वर्तमान में गाँधी विचार और दर्शन की प्रासंगिकता
वर्तमान में गाँधी विचार और दर्शन की प्रासंगिकता क्या हो सकता है, यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता है. पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार ने इस लेख में महात्मा गांधी के जीवन दर्शन, उनके सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विचारों पर रोशनी डाली है. साथ- साथ गांधी विचार में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के महत्व पर भी प्रकाश डाला है. संक्षेप में गाँधीजी के के कथनों में विशुद्ध मानव-कल्याण की भावना थी. यही उनके विचारों का मूल है और स्वयं उनकी साधुता –पुण्यता की पहचान है.
गाँधीजी का जीवन बहुआयामी था. इस वास्तविकता से कोई मुँह नहीं मोड़ सकताI आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सहित, जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में गाँधीजी के अपने विचार थे. इन क्षेत्रों में अपने विचारों के अधिक-से-अधिक सम्भव अनुरूप ही उन्होंने कार्य भी किए. इसीलिए, मैं कहा करता हूँ कि गाँधीजी विश्वभर में, आजतक उपलब्ध मानव-इतिहास के उन कुछ एक लोगों –महान व्यक्तियों में से एक थे, जिनके कहने और करने में यदि पूरी नहीं, तो लगभग पूरी एकरूपता अवश्य थी. गाँधीजी को विश्वभर में एक राजनेता –राजनीतिज्ञ, एक समाज सुधारक एवं एक धर्मपरायण मानव, अर्थात् महात्मा के रूप में स्वीकार किया जाता है.
राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में गाँधीजी के विचार और कार्य आलोचना-समालोचना के विषय रहे हैं, तथा आज तक भी हैं. उनके सांस्कृतिक विचारों से स्वयं उनके जीवनकाल में उन्हीं के निकट साथियों-सहयोगियों सहित अनेक अन्य लोग भी असहमत रहे, और वर्तमान में भी हैं. ऐसा होना स्वाभाविक था, और है. वैचारिक मतभेद और कार्यपद्धति से असहमति होना कोई अस्वाभाविक स्थिति नहीं है. यह सदा से विद्यमान स्थिति हैI
इतना ही नहीं, संसारभर में हजारों की संख्या में गाँधीजी पर उन्हीं के जीवनकाल में और उनके निधन के बाद भी उनके जीवन, कार्यों तथा विचारों को केन्द्र में रखकर ग्रन्थ लिखे गए. उन पर शोधकार्य हुए. अभी भी हो रहे हैंI इस सम्बन्ध में वर्तमान में, कदाचित्, उनकी समानता करने वाला कोई अन्य सम्पूर्ण दक्षिण-दक्षिणपूर्वी एशिया में नहीं है. विश्वभर में अनेक विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में गाँधी-अध्ययन व शोध केन्द्र स्थापित हैं. इसके बाद भी शिक्षा-जगत उन्हें विधिवत विद्वान मानने को तैयार ही नहीं है. हम सभी इस बात से परिचित हैं.
स्वयं भारत में गाँधीजी के राजनीतिक और सामाजिक विचारों, उनके सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक दृष्टिकोण तथा आर्थिक सोच की अनेक द्वारा आलोचना की गई, तथा अभी भी की जाती है. उनके विचारों और कार्यो के अति तीखे आलोचक आज भी हैं, जो विशेषकर उनके राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचारों पर, उनके आमजन केन्द्रित होने के बाद भी, प्रश्न चिह्न लगाते हैं.
राजनीति में नैतिकता और अहिंसा
राजनीति को प्रत्येक स्थिति में नैतिकता से सम्बद्ध रखने के लिए गाँधीजी अपने राजनीतिक आलोचकों के निशाने पर रहे. राजनीतिक क्षेत्र में अहिंसा की परिधि में ठहरते हुए उनके द्वारा की गईं जनकार्यवाहियाँ भी आलोचना का शिकार हुईं. आलोचकों ने नैतिकता, और अहिंसा, दोनों, की मूल भावना तथा उनकी अन्तिम कसौटी से, जो कृत्य के मूल में रहने वाली भावना है, जिसे स्वयं गाँधीजी ने बार-बार भली-भाँति स्पष्ट किया, साक्षात्कार किए बिना ऐसा किया. आजतक भी ऐसा किया जाता है.
