चाहे ‘नॉन परफॉर्मिंग एसेट’ बन जाएं, कांग्रेस के लिए जरूरी है गांधी-वाड्रा परिवार



कल्याण कुमार सिन्हा

प्रासंगिकता राजनीति में : सन 2014, केवल साल नहीं था, बल्कि वह कांग्रेस के पतन की पटकथा लिखने वाला एक कालखंड बन गया है. केंद्र से सत्ताच्युत होने के पश्चात एक के बाद एक हार..! कैसा क्रूर मजाक किया देश के लोगों ने..? 50 वर्ष से अधिक दिनों तक देश के जिन लोगों के दिलों पर वह राज करती रही, उन्हीं लोगों ने दिलों से इस कदर ऐसे उतार फेंका..! लेकिन नहीं, बिलकुल ऐसा भी नहीं है. 2014 के बाद लगभग 50 चुनावों में से पांच चुनावों में कांग्रेस को मतदाताओं ने मौका भी दिया है.

और, शायद यही कारण है कि कांग्रेस की यह उम्मीद हर बार बंध जाती है कि अब आगे सब कुछ ठीक हो जाएगा. लेकिन, अब इसी सोच के साथ आगे भी चलते रहना, मानो कांग्रेस की नियति ही बनती जा रही है. इसी क्रम में 2022 के पराभव के बाद भले ही कांग्रेस पार्टी के लिए गांधी-प्रियंका वाड्रा नेतृत्व ‘नॉन परफॉर्मिंग एसेट’ साबित हो गए हों, लेकिन उनकी प्रासंगिकता पार्टी के लिए खत्म नहीं हुई है.

2014 में 9 राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी. इन राज्यों में महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और असम सहित पूर्वोत्तर के कुछ राज्य शामिल हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद उसी साल महाराष्ट्र और हरियाणा के अलावा जम्मू—कश्मीर और झारखंड में विधानसभा चुनाव हुए. महाराष्ट्र और हरियाणा में तो कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और बाकी दोनों राज्यों में भी विपक्ष में बैठना ही नसीब हुआ.

2015 में केवल दो राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए. बिहार में कांग्रेस महागठंधन सरकार का हिस्सा थी और उसे सफलता मिल गई, लेकिन दो साल बाद ही कांग्रेस सत्ता में हिस्सेदारी खो बैठी. दिल्ली में तो आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को शून्य बना दिया था.

2016 में असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव कराए गए थे. असम में पहली बार भाजपा सरकार बनाने में कामयाब रही और कांग्रेस सरकार को जनता ने बाहर का रास्ता दिखा दिया था. केरल में भी कांग्रेस राज्य की सत्ता से बाहर हो गई थी और वाम मोर्चा सरकार बन गई थी. पुडुचेरी में कांग्रेस सरकार बनाने में सफल तो हुई, किंतु तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के लिए सत्ता दूर की कौड़ी बन गई.

2017 में गोवा, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के अलावा गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हुए थे. गोवा और मणिपुर में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन उसके नेता नाकारा निकले और भाजपा ने दोनों जगह सरकार बना ली. पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस 7 सीटों पर निपट गई और उत्तराखंड में भी उसे सत्ता नसीब नहीं हुआ. कांग्रेस गुजरात में भाजपा को कड़ी टक्कर दे तो दी, लेकिन हिमाचल प्रदेश में वह भाजपा के हाथों सत्ता गँवा बैठी.

2018 कांग्रेस के लिए जरूर अच्छा रहा था. इस साल कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा से सरकार छीनने में सफल तो रही, लेकिन तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में कांग्रेस ने जनता का विश्वास खो दिया. मध्य प्रदेश में मामूली बहुमत से कांग्रेस की ओर से कमलनाथ ने सरकार तो बनाई, पर ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत ने 2020 में कमलनाथ सरकार को ले डूबी. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को तीन चौथाई बहुमत हासिल हुआ था. राजस्थान में भी कांग्रेस ने मामूली बहुमत से सरकार चल तो निकली, लेकिन उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट की नाराजगी से परेशानी भी बनी रही.

2019 वह साल था, जब महाराष्ट्र में कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी साबित हुई और झारखंड में वह हेमंत सोरेन सरकार में गठबंधन के तौर पर साझीदार बनी. हरियाणा में वह कोई कमाल नहीं दिखा सकी. अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और सिक्किम सभी जगह उसे हार का सामना करना पड़ा था. आंध्र प्रदेश में तो कांग्रेस को तोड़कर ही वाईएसआर कांग्रेस बनाने वाले जगनमोहन के नेतृत्व में सरकार बनी और वह भी तीन चौथाई बहुमत से.

2020 में एक बार फिर दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनाव हुए. उस चुनाव में भी कांग्रेस को न कुछ खोने के लिए था और न ही वह गेन कर पाई. दिल्ली में 2015 की अपनी शिफर वाली कहानी उसने दोहराई और बिहार में 75 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी 20 से कम विधानसभा सीटों पर विजयी हो पाई थी. साथ ही गठबंधन के साथी राजद के तेजस्वी यादव से अपमानित भी होना पड़ा था.

पिछले ही वर्ष 2021 को याद करें तो उस साल असम, पश्चिम बंगाल, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए थे. इन चुनावों कांग्रेस की कामयाबी यही रही कि वह तमिलनाडु में स्टालिन सरकार में साझीदार बन पाई. लेकिन असम, केरल, पुडुचेरी और पश्चिम बंगाल में शर्मसार हो कर रह गई. पश्चिम बंगाल में पहली बार ऐसा हुआ कि कांग्रेस ने दिल्ली की तरह शून्य का ही कीर्तिमान बनाया.

