गांधी आज की जरूरत
- महादेव विद्रोही
फरवरी 2020 में चीन के वुहान में कोरोना महामारी की शुरूआत हुई और देखते-देखते पूरी दुनिया में फ़ैल गयी।
दुनिया के अति विकसित राष्ट्र भी इससे अछूते नहीं रहे। वुहान की घटना के 5 महीने बीतने के बाद यह महामारी और तीव्र हो गयी है।
भारत में 22 लाख से अधिक तथा विश्व में 2 करोड़ से अधिक लोग इससे प्रभावित हो चुके हैं और लाखों लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
इस महामारी के बाद आधुनिक सभ्यता के गुणगान करने वाले लोग भी गांधी को याद करने लगे और कहने लगे हैं कि गांधी के रास्ते पर चलकर ही हम इससे छुटकारा पा सकते हैं।
गांधी ने इस सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा था।
पर, हमने इसे आधुनिक सभ्यता का मंत्र मान लिया और उसपर पागलों की तरह दौड़ने लगे।
2009 में हिन्द स्वराज की शताब्दी का वर्ष था। उस ‘ हिन्दस्वराज’ की शताब्दी, जिसके बारे में किसी ने इसे गांधी के पागल दिमाग की उपज कहा तो किसी ने कहा कि गांधी एक दिन स्वयं इसे जला देंगे।
‘ हिन्दस्वराज’ के शताब्दी वर्ष में दुनिया के अनेक देशों में अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद आदि आयोजित किये गये और नये सिरे से चिन्तन करने वाले लोगों ने हिन्द स्वराज को आधुनिक सभ्यता का दस्तावेज कहा।
तब से विश्व एक बार फिर से गांधी के मार्ग पर गंभीरता से विचार करने लगा है।
अभी तक कोरोना का कोई इलाज ढूंढा नहीं जा सका है। अब लोग भारतीय पद्धतियों का सहारा ले रहे हैं।
हो सकता है, कल कोरोना का टीका ढूंढ लिया जाय, पर सवाल कोरोना या इस तरह की बीमारी का इलाज कर लेने का नहीं, बल्कि इस तरह की बीमारी पैदा ही नहीं हो, यह सोचने का है।
हमने जिस जीवन पद्धति को स्वीकार कर लिया है, उसमें इस तरह की महामारियों का आना असंभव नहीं है।
इसलिए जो लोग गांधी को अव्यावहारिक तथा बैलगाड़ी के जमाने में ले जाने वाला मानते हैं, उनके लिए भी आज की घटनाएं नये सिरे से चिन्तन के लिए विवश करती है।
गांधी के विचारों की व्यावहारिकता नजर आने लगी है।
अभी कुछ महीने पूर्व अमेरिका में एक अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की हत्या कर दी गयी।
हमने यह माना था कि दुनिया से अब रंग-भेद समाप्त हो गया तथा हमने समानता के युग में प्रवेश कर लिया है।
बराक ओबामा को अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने को भी हम इसी के साथ जोड़कर देखने लगे हैं।
हमने माना कि रंगभेद के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका में गांधी का सत्याग्रह अमेरिका तक पहुंचा और वहां भी यह आंदोलन मजबूती के साथ फ़ैल गया।
ओबामा के नेतृत्व में अमेरिका में रंग और नस्ल विरोधी आंदोलन में एक नया इतिहास बनाया गया।
दक्षिण अफ्रीका भी अंतत: अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ।
ये सारी घटनाएं हमारे लिए प्रसन्नता के विषय हैं, पर जॉर्ज फ्लाएड की हत्या ने यह सिद्ध कर दिया है कि नस्लभेद और रंगभेद ने बहुत गहराई तक अपनी पैठ जमा ली है।
पता नहीं वह दिन कब आयेगा, जब पूरा विश्व इस सामाजिक कुरीति से मुक्त हो जायेगा।
भारत का संदर्भ
भारत के संदर्भ में बात करें तो यहां नस्लभेद जातिभेद के स्वरूप में मौजूद है और समय-समय पर अपने विकृत स्वरूप में प्रकट होता रहता है।
