यहाँ एक विचार गोष्ठी में कही। इसका आयोजन ‘भारतीय संस्कृति-साहित्य संस्थान’ ने हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में विराजखण्ड में किया था।
अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में डॉ० त्रिपाठी (जो भारतीय संस्कृति-साहित्य संस्थान के अध्यक्ष भी हैं) ने कहा कि भारतीय संस्कृति का प्रवाह सदियों से अक्षुण्ण बना हुआ है। इसी का परिणाम है कि संस्कृति, पालि, प्राकृत एवं आधुनिक हिन्दी का विविध काल खण्डों में विकास हुआ। हिन्दी की विशेषता है कि यह दूसरी भाषा के शब्दों को ख़ुद में समाहित कर लेती है। इससे राष्ट्रभाषा के रूप में इसका भविष्य उज्ज्वल है।
संगोष्ठी का प्रारम्भ माँ सरस्वती के चित्र के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन और पुष्पार्पण से हुआ। इसके उपरान्त डॉ० सीमा त्रिपाठी ने भोजपुरी में वाणी वन्दना “हमके सिखा दे मइया क, ख, ग, घ, गिनती” प्रस्तुत की। बाद में वरिष्ठ पत्रकार और संस्थान के प्रचार सचिव डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर ने राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की महत्त्वपूर्ण कृति “भारत-भारती” के तीनों खण्डों के कुछ विशिष्टतम पदों तथा सोहनी छन्द में लिखे गये ‘विनय’ उपखण्ड का सस्वर पाठ किया। उन्होंने कहा कि प्रख्यात भाषा वैज्ञानिक एवं प्रोफेसर डॉ० हरदेव बाहरी कहा करते थे कि “भारत को समग्रता से (घर बैठे) जानना है तो ‘भारत-भारती’ का अध्ययन व मनन करना होगा। इसके अतिरिक्त समूचे राष्ट्र की यात्रा से ही इसे भलीभाँति जाना-समझा जा सकता है।”
अपने मुख्य सम्बोधन में कृषि-पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ० शिव पाल सिंह जादौन ने विज्ञान क्षेत्र में हिन्दी के बढ़ते प्रयोग की चर्चा की तथा कहा कि इसराइल, स्पेन, फ़्रांस और रूस आदि अपनी भाषा के ही माध्यम से बढ़े हैं। इसके विपरीत भारत में अंग्रेजी को अधिक महत्त्व दिया गया; परिणामस्वरूप हिन्दी का प्रचार-प्रसार प्रभावित हुआ।
लोक अदालत रामपुर के अध्यक्ष तथा वरिष्ठ न्यायाधीश बृजेश कुमार पाण्डेय ने विधि तथा न्याय के क्षेत्र में हिन्दी की स्थिति पर प्रकाश डाला और बताया कि निचली अदालतों में हिन्दी का प्रयोग बढ़ रहा है। लोग इसे स्वीकार भी कर रहे हैं।
वन विभाग में वरिष्ठ अधिकारी पद से सेवानिवृत्त तथा साहित्य सचिब सुरेश वर्मा ने उन कारणों की चर्चा की जो हिन्दी के विकास में बाधक हैं तथा इसके लिए महत्त्वपूर्ण उपायों पर रोशनी डाली। उनका मत था कि हिन्दी की गेयता बढ़ने की सम्भावना विभिन्न भाषाओँ के लोकप्रिय और सहज शब्दों को समाहित करने में ही है।
विद्युत विभाग में वरिष्ठ अभियन्ता पद से सेवानिवृत्त वेद प्रकाश पाण्डेय, ‘मर्चेण्ट नेवी’ में रहे चन्द्र मोहन तिवारी तथा बिजली विभाग में अभियन्ता रहे हरबंस सिंह ने भी अवसरोचित विचार प्रकट किये। वरिष्ठ पत्रकार और संस्थान के सचिव प्रदीप उपाध्याय ने मीडिया के क्षेत्र में हिन्दी की बढ़ती लोकप्रियता को रेखाङ्कित किया। उन्होंने कहा कि जिस भाषा का गद्य जितना मज़बूत रहा, उसने दुनिया पर राज किया। पहले फ़ारसी और उर्दू का दौर आया तथा फ़िर अंग्रेजी का जलवा रहा। सन्तोष की बात है कि हिन्दी निरन्तर परिष्कृत होते हुए विकसित हो रही है।
गोष्ठी के अन्त में डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर ने उपस्थित सभी लोगों के प्रति आभार प्रकट करते हुए हिन्दी प्रचार-प्रसार के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की। विभिन्न वक्ताओं ने संस्थान के संगठनात्मक पहलुओं पर बहुमूल्य सुझाव दिये। सुरेश वर्मा और मत्स्येन्द्र प्रभाकर ने अगली संगोष्ठियों के सन्दर्भ में सुझाव रखे जबकि प्रदीप उपाध्याय ने संस्कृति-साहित्य संस्थान के वार्षिक समारोह तैयारियों की चर्चा की।

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