ऊँची पहाड़ी पर युद्ध की चुनौतियाँ और तैयारियां

अनुपम तिवारी, लखनऊ

भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच 15 जून की रात लद्दाख के गलवन घाटी में हुई हिंसक झड़प ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है. ऐसे दुर्गम इलाके में सेना को होने वाली परेशानियां और चुनौतियाँ भी लोगो के संज्ञान में आई हैं. विशेषकर जब दुश्मन ऊंची चोटियों पर काबिज हो.

पर्वतारोहण स्वयं में एक दुःसाध्य कार्य है, उस पर सैनिक साजो सामान के साथ उन पहाड़ों पर चढ़ कर युद्ध लड़ना बेहद कठिन हो जाता है. भारत दुनिया भर में, अपनी पहाड़ी युध्द कला में प्रवीणता के चलते प्रसिद्ध है. इस विशेषज्ञता के पीछे भारत की भौगोलिक स्थिति है. देश का समस्त उत्तरी और उत्तर पूर्वी भाग दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ों से घिरा हुआ है अतः इन पहाड़ी सीमाओं की रक्षा करने के लिए सेना ने भी खुद को विशेष तरह से तैयार किया है. यह सब एक लंबी और सतत प्रक्रिया का ही परिणाम है कि आज हमारे पास दुनिया के सबसे ऊंचे और सबसे दुर्गम इलाकों में भी घातक प्रहार करने की शक्ति उपलब्ध हो पाई है.

पाकिस्तान के खिलाफ कारगिल युद्ध मे हमारे सैनिकों ने पहाड़ी युद्ध कौशल का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया था. पर्वतारोहण में प्रवीणता के साथ युद्ध कला की अन्य विधाओं  के उत्कृष्ट पालन ने हमे दुनिया की सबसे ऊंची युद्धभूमि में विजय दिलाई थी. परंतु याद रखना चाहिए, इस स्तर की युद्ध कला एक बेहद कठिन और अति प्रभावी प्रशिक्षण के बाद ही आ पाती है.

क्या होती हैं चुनौतियाँ और तैयारियां कैसे होती हैं?

सामान्य और विशेष प्रशिक्षण के अलावा 1 महीने की अतिरिक्त ट्रैनिंग इन सैनिकों को दी जाती है जिससे माहौल के अनुसार उनको अनुकूल बनाया जा सके. कुछ यूनिटों में यह ट्रेनिंग अनवरत  चलती रहती  है. युद्ध के अलावा जंगली जानवरों और ठंड आदि से भी जवानों के हताहत होने का खतरा लगातार बना रहता है, इसलिए इन सब का भी इंतजाम करना पड़ता है. 

सामान्यतः एक सैनिक के पास 30 से 35 किलो का बोझ होता है. जिनमे हथियार, विस्फोटक, दूरसंचार के उपकरण और राशन इत्यादि होते हैं. दुर्गम इलाकों और इतने बोझे के साथ चलना तो बहुत दूर की बात, सामान्य इंसान अपना एक हाथ तक हवा में नहीं उठा सकता.

पहाड़ों पर एक सैनिक के लिए सबसे पहली लड़ाई प्रकृति से होती है.  मौसम यहां कड़ी परीक्षा लेता है. उच्च दबाव के कारण ऑक्सीजन सिर्फ नाम मात्र की होती है, इससे पीठ और हाथों पर लदे हथियार और साजो सामान, मानवीय क्षमता की जबरदस्त परीक्षा लेते हैं. सैनिक गतिविधियां बहुत शिथिलता से सम्पूर्ण हो पाती हैं. इन परिस्थितियों में यह सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है कि सैनिकों के मूवमेंट का सही समय चुना जाए और सैनिकों को सही जगह पर इकट्ठा किया जाए. दुर्गम इलाकों में कैसे सेना-सुलभ इंफ्रास्ट्रक्चर बनाये जा सकें, यह सबसे आवश्यक हो जाता है.

अग्रिम क्षेत्रों तक पहुंचने के लिए ज्यादातर  सैनिक मूवमेंट गाड़ियों से हुआ करती हैं, गलवान जैसे इलाक़ों में यह एक बड़ी चुनौती हो जाती  है. गाड़ियों के इंजन स्टार्ट ही नहीं होते.  क्या डीजल, क्या पेट्रोल, सब जम जाता है.  ईंधन में एथेनॉल आदि विभिन्न रसायन मिला कर बार बार उसे गर्म करना पड़ता है ताकि समय पर गाड़ियों को चलाया जा सके. सड़कों से उतर कर अग्रिम मोर्चों तक सैनिक सामानों को ढोने के लिए खच्चर जैसे  जानवरों का उपयोग और उनकी निरंतरता बनाये रखना भी एक कठिन कार्य होता है.

ऐसे क्षेत्रों में सैनिकों के हथियार भी सामान्य तरीके से काम नही करते. 17 हजार फीट की ऊंचाई पर, जहां तापमान शून्य  से भी नीचे हो, अपने हथियार की विशेष देखभाल करनी होती है. बार बार उसका लुब्रिकेशन और ग्रीसिंग करनी पड़ती है. इन सब में समय व्यर्थ होता है. प्रत्यक्ष युद्ध के समय यह सब कर पाना और भी कठिन हो जाता है.