भारत की आजादी का आंदोलन मात्र अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन नहीं था, बल्कि सच्चे स्वराज की स्थापना के लिए भी था।
इसलिए गांधीजी राजनीतिक आजादी के साथ-साथ सामाजिक समता के लिये अपने अभियान को भी लगातार चलाते रहते थे।
गांधीजी की ईश्वर में अपार श्रद्धा थी। इसीलिए उनके हर कार्यक्रम की शुरूआत प्रार्थना से होती थी।
यहां यह बात गौर करने वाली है कि गांधीजी कर्मकांडी नहीं थे।
उनके चिन्तन का लगातार विकास होता गया और बाद में उन्होंने कहा, ‘सत्य ही ईश्वर है’।
ईश्वर में अपार श्रद्धा के बावजूद वे कभी पूजा के लिए मंदिर में नहीं जाते थे।
केरल के वाइकोम में के मंदिर में वे हरिजनों को प्रवेश दिलाने के लिए गये थे।
एक बार जब गांधी जी पुरी गये थे, तब जगन्नाथ मंदिर के पुजारियों ने उनसे मिलकर मंदिर में दर्शन के लिए पधारने हेतु निमंत्रण दिया।
गांधी जी ने यह कहकर इस निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया कि जिस मंदिर में हमारे हरिजन भाई-बहनों को प्रवेश की अनुमति नहीं हो, वहां मैं नहीं जा सकता।
कस्तूरबा वैष्णव परिवार से थीं, उन्हें लगा कि पुरी आये हैं, तो जगन्नाथ जी का दर्शन करना ही चाहिए।
वे बिना गांधीजी की जानकारी के सचिव श्री महादेव देसाई के साथ दर्शन करने चली गयीं।
जब गांधीजी को इसकी जानकारी मिली, तो उन्होंने इसपर अपनी सख्त नाराजगी व्यक्त की।
बापू के किसी आश्रम में किसी मंदिर का निर्माण नहीं कराया गया, वहां सर्वधर्म की ही प्रार्थना होती थी।
गांधी जी के इस विचार को आचार्य विनोबा भावे ने आगे बढ़ाया।
जब वे एक बार झारखंड के वैद्यनाथ धाम के मंदिर में हरिजनों को प्रवेश कराने के लिए गये तो पंडों ने उनपर हमला किया और उनके कान में इतनी जोर का थप्पड़ मारा कि वे हमेशा के लिए बहरे हो गये।
दादा धर्माधिकारी के शब्दों में पंडों ने मान लिया है कि वे भगवान के एजेंट हैं।
उनके बिना कोई सीधे ईश्वर के पास नहीं जा सकता है।
पता नहीं भगवान ने उन्हें अपना एजेंट नियुक्त किया है या नहीं।
गांधीजी कहते थे कि आर्थिक आजादी के बिना राजानीतिक आजादी बेमानी है।
हम देखते हैं कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी आम लोगों को आजादी की अनुभूति नहीं हो पा रही है।
यहां एक उदाहरण देना काफी होगा।
1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और चीन की सेनायें भारत की सीमा में लगातार घुसती जा रही थी।
उसी समय दिल्ली से एक पत्रकार युद्ध की रिपोर्टिंग करने गुवाहाटी पहुंचे।
गुवाहाटी में उन्होंने सड़क के किनारे पत्थर तोड़ रहे एक मजदूर से पूछा – चीन की सेनाएं भारत में घुसती चली आ रही है, हो सकता है दो-चार दिन में गुवाहाटी पर भी उसका कब्जा हो जाय।
अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कैसा लगेगा? कुछ सोचकर उस श्रमिक ने जवाब दिया -“हुजूर! मैं तो मजदूर हूं, रोज मजदूरी करता हूं, जिससे मेरा घर चलता है। मैं भारत में भी मजदूरी करता हूं और अगर चीन का शासन हो जायेगा तब भी मजदूरी ही करूंगा। चीन की सेना के आने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता है।”
मैं स्कूल-कॉलेजों में जाता रहता हूं।
वहाँ विद्यार्थियों से वही सवाल पूछता हूं, जो सवाल पत्रकार ने गुवाहाटी के मजदूर से पूछा था।
मैं बच्चों से पूछता हूं कि बतायें, मजदूर ने क्या जवाब दिया होगा?
