जीवित मानव शरीर की तरह हैं गंगा यमुना

जीवित इंसान का दर्जा मिलने के कारण नदियों को स्वतंत्रता से बहने का अधिकार दिया गया है।

प्रो यू के चौधरी

उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने 20 मार्च 2017 को एक ऐतिहासिक फैसले में गंगा और यमुना को जीवित मानव का दर्जा देने का आदेश दिया था। इस फैसले की व्याख्या करें तो जीवित इन्सान का दर्जा मिलने के बाद गंगा, यमुना और उनकी सभी सहायक नदियों को एक जीवित इंसान के सभी कानूनी अधिकार मिल जाते हैं। फैसले में गंगा और यमुना को नाबालिग श्रेणी में रखा गया है। मतलब ये कि वे स्वयं अपने हितों की रक्षा करने में अक्षम हैं। इन नदियों को दूषित करने वाले लोगों के खिलाफ सीधे नदियों के नाम से मुकदमा दायर किया जाय। जीवित इंसान का दर्जा मिलने के कारण नदियों को स्वतंत्रता से बहने का अधिकार दिया गया है। प्रो यूके चौधरी सुप्रसिद्ध नदी वैज्ञानिक हैं. गंगा यमुना को वे भी मानव शरीर का दर्जा देने की वकालत करते हैं।

गंगा यमुना की विशेषता इनके जल में निहित है। इनकी खासियत है कि ये ऑक्सीजन ज्यादा ग्रहण करती हैं और अधिक समय तक ऑक्सीजन को अपने भीतर बनाए रखती हैं। मनुष्य को तेजी से चलने या दौड़ने के लिए अधिक ऑक्सीजन की जरूरत होती है। ठीक उसी प्रकार इन नदियों का जल प्रवाह जितनी तीव्रता से होता है, उनका जल उतनी ही तेजी के साथ ऑक्सीजन को अपने में समाहित करने में सक्षम होता है। इंसानी शरीर की तरह ही स्थान परिवर्तन के साथ इनकी जलधारा में शामिल धूल, कण व रासायनिक अवयव भी बदलते रहते हैं। इससे इन नदियों में पल रहे जलीय जीवों की प्रजनन क्षमता बढ़ती है। जिस तरह से जख्म होने पर मनुष्य के घाव भर जाते हैं, उसी तरह ये नदियाँ हैं। ये जितना कटाव करती हैं,  उतना भराव भी करती हैं। हमारा शरीर जिन पाँच तत्वों से मिलकर बना है, वही इन नदियों में सन्तुलन के कारक हैं।

मानव शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण अंग उसका माथा है। वैसे ही नदियों का माथा पर्वत है, जहाँ से इनका उद्गम होता है। मनुष्य का रक्त एक दूसरे से मेल नहीं खाता। इसी तरह नदियों के जल के रंग भी हैं, जो एक-दूसरे से अलग होते हैं। मनुष्य अपनी भूख मिटाने के लिए भोजन ग्रहण करता है, उसी तरह नदियाँ भोजन के रूप में मिट्टी व रसायन लेती हैं। नदियों का संगम कटाव को रोकने में सहायक है। बालू का अधिक जमाव बाढ़ का कारण है। यही वजह है कि जहाँ ज्यादा जरूरत होती है, संगम भी वहीं होता है। इन स्थानों पर बालू जमा होने का तरीका वैसे ही है, जैसे मनुष्य मलमूत्र परित्याग करता है। नदी के रक्त संचार का जरिया भूजल है। हमारे शरीर की कोशिकाएँ ये बता देती हैं कि हम किस तरह की बीमारी से ग्रसित हैं। उसी तरह नदियों की मिट्टी के कणों के कम्पन उनके स्वास्थ्य का हाल बयाँ कर देते हैं। नदी के शरीर की तुलना मानव शरीर से की गई है। जिस तरह मनुष्य उल्टी करता है, उसी तरह नदियों में बाढ़ आती है। मानव शरीर के गुण व बीमारियाँ नदियों के समतुल्य हैं। गंगाजल की विशेषता यह है कि बैक्टीरिओफेज वायरस के कारण इसमें जीवाणु नहीं पनपते हैं। इससे ये अपने भीतर अधिक ऑक्सीजन समाहित कर लेती है। भोजन, सेंटीमेंट, बीमारियाँ, रक्त संचार, पाचन क्रिया, ऑक्सीजन, ऑब्जर्वेशन आदि एक मनुष्य के जो भी गुण हैं, वे सभी नदियों से मेल खाते हैं।

इस समानता से संभव दिखते समाधान

नदी जल के वितरण का सिद्धान्त मानव शरीर के क्रियाकलाप से जुड़ा है। नदी के न्यूनतम जल से अधिक जल का कहाँ से कितना और कैसे उपयोग किया जाये, इसके लिये उपयुक्त तकनीक का अन्वेषण मानव शरीर के रचना के तहत सम्भव है। बाढ़ प्राकृतिक आपदा नहीं है। इसे बेसिन तथा नदी पेट की व्यवस्था से ही नियंत्रित किया जा सकता है। बेसिन की व्यवस्था से ही अकाल को भी नियंत्रित किया जा सकता है। प्राकृतिक नदी संगम तथा संपोषिकता के सिद्धान्त पर नदी से मृदा क्षरण के नियंत्रण के लिए एक कम खर्चीली स्थायी तकनीक विकसित की जा सकती है, जो मानव शरीर की व्यवस्था के समरूप है। नदियों के अन्तर्गठबन्धन एवं बड़े-बड़े बाँधों के निर्माण से उत्पन्न पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं तथा लाभ-हानि का तुलनात्मक अध्ययन मानव शरीर के अंतर्सम्बन्धों पर आधारित है। नदी के प्रवाह की मात्रा तथा शक्ति के सम्बन्धों का अध्ययन करके कम खर्च में अधिकतम जलविद्युत उत्पादन करने की उपयुक्त तकनीक मानव जीवन के आधार पर बनाई जा सकती है। जल जीवों एवं अन्य उपभोक्ताओं के बदलते जीवन चक्र का अध्ययन मानव जीवन के आधार पर किया जा सकता है।

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गंगा और यमुना देश की पवित्र नदियों में से एक हैं। प्रत्येक भारतीय के दिल में इनका विशेष स्थान है। विभिन्न संस्कृतियों के समावेश से बने इस देश में इन नदियों का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। दुर्भाग्यवश पिछले कई दशकों से हमारी नदियाँ अवहेलना का शिकार हैं। शहरों की और भागती आबादी ने इनकी दुर्दशा कर दी है। अशोधित सीवेज नदियों में प्रदूषण की प्रमुख वजह बन गया है। सॉलिड वेस्ट, औद्योगिक कचरा, कृषि रसायन और पूजा पाठ की सामग्री नदियों में प्रदूषण के स्तर को बढ़ा रही है। सूखे महीनों में ये कचरा नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध कर देता है। गंगा के आसपास के इलाकों में इस्तेमाल हो रहे केवल 26 फीसद पानी का शोधन हो पाता है, बाकी सीधा नदी में छोड़ दिया जाता है.  केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक 138 नालों के जरिए रोजाना छह अरब लीटर दूषित पानी गंगा में छोड़ा जा रहा है। इससे सीधे तौर पर लोगों की सेहत पर खतरा मँडरा रहा है। और तो और इससे बड़े स्तर पर जल भी प्रदूषित हो रहा है।
 

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