युद्ध की हालत में  सैनिकों को सामरिक पॉइंट्स बनाने पड़ते हैं, जहां से दुश्मन पर तेजी के साथ घातक हमला बोला जा सके, और अपनी हानि कम से कम हो. इसी कारण दुर्गम इलाकों में सड़कों, पुलों आदि का निर्माण भी युद्ध के साथ साथ चलता रहता है. 

जो लड़ाके सबसे अग्रिम पंक्ति में लड़ने के लिए जाते हैं, उनके पास करीब 3 दिनों का राशन और इतने ही दिनों तक चल सकने वाले हथियार व गोलाबारूद होते हैं. परंतु यह भी सुनिश्चित करना पड़ता है कि यदि समय अधिक लग जाये तो इन सैनिकों तक राशन और सामान की सप्लाई निर्बाध रूप से पहुँच  सके.

गलवन जैसी पहाड़ियां जो सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, तक जाने वाले सैनिकों के सामने एक चुनौती दूरसंचार की भी होती है. इससे संबंधित उपकरणों में बैटरियाँ लगी होती हैं, जो सामान्य परिस्थितियों में तो पूरी तरह चार्ज होने पर 24 घंटों तक चल जाती हैं, पर पहाड़ियों में ये 1 से 2 घंटों में ही डिस्चार्ज हो जाती हैं. इसलिए अपने साथ ज्यादा बैटरियाँ ले जाने के लिए वह बाध्य होते हैं. 

जब दुश्मन ऊंचाई पर बैठा हो 

जब दुश्मन ऊंचाई पर हो तो उस को परास्त करने के लिए अलग तरह की रणनीति बनानी पड़ती है. आसपास की परिस्थितियों को अनुकूल बनाना पड़ता है. ऊंचाई पर होने की वजह से वह हमारी अपेक्षा ज्यादा सुरक्षित हो जाता है. हमको ऐसे तरीके खोजने पड़ते हैं जिससे हम दुश्मन को उसकी स्थिति का लाभ ले पाने से वंचित कर सकें.

ऊंचाई पर स्थित दुश्मन सैनिकों को वहां से हटा पाना बहुत दुष्कर कार्य होता है. गलवन जैसी घाटियां जहां चारो ओर सिर्फ नंगे पहाड़ हों, पेड़ पौधों का नामो निशान न हो, वहां हमारे सैनिकों को छुपने की जगह भी नही होती. दुश्मन हमारे सर पर होता है और हम हर समय उसकी नज़र में रहते हैं और आसान लक्ष्य होते हैं.

इस लिए ऐसी जगहों पर दुश्मन से दिन में लड़ाई उचित नही होती. रात में ही आक्रमण किया जाता है. इन आक्रमणों को अंजाम देने के लिए उपयोगी हथियार, साजो-सामान के अलावा सैनिकों की शारीरिक क्षमता और मानसिक दृढ़ता सबसे महत्वपूर्ण पहलू होती है. अगर सैनिकों ने ऊंचाई पर बैठे दुश्मन को सुबह की पहली किरण निकलने से पहले न हटा दिया तो लड़ाई हार जाने की प्रबल सम्भावना होती है.

पहाड़ पर युद्धों के लिए सेना की विशेष बटालियनें 

7 वर्ष पहले माउंटेन स्ट्राइक कोर नाम से सेना ने एक विशेष दस्ते गठन किया था जो पहाड़ों की विशेष परिस्थियों के अनुसार हमला करने में सक्षम हो. दुर्भाग्य से फण्ड की कमी बता कर इस कोर का विकास रोक दिया गया और इसको ‘इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स (IBGs) के साथ मिला दिया गया. 

माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के पीछे तर्क यह था कि चीन की लगातार बढ़ती ताकत का मुकाबला सिर्फ रक्षात्मक रुख अपना कर नहीं किया जा सकता. 3488 किलो मीटर लम्बी सीमा की रक्षा तभी हो सकती है जब सेना आक्रामक रहे और दुश्मन के प्रयासों को भांप कर उस पर पहले ही हमला कर नेस्तनाबूत कर दे. .  

IBGs भारतीय सेना के नए फॉर्मेशन्स हैं जिन्हें युद्ध क्षमताओं को बढ़ाने के लिए अपनाया जा रहा है. IBGs में ऐसी ब्रिगेड हैं जो दुर्गम क्षेत्रों और खतरों के आधार पर क्षमताओं से लैस होंगी. इन बटालियनों का मुख्य कार्य आत्मरक्षा से ज्यादा दुश्मन पर आक्रमण करना है. और इनका शीघ्र डिप्लॉयमेंट चीन जैसे दुश्मन को गलवान जैसी घटना से बाज आने के लिए मजबूर करेगा. 

 

 (Tags: #(लेखक सेवानिवृत्त वायु सेना अधिकारी हैं), 

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