वे अपने राष्ट्रवाद, समाजवाद और संस्कृति-सम्बन्धी विचारों के लिए समाजशास्त्रिओं की आलोचना के शिकार हुए. उनकी पुस्तक हिन्दस्वराज, इसीलिए, तीव्र आलोचना की पात्र बनी. आलोचकों ने गाँधीजी के राष्ट्रवाद में वृहद् मानवतावाद के स्थान पर आँखें मूंदकर एकांगिता देखी.
उनके कथन, “मेरे लिए देशप्रेम और मानव–प्रेम में कोई भेद नहीं है; दोनों एक ही हैं; मैं देश प्रेमी हूँ, क्योंकि मैं मानव–प्रेमी हूँ“ की जाने-अनजाने अनदेखी कर उनके राष्ट्रवाद-सम्बन्धी विचारों को पश्चिम के राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण के ही सामान मानकर उनकी भी आलोचना की.
यही नहीं, गाँधीजी के स्पष्ट और अति प्रगतिशील कथन कि “(वृहद् मानव कल्याण-भावना को हृदय में रखकर सजातीयों के वृहद् सहयोग, सहकार और सौहार्द के साथ विकासपथ पर निरन्तर) आगे बढ़ना होगा, (आगे नहीं बढे़), तो पीछे गिरना होगा“ को आलोचकों ने अनदेखा कर, उनके विचारों में रूढ़िवादिता को पाया.
विशेषकर ग्रामों के देश भारत में आम जन को आजीविका की प्रत्याभूति प्रदान करते, लोगों की आत्मनिर्भरता को सुनिश्चित करते और देश की अर्थव्यवस्था में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते लघु उद्योगों –कृषि से जुड़े कुटीर उद्योगों को गाँधीजी द्वारा भारी उद्योगों की अपेक्षा प्राथमिकता दिया जाना, बड़े उद्योगों के समर्थक अर्थशास्त्रियों, उद्योगपतियों-पूंजीपतियों, पश्चिम के समाजवाद समर्थकों, साम्यवादियों आदि को रास नहीं आया.
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स्वः अनुभूति द्वारा सर्व समानता की सार्वभौमिक सत्यता को स्वीकार करते हुए, सबके कल्याण –उत्थान में ही अपना कल्याण –उत्थान देखते हुए, इस प्रकार नैतिकता का आलिंगन करते हुए संसाधनों, भूमि, धन-सम्पदा –पूंजी आदि का अपने को ट्रस्टी समझते हुए प्राप्तियों का व्यक्ति द्वारा व्यापक जनहित में सदुपयोग गाँधीजी के संरक्षकता सिद्धान्त की मूल भावना थी.
अंत्योदय व सर्वोदय का आह्वान
इसके माध्यम से उन्होंने अंत्योदय व सर्वोदय –सर्वोत्थान का आह्वान किया, जिसका विशुद्ध उद्देश्य प्रत्येकजन को, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना, समान रूप से समुचित अवसर सुलभ कराकर, अपने चहुँमुखी विकास हेतु सक्षम बनाना था. लेकिन व्यक्तिवादियों, गुण-सर्वोच्चता की मानसिकता पालने वालों अथवा सम्पन्नता को अपना जन्मजात एकाधिकार मानने वालों को महात्मा गाँधी का ऐसा विचार पसन्द क्यों आए?