इसके बाद सबसे ताजा 2022 में इसी मार्च महीने में यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनाव में भी उसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है. यूपी में 403 सीटों में से कांग्रेस केवल 2 सीट, पंजाब में केवल 18 सीटें, उत्तराखंड में 19, गोवा में 12 और मणिपुर में सिर्फ 5 सीटें ही कांग्रेस के नसीब में रहीं. पंजाब में तो सत्ता से ऐसे बाहर हुई है, मानो जनता ने सारा पुराना बदला चुका लिया हो.

लेकिन इन ताजा नाकामियों को भी, कांग्रेस एक बार फिर पहली की तरह पचा लेने में कामयाब हो गई है. रविवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से निकली खबर से तो यही संकेत मिला है. 2021 के बंगाल और असम के पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को ऐसे ही शर्मसार होना पड़ा था. अब, जबकि संकट कांग्रेस जैसी देश पर 50 से अधिक वर्षों तक राज करने वाली पार्टी के अस्तित्व पर बन आया है, वह मुगालते में ही है कि बिना सक्षम नेतृत्व, बिना जन सरोकार से जुड़े और बिना किसी ठोस कार्यक्रम के, वह भाजपा और उसकी विचारधारा से लड़ लेगी, अपनी काल वाह्य हो चुकी विचारधारा को आगे बढ़ाएगी और अगले चुनाव में पहले से काफी बेहतर प्रदर्शन कर लेगी.

लगातार की ऐसी लज्जास्पद शिकस्तों के चलते ही पार्टी में नाराजगी गहराती जा रही है. नतीजा यह है कि पार्टी में 23 वरिष्ठ असंतुष्ट नेताओं का ‘जी-23’ नामक एक कुनबा भी बन चुका है. कांग्रेस की वर्तमान केयरटेकर अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी बिगड़ते हालात को संभालने में असफल हैं. पहले की उनकी अशक्यता के कारण राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बने, लेकिन वे असफल रहे और अध्यक्ष पद से छुटकारा पा लिया.

लम्बे समय से केयरटेकर अध्यक्ष बनी हुईं श्रीमती गांधी पार्टी में न तो प्राण फूंक पाईं और न ही कांग्रेस को कोई दूसरा मुखिया ही दिला पाईं हैं. वैसे परदे के पीछे से राहुल गांधी सारे सही-गलत निर्णयों के सूत्रधार बने जरूर नजर आते हैं. इसके बावजूद सोनिया जी अथवा राहुल गांधी के लिए अपनी लगातार की नाकामियों की जिम्मेदारी लेने का कोई सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि हर बार कुछ वरिष्ठ नेता गांधी परिवार के बचाव में खम ठोक कर खड़े रहते हैं.

इस बार भी ऐसा ही नजर आया है. कांग्रेस कार्यसमिति की पिछले रविवार (13 मार्च) की कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे समेत अन्य नेता गांधी परिवार के बचाव में नजर आए. खड़गे ने कहा, “हम सभी ने सोनिया गांधी से कहा कि 5 राज्यों में हार के लिए वह अकेली जिम्मेदार नहीं हैं. राज्य का हर नेता और सांसद जिम्मेदार है, गांधी परिवार नहीं. हमने उन पर फिर से भरोसा जताया, इस्तीफे की पेशकश का सवाल ही नहीं उठता है.”

बैठक में हालांकि श्रीमती गांधी ने स्वयं और राहुल गांधी पार्टी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होने की पेशकश कर दी थी. लेकिन यह पेशकश, संभवतः पांच राज्यों के चुनाव में भी पार्टी के प्रदर्शन से असंतुष्टों के संभावित प्रहार को हल्का करने के लिए था. जी-23 के असंतुष्ट नेता भी अपनी उपेक्षा पर असंतोष जाहिर करने से अधिक कुछ और नहीं बोल पाए. हालांकि उन्होंने पार्टी को जीवंत बनाने के प्रस्ताव के रूप में मुकुल वासनिक को पार्टी की कमान सौंपे जाने की बात जरूर की. 
लेकिन, इसका भी तोड़ पहले से ही तैयार था. खड़गे और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ अन्य नेताओं ने फिर से पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंपे जाने की मांग जोरों से पेश कर दिया. साथ ही बैठक स्थल के बाहर भी कांग्रेसियों का मजमा भी पहले से जुटा कर रख लिया गया था, जो राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने के नारे लगातार लगा रहे थे.

यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि 2001 से 2017 तक सोनिया गांधी बिना किसी स्पर्धा के पार्टी के अध्यक्ष के रूप में चुनी गईं. यह पहली बार नहीं था, जब पार्टी में परिवार का दबदबा रहा हो. इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बाद केयरटेकर अध्यक्ष के रूप में फिर सोनिया गांधी; यही स्थिति है. कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार का वर्चस्व निर्विवाद है.  

कांग्रेस जनों के लिए गांधी परिवार और अब वाड्रा भी, बहुत बड़ी मजबूरी हैं. ये कांग्रेस की प्राणवायु हैं. भाजपा और नरेंद्र मोदी लाख परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस और गांधी परिवार को कोसते रहें, कांग्रेसी इनके बिना रह नहीं सकते. गांधी-वाड्रा का नेतृत्व भले ही ‘नॉन परफॉर्मिंग एसेट’ हों, लेकिन उनका नेतृत्व हटा कि कांग्रेस का विध्वंस अवश्यंभावी है. इसी डर से सारे कांग्रेसी असंतुष्ट रह कर भी कांग्रेस से जुड़े हैं, चाहे पार्टी जीतती रहे या हारती रहे. वे हैं तो कांग्रेस है.

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