पत्रकारों के बीमा का दायरा बढ़ाए सरकार
फज़ल इमाम मल्लिक। पत्रकारिता भी संकट में है और पत्रकार भी। पत्रकारिता वर्तमान परिदृश्य सत्ता प्रतिष्ठानों के आसपास घूम रही है। पत्रकारों के सामने भी जोखिम है।
पर नया जोखिम तो कोरोना महामारी का है। कई पत्रकारों की जान जा चुकी है।
ऐसे में यूपी सरकार की तरफ से पत्रकारों के लिए स्वास्थ्य बीमा शुरू किए जाने का कदम महत्वपूर्ण है।
जनादेश लाइव में यूपी की राजनीति की साप्ताहिक चर्चा में आज पत्रकारों को बीमा के सरकारी आदेश पर बातचीत हुई।
बातचीत में हिस्सा लिया वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल, रामदत्त त्रिपाठी, राजेंद्र तिवारी और अंबरीश कुमार ने।
अंबरीश कुमार ने चर्चा की शुरुआत की।
यूपी सरकार के पत्रकारों को स्वास्थ्य बीमा योजना पर विस्तार से जानकारी दी और बताया कि सरकार ने पत्रकारों को बीमा देने का फैसला तो किया लेकिन इसमें कुछ पेंच भी है।
पेंच यह है कि इसका लाभ उन पत्रकारों को ही मिलेगा, जो मान्यता प्राप्त होंगे।
वैसे पत्रकारों के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।
उन्हें यह बताना जरूरी है कि पत्रकारों को मान्यता राज्य सरकार देती है. उसके तहत ही यह लाभ मिलेगा।
हम लोगों ने जब पत्रकारिता शुरू की थी तब मान्यता वगैरह की ज्यादा जानकारी नहीं थी न ही कोई जरुरत महसूस हुई।
उस दौर में लिखने वाले पत्रकार काफी थे। फिर एक दौर आया बोलने वाले पत्रकार आ गए।
अब तो ऐसा दौर है कि देखने वाले पत्रकार भी हैं और दिखाने वाले पत्रकार भी।
लेकिन आज कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जो न लिखते हैं न बोलते हैं।
फील्ड में काम करने वालों को बहुत जोखिम
रामदत्त त्रिपाठी ने विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जो फील्ड में काम करते हैं यानी रिपोर्टर, उन्हें काफी जोखिम होता है।
कई बार लाठी चल रही है या गोली चल रही है तो रिस्क होता है।
कोरोना काल में संक्रमित होने का खतरा भी है क्योंकि आप डाक्टरों से बात कर रहे हैं, अस्पताल में जाते हैं।
फिर डेस्क पर काम करने वाले पत्रकार हैं जो कार्यालय में संपादन करते हैं।
सरकार मान्यता देती है अखबार में कोटा के हिसाब से। अखबार के संपादक ही तय करते हैं कि किसे मान्यता मिलनी चाहिए।
हमारे समय में ट्रेड यूनियन काफी मजबूत हुआ करता था।
जब मैं लखनऊ आया था तो काफी तलाश के बाद यूपी सरकार का एक सर्कुलर मिला था, जो जर्नलिस्ट ऐक्ट के तहत आते हैं उन सबको सरकारी कर्मचारियों की तरह ही सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज किया जाएगा।
बीच में परंपरा बंद हो गई थी। वीपी सिंह के समय में हमलोगों ने हल्ला किया तो यह फिर से शुरू हो गया।
दिक्कत यह है कि सरकारी अस्पतालों का ढांचा बहुत अच्छा नहीं है और लोग उनमें जाना पसंद नहीं करते हैं।
पीजीआई वगैरह में रोजमर्रा की बीमारी में तो जाना नहीं पड़ता है, गंभीर बीमारी में ही जाना पड़ता है लेकिन वह आटोनोमस है।