महात्मा गाँधी नैतिक विकास के बल पर साधन संपन्नजन –उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और जमींदारों के हृदय परिवर्तन से उन्हें संसाधनों व धन-सम्पदा के स्वामियों से न्यासियों के रूप में परिवर्तित करना चाहते थे, लेकिन उनके निधनोपरांत भूदान आंदोलन जैसी एक सफल व अभूतपूर्ण घटना के साकार रूप लेने के बाद भी हिंसा द्वारा ही प्रत्येक परिवर्तन की सम्भावना को स्वीकार करने वालों को उनका दृष्टिकोण आजतक भी स्वीकार्य नहीं है.
“हम पहले अपनी संस्कृति का सम्मान करना सीखें और उसे आत्मसात करें ; दूसरी संस्कृतियों केसम्मान की, उनकी विशेषताओं को समझने के और स्वीकार करने की बात उसके बाद ही आ सकती है, उससे पहले कभी नहीं”, गाँधीजी का यह विचार बहुतों को पसन्द नहीं आया.
यद्यपि संस्कृति-सम्बन्धी अपनी इस बात के प्रारम्भ में ही उन्होंने यह भी कहा, “मेरा यह (कदापि) कहना नहीं कि हम शेष विश्व से बचकर रहें या आसपास दीवारें खड़ी कर लें; यह तो मेरे विचार से बहुत दूर भटक जाना है“, लेकिन संस्कृति के वास्तविक अर्थ और उद्देश्य को जाने-अनजाने न समझते हुए अपने धर्म-सम्प्रदाय, पंथ अथवा समुदाय से ही इसे जोड़कर देखने वालों के लिए संस्कृति-सम्बन्धी गाँधी-विचार अपाच्य रहा, और अभी भी है.
शिक्षा-जगत में उन्हें विधिवत विद्वान न माने जाने की बात मैं पहले ही कह चुका हूँ, यद्यपि मेरे दृष्टिकोण से गाँधीजी के शिक्षा-सम्बन्धी विचार अद्वितीय हैं. अपने शैक्षणिक विचारों के आधार पर वे एक श्रेष्ठ शिक्षाविद के रूप में स्थापित होते हैं. चार पक्षीय शिक्षा-व्यवस्था-सम्बन्धी उनका दृष्टिकोण व्यक्तित्व के चहुँमुखी विकास का श्रेष्ठ मार्ग है. उनका बुनियादी शिक्षा-सम्बन्धी विचार आज भी न केवल प्रासंगिक है, अपितु शिक्षा की मूल भावना और उद्देश्य-प्राप्ति हेतु कारगर हैI इसीलिए, वह अनुकरणीय है.
संक्षेप में तात्पर्य यह कि विश्वभर में लाखों-करोड़ों लोगों द्वारा गाँधी को आपना आदर्श मानने, उनके अहिंसा-केन्द्रित मार्ग एवं कार्यों से सीख लेकर समानता, स्वाधीनता, अधिकार और न्याय-प्राप्ति की आशा रखने, एवं उद्देश्य-प्राप्ति की कामना करते हुए अपने को संघर्षों में झोंकने वालों की उपस्थिति के बाद भी उनके सभी विचार, कार्य, यहाँ तक कि उनके निजी जीवन की घटनाएँ भी, न्यूनाधिक, आलोचनाओं से परे नहीं रहीं. वे आजतक भी आलोचनाओं-समालोचनाओं का विषय हैं, और ऐसा सबसे अधिक स्वयं भारत में ही है.
गाँधी का अहिंसक प्रतिरोध दर्शन
गाँधीजी के विचारों और कार्यों का, मैं यह बार-बार कहना चाहूँगा, अपने तर्कों के साथ आलोचनात्मक विश्लेषण करने का सबको अधिकार है. सुदृढ़ तर्कों के आधार पर किया गया आलोचनात्मक विश्लेषण, या समीक्षा किसी विचार को कभी दुर्बल नहीं कर सकती.