अधिकांश बच्चे जवाब देते हैं -उस मजदूर ने कहा होगा, मैं अपनी जान दे दूंगा, पर चीन की सेना को भारत में घुसने नहीं दूंगा।
यह घटना सिद्ध करती है कि हमें अभी राजनीतिक आजादी ही मिली है, आर्थिक आजादी मिलनी बाकी है।
डॉ. राममनोहर लोहिया, आय में एक और दस से ज्यादा अनुपात की बात स्वीकार नहीं करते थे।
उस जमाने में राष्ट्रपति का मासिक वेतन 10 हजार था।
आज तो राष्ट्रपति का वेतन भी लाखों में हो गया है। सुविधाओं की तो बात ही क्या करें!
पहले भारत में सरकारी क्षेत्र में किसी का वेतन राष्ट्रपति के वेतन से ज्यादा नहीं हो सकता था, पर आज इसे बदल दिया गया है।
अभी पिछले महीने यानि कोरोना काल में ही रिपोर्ट आयी कि रिलायंस इंडस्ट्रीज के मुकेश अंबानी दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति हो गये हैं।
तालाबंदी के कारण आमलोगों सहित पूरे देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी है।
ऐसे में इस अवधि में किसी का सबसे धनवान बन जाना, यह दिखाता है कि आर्थिक विषमता की जड़ें कितनी गहरी हैं।
कुछ साल पहले योजना आयोग ने एक फार्मूला बनाया था, जिसके अनुसार शहरों में रहने वाले, जिनकी दैनिक आय 29 रुपये एवं गांवों में रहने वाले, जिनकी दैनिक आय 26 रुपये है, उसे ही गरीबी रेखा के नीचे जीने वाला माना जायेगा।
इसका अर्थ यह हुआ कि गांव में रहने वाले जिस व्यक्ति के परिवार में पांच व्यक्ति हैं, उन्हें प्रतिदिन करीब 5 रुपये 20 पैसे में ही अपना जीवन बसर करना पड़ेगा।
जिनकी दैनिक आय 26 रुपये 1 पैसे है, उसे गरीब नहीं माना जायेगा।
योजना आयोग ने 26 रुपये का विभाजन मोटे तौर इस प्रकार किया है :
योजना आयोग का आकलन प्रति व्यक्ति खर्च
अनाज 5.5 रु. 1.1
दाल 1.02 0.204
दूध 2.03 0.406
खाद्य तेल 1.55 0.31
सब्ज़ी 1.95 0.39
फल 0.44 0.088
चीनी 0.70 0.14
नमक एवं मसाले 0.78 0.156
अन्य खाद्य पदार्थ 1.51 0.302
इंधन 3.75 0.75
दवा ( मासिक ) 3.25 0.65
वर्ष 2004 में भारत सरकार ने असंगठित क्षेत्र के कामगारों की स्थिति के अध्ययन के लिए श्री अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया था।
इस आयोग ने दिनांक 16 मई 2006 को अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी।
इस रिपोर्ट के अनुसार इस देश के करीब 394.9 मिलियन यानि 78 प्रतिशत कामगारों की दैनिक आय 9 रु. से 20 रु. के बीच है।
बात आसानी से समझ में आये इसलिये हम यहां दैनिक आय 20 रु. मान लेते हैं।
इसका अर्थ हुआ कि 20 रु. दैनिक कमानेवाले की मासिक आय रु.600/- एवं वार्षिक आय रु.7,200/- हुई।
भारत के वित्त राज्यमंत्री ने Global Health Intelligence द्वारा कराये गये सर्वेक्षण की जानकारी देते हुए राज्यसभा में बताया कि भारत के 8,200 सर्वाधिक अमीर लोगों के पास करीब 47,250 अरब रूपये की दौलत है जो अर्थ व्यवस्था का 70 प्रतिशत है।
विशेषज्ञों के अनुसार भारत में आर्थिक विषमता का अनुपात 1 औ 1 लाख से भी अधिक का हो गया।
भारत का शुमार दुनिया के उन देशों में होता है, जहां भुखमरी और कुपोषण का दर सबसे अधिक है।
ऐसे में यहां अरबपतियों का लगातार बढ़ते जाना यह सिद्ध करता है कि विषमता और शोषण की जड़ें कितनी गहरी है।