वहां पैसे खर्च होते हैं।
पिछली सरकार यानी अखिलेश यादव की सरकार ने एक फंड बनाया था, जिसके तहत पीजीआई वगैरह में जो पैसे खर्च होंगे वह सूचना विभाग बाद में पत्रकारों को रिइंबर्स कर देंगे।
तब हम लोगों ने सुझाव दिया था कि इसक दायरा बढ़ाएं क्योंकि कोई नोएडा, बनारस या इलाहाबाद में बीमार पड़ता है तो वह तो पीजीआई तो आएगा नहीं।
इसलिए जहां वह इलाज कराता है उसका भी रिइंबर्स कर देना चाहिए। मेरा मानना है कि पत्रकारों को यह सुविधा मिलनी चाहिए।
पहले डेस्क के लोकों को भी मिलती थी सुविधा
शंभूनाथ शुक्ल ने कहा कि पहले यह व्यवस्था थी कि डेस्क के लोगों को भी इलाज की सुविधा मिलती थी।
बल्कि उनके परिवार वालों को भी यह सुविधा मिलती थी। मैं कानपुर मे डेस्क पर था और मेरे परिवार को यह सुविधा मिली थी।
लेकिन बाद में यह सुविधा खत्म हो गई. जबकि डेस्क पर काम करने वाला भी पत्रकार होता है।
उतनी ही जिम्मेदारी के साथ वह काम कर रहा है बल्कि कोरोना जैसी महामारी में उसे ज्यादा जोखिम है।
फिर पोर्टल के लोग हैं जो इसमें जोड़े नहीं गए हैं वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट में, उन्हें मान्यता नहीं मिलती है। दूसरे बहुत सारे फ्रीलांस हैं।
तो इन्हें कैसे सुविधा दी जाए यह सोचना चाहिए।
अच्छी बात है कि सरकार पांच लाख रुपए का बीमा कराने जा रही है लेकिन बहुत सीमित हैं ऐसे पत्रकार।
मेरा मानना है कि पत्रकारों का एक फीसद भी नहीं होगा।
पत्रकारों की यूनियन पहले जैसी रही होती तो शिद्दत के साथ लड़ाई होती और समझाया जाता कि ये भी पत्रकार हैं और इन्हें भी इसका लाभ मिले।
अखबार अपने पत्रकारों को मान्यता नहीं देते
जेंद्र तिवारी ने कहा कि अखबार का प्रबंधन या संपादक यह लिख कर देने को तैयार ही नहीं है कि ये पत्रकार हमारे पत्रकार हैं।
इस बात को इससे समझा जा सकता है कि सीवान में हिंदुस्तान के एक पत्रकार की हत्या कर डाली गई।
लेकिन उस अखबार ने भी पत्रकार छापा था, अपना पत्रकार नहीं बताया था। ऐसा सब जगह है।
मैं जिस अखबार का संपादक बन कर आया वहां जिले से लेकर प्रखंड के संवाददाताओं को के पत्रकारों को 150 रुपये से लेकर नौ सौ रुपये महीने वेतन मिलता था।
मैं उन अखबारों की बात कर रहा हूं जिनके संपादक मालिक नहीं थे, आज भी जो बड़े अखबार हैं।
आपने उपसंपादक रिपोर्टरों का पद ही बदल दिया। वह न्यूज राइटर हो गया, कापी राइटर हो गया।
जो लोग सिस्टम ठीक करने की कोशिश करते हैं, अखबार उन्हें ही ठीक कर देता है।
इस बात पर भी चिंता जताई गई कि अब अखबारों में डेस्क पर काम करने वाले को कापी राइटर बना डाला गया है तो दूसरी तरफ रिपोर्टरों को न्यूज स्पलाइर का ओहदा दिया गया है।
बातचीत में इस बात पर भी जोर दिया गया कि जो समर्थ पत्रकार हैं उनकी बजाय उन पत्रकारों को यह लाभ मिले जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं।
इसका दायरा बढ़ाने पर भी जोर दिया गया।