कोई आलोचनात्मक विश्लेषण उसकी महत्ता अथवा प्रासंगिकता को समाप्त नहीं कर सकता. विपरीत इसके, किसी विचार अथवा मार्ग का आलोचनात्मक विश्लेषण उसे सुदृढ़ता और स्वस्थता प्रदान करता है. उसकी महत्ता और प्रासंगिकता को निखारता है. गाँधी-विचार और मार्ग भी इस वास्तविकता का अपवाद नहीं हो सकता.
इतना ही नहीं, गाँधी-विचार अथवा मार्ग आलोचनात्मक विश्लेषण के बाद अपने बड़े-से-बड़े आलोचक के भीतर को गहराई तक झकझोरता है. मार्टिन लूथर किंग जूनियर, जो प्रारम्भ में गाँधीजी के अहिंसा-केन्द्रित विचार और मार्ग के यदि पूर्णतः आलोचक नहीं, तो उससे सहमत भी नहीं थे, की गाँधी-विचार के मूल में जाने के बाद की स्वीकारोक्ति इस वास्तविकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है.
गाँधी-दर्शन और गाँधीजी द्वारा अहिंसा के बल पर किए जन कार्यों का पूर्वाग्रह मुक्त स्थिति में –ईमानदारी से विश्लेषण करने के उपरान्त, इसीलिए, मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, “गाँधी के अहिंसक प्रतिरोध दर्शन में मैंने केवल नैतिकता से भरपूर और व्यावहारिक दृष्टि से सुदृढ़ वह उपाय पाया है, जो सताए हुए लोगों को अपनी स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए सुलभ है.”
अपने सार्वजनिक जीवन के पूर्वार्ध में नेल्सन मण्डेला गाँधी-विचार और गाँधीजी के सत्य-प्राप्ति को समर्पित अहिंसा-मार्ग से पूर्णतः सहमत नहीं थे. दक्षिण अफ्रीका के मण्डेला से जुड़े घटनाक्रम –उनके संघर्ष वृतान्त से परिचितजन, विषय-विशेषज्ञ और इतिहासकार यह जानते हैं कि एक समय ऐसा भी आया, जब वे इससे बहुत दूर चले गए थे. लेकिन अन्ततः जीवन के उत्तरार्ध में स्वतंत्रता के ध्येय-प्राप्ति के द्वार पर खड़े मण्डेला ने यह स्वीकार किया कि अहिंसा-मार्ग का, वास्तव में, कोई विकल्प नहीं है.
ये दो स्वीकारोक्तियाँ –मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मण्डेला के कथन अनायास ही नहीं थे. दोनों ने दमन व अत्याचारों के शिकार लोगों के लिए संयुक्त राज्य अमरीका और दक्षिण अफ्रीका में सतत संघर्ष किए थे. यह, निस्सन्देह, उनके द्वारा शुद्धहृदय से गाँधी-विचार और मार्ग की मूल भावना को समझने, तदनुरूप की गई कार्यवाहियों (मण्डेला के सन्दर्भ में न्यूनाधिक) और, जैसा कि कहा है, संघर्षों में हुए अनुभवों –प्राप्त उपलब्धियों का ही परिणाम था.
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सार्वभौमिक एकता की सत्यता
गाँधी-विचार अथवा/और मार्ग की मूल भावना क्या है? वास्तव में, गाँधीजी के विचारों, कार्यों, उनके मार्ग, यहाँ तक कि उनके जीवन को समझने के लिए सब प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर यही जानना नितान्त आवश्यक है.
गाँधी-विचार के मूल में सार्वभौमिक एकता की सत्यता विद्यमान है. सार्वभौमिक एकता, सर्व-समानता और सर्व-कल्याण का आह्वान करती है. सर्व-समानता की वृहद् अवधारणा में प्राणिमात्र सम्मिलित हैं. इसमें, सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में मनुष्य, जिसे बुद्धि और रचनात्मकता जैसे अद्वितीय महागुण प्राप्त हैं, जिनके बल पर वह अपने मानवीय कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए सजातीयों के वृहद् सहयोग द्वारा सर्वकल्याण का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम है, प्राथमिकता पर है. महात्मा गाँधी के विचारों की यह मूल भावना उन्हें महात्मा के रूप में स्थापित करती है.