दुनिया के हथियार निर्माता चाहते रहते हैं कि दुनिया में कहीं न कहीं युद्ध होता रहे, ताकि उनके हथियारों की खपत हो।
भारत जैसा विकासशील देश भी हथियारों की इस दौड़ में शामिल है।
शिक्षा और स्वास्थ्य की तुलना में रक्षा पर अनेक गुना अधिक खर्च हो रहे हैं।
युद्ध कहीं भी हो, वह विनाशकारी ही साबित होता है।
युद्ध का निर्णय शासन में बैठे लोग करते हैं, पर जान सैनिकों और आम नागरिकों की ही जाती है।
इसलिए हमें विचारपूर्वक युद्धों को तिलांजलि दे देनी पड़ेगी।
मैं समझता हूं कि संयुक्त राष्ट्रसंघ को यह प्रस्ताव करना चाहिए कि किसी भी देश के पास अब सेना नहीं होगी।
अगर ऐसा हो जाता है तो विकास के नये क्षितिज खुल जायेंगे।
तालाबंदी के दौरान यह समाचार आया कि सहारनपुर सहित कई शहरों में प्रदूषण इतना कम हो गया है कि वहां से बैठे-बैठे हिमालय के दर्शन हो रहे हैं।
यदि यह खुशी का विषय है तो हम ऐसे काम क्यों करें, जिससे हमारा पर्यावरण दूषित हो?
हम तथाकथित विकास के नाम पर प्रतिदिन लाखों टन औद्योगिक तथा दूसरे कचरे पैदा करते हैं, जिसके कारण हमारी हवा अब सांस लेने लायक नहीं रही।
पिछले वर्ष दिल्ली की हवा इतनी प्रदूषित हो गयी कि सभी स्कूल -कॉलेजों को लंबे समय तक बंद करना पड़ा।
पहले शुद्ध जल के नाम पर वाटर प्यूरीफायर आया, अब शुद्ध हवा के नाम पर एयर प्यूरीफायर आ गया।
अब उसे ही सुसंस्कृत माना जाने लगा है, जिसके घर में एयर प्यूरीफायर हो।
भारत में औद्योगीकरण प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत है।
औद्योगीकरण के कारण प्रदूषण तो होता ही है, साथ-साथ आदिवासियों और गांवों की जमीनें भी छीनी जा रही हैं।
हमने मान लिया है कि विकास के लिए कुछ लोगों को बलिदान देना ही पड़ेगा।
पर, वह बलिदान हमारा नहीं हो, इसके लिए तो आदिवासी हैं ही!
इसी तथाकथित विकास के कारण हवा सांस लेने लायक नहीं रही, पानी पीने लायक नहीं रहा और अनाज खाने लायक नहीं रहा।
जो अनाज हम खा रहे हैं, वह स्वादहीन हो गया है क्योंकि इसे जेनेटिकली मोडीफाइड किया गया है तथा इसे कीटनाशक दवाओं और रासायनिक खादों के द्वारा विकसित किया गया है।
ऐसे में स्वाद और तत्व दोनों खत्म हो गये हैं।
महात्मा गांधी ने कहा था, धरती के पास मानव की ज़रूरतों को पूरा करने लिए काफ़ी कुछ है पर किसी के लोभ को पूरा करने के लिए कुछ भी नहीं।
कुछ साल पहले ब्रिटिश पार्लियामेंट के सामने गांधी की प्रतिमा स्थापित की गयी।
इस कार्यक्रम की अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री श्री टोनी ब्लेयर ने किया।
गांधी के कारण पहले भारत से और इसके तुरत बाद करीब 50 देशों से ब्रिटिश सल्तनत खत्म हो गयी।
यानि एक प्रकार से गांधी ने अंग्रेजों के घर को उजाड़ दिया।
बावजूद इसके ब्रिटेन के पार्लियामेंट के सामने बापू की प्रतिमा का लगाया जाना यह सिद्ध करता है कि वे किसी देश के नहीं, किसी धर्म के नहीं बल्कि पूरी मानवता के प्रेरक थे।
गांधी तो कहते ही थे कि हमारी लड़ाई अंग्रेजों से नहीं, अंग्रेजियत से है।
यदि विश्व को विनाश से बचाना है तो गांधी आज की जरूरत हैं।