महात्मा गाँधी की वृहद् भ्रातृत्व अवधारणा –सम्पूर्ण मानव-जाति के भाईचारे से जुड़ा अतिविशाल दृष्टिकोण अनिवार्य रूप में सर्व समानता-आधारित स्वतंत्रता-सम्बन्धी उनके विचारों में देखा जा सकता है. उनके राजनीतिक- सामाजिक, आर्थिक अथवा राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में विचारों के आलोचकों को इसे समझना चाहिए.
उनके 4 जनवरी, 1921 ईसवीं को “मानव–भ्रातृत्व” शीर्षक के माध्यम से यंग इण्डिया में व्यक्त विचारों से साक्षात्कार करना चाहिए, जो सार्वभौमिक एकता के सिद्धान्त में प्राणिमात्र की समान सम्मिलितता, वृहद् भ्रातृत्व अवधारणा –मानव-जाति के भाईचारे से जुड़े उनके दृष्टिकोण और अन्तत: गाँधी-विचार/मार्ग के मूल में विद्यमान सार्वभौमिक एकता –सर्वसमानता और सर्वकल्याण की प्रबल कामना को स्पष्टतः प्रकट करते हैं.
प्राणिमात्र को केन्द्र में रखते हुए गाँधीजी कहा, “मैं न केवल मनुष्य (के) नाम से पहचाने जाने वाले प्राणियों के साथ भ्रातृत्व और एकात्मकता सिद्ध करना चाहता हूँ, अपितु समस्त प्राणियों के साथ, रेंगने वाले साँप आदि जैसे प्राणियों के साथ भी, उसी प्रकार एकात्मकता सिद्ध करना चाहता हूँ. कारण, हम सब उसी एक सृष्टा (सावभौमिक एकता के एकमात्र आधार और निरन्तर प्रवाहमान नियम) की सन्तति होने का दावा करते हैं और, इसलिए, प्राणी, उसका रूप कुछ भी हो, मूलतः एक ही हैं.“
सम्पूर्ण मानव-जाति –मानव एकता, समानता और सर्वकल्याण हेतु अपनी प्रतिबद्धता प्रकट हुए आगे उन्होंने कहा था कि उनका मिशन केवल भारतीयों की भ्रातृत्वता तक ही सीमित नहीं है; उनका मिशन केवल भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति तक ही नहीं है, यद्यपि वह, निस्सन्देह, व्यावहारिक रूप से उनके पूरे जीवन और पूरे समय में प्राथमिकता से है, लेकिन, भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति के माध्यम से, वे (सारे संसार में) मानवीय भ्रातृत्व के अपने मिशन को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ने की आशा करते हैं।
अपने विचारों को और आगे बढ़ाते हुए तथा विशेष रूप से देशभक्ति को केन्द्र में रखते हुए गाँधीजी ने कहा, “मेरा देश प्रेम कोई बहिष्कार शील वस्तु नहीं है. यह अतिशय व्यापक वस्तु है और मैं उस देशप्रेम को वर्ज्य मानता हूँ, जो दूसरे राष्ट्रों को कष्ट देकर या उनके शोषण से अपने देश को (ऊँचा) उठाना चाहता है. देश प्रेम की मेरी कल्पना यह है कि वह सदैव, बिना किसी अपवाद के, प्रत्येक स्थिति में, मानव–जाति के विशालतम हित के साथ सुसंगत होना चाहिए.“
यह गाँधीजी के केवल एक समय पर मानव-भ्रातृत्व केन्द्रित विचारों –एकता, समानता और सर्वकल्याण की कामना करते विचारों से सम्बद्ध एक उदहारण है, जो अन्तत: उनके सार्वभौमिकता को समर्पित सिद्धान्त और मार्ग को स्पष्टता से सामने लाता है. लेकिन, उन्होंने निरन्तर –जीवनभर इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए तथा सर्वोत्थान की कामना की. उन्होंने इसी उद्देश्य के लिए कार्य किए, संघर्ष किए.
भारत छोड़ो आन्दोलन
वर्ष 1939 ईसवीं में गाँधीजी ने द्वितीय विश्व युद्ध में सरदार वल्लभभाई पटेल, पण्डित जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे वरिष्ठ नेताओं और अपने निकटवर्ती साथियों की इच्छा के विरुद्ध जाकर, और भारत को स्वाधीनता दिए जाने की प्रत्याभूति की शर्त पर भी, साम्राज्यवादियों को सहयोग देने से मना कर दिया. कारण, महायुद्ध में मानवता का कुचला जाना था. निर्दोषजन का रक्त बहना था. लेशमात्र भी कल्याण नहीं, विनाश होना था, और वह हुआ. हम सब इस वास्तविकता से परिचित हैं. उन्होंने, इसीलिए, साम्राज्यवादियों को सहयोग देने के स्थान पर उनसे भारत छोड़ने को कहा. भारतवासियों का उन्हें देश छोड़ने को विवश करने के लिए सक्रिय संघर्ष में जुट जाने आह्वान किया. वर्ष 1940 ईसवीं का व्यक्तिगत सत्याग्रह तदुपरान्त वर्ष 1942 ईसवीं का भारत छोड़ो आन्दोलन –अगस्त क्रान्ति उनकी उसी पुकार का परिणाम थे.
‘भारत अपनी स्वाधीनता और प्रगति से विश्व के प्रत्येक जन की स्वतंत्रता व उन्नति के लिए अपने को समर्पित करेगा’, इस आशा के साथ महात्मा गाँधी ने वर्ष 1942 ईसवीं में ‘अंग्रेजों भारतछोड़ो’ का नारा दिया. गाँधीजी ने उस समय ऐसा करते हुए, वास्तव में, वर्ष 1925 ईसवीं के अपने दो अति उल्लेखनीय कथनों के अनरूप ही भारत की स्वाधीनता एवं समृद्धि के बल पर विश्व कल्याण –संसार के प्रत्येकजन के उत्थान की बात को दोहराया था.
वर्ष 1925 ईसवीं में उन्होंने यह स्पष्टतः कहा था, “मैं भारत का उत्थान इसलिए चाहता हूँ कि सारा संसार उससे लाभ उठा सके.मैं यह (कदापि) नहीं चाहता कि भारत का उत्थान दूसरे देशो के नाश की नींव पर हो.” (यंग इण्डिया, 12 मार्च, 1925)एवं, “मैं भारत को स्वतंत्र और बलवान बना हुआ देखना चाहता हूँ, क्योंकि मैं चाहता हूँ कि वह संसार के भले (कल्याण) के लिए स्वेच्छापूर्वक अपनी पवित्र आहुति दे सके.” (यंग इण्डिया, 17 सितम्बर, 1925)
गाँधीजी के के कथनों में विशुद्ध मानव-कल्याण की भावना थी. यही उनके विचारों का मूल है और स्वयं उनकी साधुता –पुण्यता की पहचान है. इसी के आधार पर उनके विचारों तदनुरूप किए गए कार्यों को आज समस्त पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर भारत ही नहीं, विश्व भर में सभी आम और खासजन द्वारा समझे जाने की नितान्त आवश्यकता है. देशकाल की परिस्थितियों की माँग के अनुसार गाँधी-विचार/मार्ग को परिमार्जित कर –अनुकूल बनाकर, साथ ही उसकी मूल भावना को यथावत रखते हुए, अपनाए जाने की आवश्यकता है.
*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं.
Professor Dr. Ravindra Kumar (Awarded Padma Shri). (Former Vice Chancellor, Meerut University) .Secretary-General, World Peace Movement Trust
23-B, Lane: 2, Mansarovar,Civil Lines, MEERUT-250001 (U.P.), India
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