जलवायु परिवर्तन या जलवायु विघटन के मूल में गांधी
ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मलेन में जी20 देशों का रवैया बहुत निराशजनक रहा। इसमें भारत भी शामिल है। उल्लेखनीय है कि यह समूह 80 प्रतिशत विश्व कार्बन उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार है। इन देशों ने महत्वपूर्ण मुद्दे 2050 और 2070 तक पूरा करने का वायदा किया है।
ग्लासगो सम्मेलन में जलवायु विस्थापन और मानव स्वास्थ्य के खतरे का भी मुद्दा छाया रहा, हालांकि इस पर कोई ठोस सहमति नहीं बन सकी। विश्व की एक तिहाई आबादी समुद्री जलस्तर बढ़ने और धरती का तापमान बढ़ने से आवास, विस्थापन और जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर आज प्रभावित है। इससे प्रभावित देशों में जनसंघर्ष और जन असन्तोष बढ़ने के आसार हैं और प्रभावित क्षेत्रों में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बन रही है।
सौरभ सिंह
गांधीजी ने कहा था कि प्रकृति मानव के आवश्यकता की सारी चीज़ें मुहैया कराती है लेकिन लालच के लिये नहीं। जलवायु परिवर्तन या जलवायु विघटन के मूल में गांधी जी का यही विचार निहित है। गांधी ने जिसे लालच कहा था, आज पश्चिमी देशों और वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम के देशों का विस्तृत एजेंडा है, जिसमें भारत भी शामिल है। भारत ने ग्लासगो सम्मेलन में LIFE…एल, आई, एफ, ई यानि की Lifestyle for change का प्रस्ताव रखा।
आज फिर जलवायु जस्टिस की बात ग्लासगो सम्मेलन में उठी, जिसमें कि विकसित और अमीर औद्योगिक देशों से कार्बन उत्सर्जन 2030 तक घटाने और नियन्त्रित करने की अपील की गई है। इसके अलवा 2030 तक धरती के तापमान बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री तक लाने की मांग प्रमुख है। उल्लेखनीय है कि मौजूदा समय में ग्लोबल वार्मिंग की दर 2.4 डिग्री सेल्सियस है। साथ ही जैव विविधता को बचाने की मुहिम जरूरी है। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन ने कार्बन उत्सर्जन और जैव विविधता के अनेकों खतरे बढ़ा दिये हैं, जिससे गांधीजी ने 100 साल पहले ही आगाह किया था।
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ग्लासगो सम्मेलन में जलवायु विस्थापन और मानव स्वास्थ्य के खतरे का भी मुद्दा छाया रहा, हालांकि इस पर कोई ठोस सहमति नहीं बन सकी। विश्व की एक तिहाई आबादी समुद्री जलस्तर बढ़ने और धरती का तापमान बढ़ने से आवास, विस्थापन और जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर आज प्रभावित है। इससे प्रभावित देशों में जनसंघर्ष और जन असन्तोष बढ़ने के आसार हैं और प्रभावित क्षेत्रों में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बन रही है।
इनमें से ज्यादातर देश ऐसे हैं जिनका स्वयं का कार्बन उत्सर्जन विकसित देशों से कम है और इनके पास जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के क्षमता का अभाव भी है। एक मुद्दा ये भी है कि जलवायु परिवर्तन और उनके दुष्प्रभाव एक व्यापार का रूप ले रहे हैं। करीब एक दशक पहले एक बड़े राष्ट्र ने मुंबई को जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचाने के लिये 50 बीलियन डॉलर की टेक्नोलॉजी भारत को बेचने की कोशिश की थी। विकसित देश अभी तक जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपने वायदे से चूकते नज़र आये हैं। विकासशील अर्थव्यवस्था को मदद के मामले पर उनकी चुप्पी निराशाजनक है।
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गांधी ने अपने लेख “स्वास्थ्य कुंजी” में साफ हवा की जरूरत पर रोशनी डाली है। जिसमें कहा गया है कि मानव शरीर को तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण की आवश्यकता होती है- हवा, पानी और भोजन, लेकिन साफ हवा अतिआवश्यक है। गांधी सौ साल पहले कहते हैं कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त हवा मुफ्त में दी है लेकिन दुख का विषय है कि आधुनिक सभ्यता ने इसका भी भाव बाज़ार के हिसाब से तय कर दिया।
100 साल पहले 1 जनवरी 1918 को अहमदाबाद में एक बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने भारत की आजादी को तीन मुख्य तत्वों वायु, जल और अनाज की आजादी के रूप में परिभाषित किया था। उन्होंने 1918 में जो कहा, आज उसे पर्यावरणविद और कई सरकारें जीवन के अधिकार कानून के रूप में शुद्ध हवा, साफ पानी और पर्याप्त भोजन के अधिकार और मानवाधिकार के रूप में अपने अजेंडा में शामिल कर चुके हैं। ग्लासगो सम्मेलन में अमरीकी दूत जॉन केरी ने कहा कि हम जलवायु परिवर्तन की अराजकता और संघर्ष से बचने के लिये शुद्ध हवा, पानी और एक स्वस्थ ग्रह हासिल करने के लक्ष्य के ज्यादा करीब हैं।
100 साल पहले पर्यावरण पर गांधी की समझ, चिंतन और भारत की स्वतंत्रता व लोकतंत्र के प्रति उनके विचार आज इक्कीसवीं सदी में भी उन्हें समकालीन बनाते हैं। विश्व के अनेक देशों में ‘ग्रीन पार्टी’ गांधीजी के विचारों को ही आगे बढ़ा रही है।
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प्रोफेसर हर्बर्ट गिरार्डेट द्वारा संपादित पुस्तक “सर्वावायविंग द सेंचुरी: फेसिंग क्लाउड केओस” में चार मानक सिद्धांतों अहिंसा, स्थायित्व, सम्मान और न्याय को इस सदी और पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी बताया गया है। दुनिया गांधीजी और उनके उन सिद्धांतों को मान और अपना रही है, जो सदैव उनके जीवन और कार्यों के केंद्र में रहे। सौ साल पहले ही गांधीजी ने बता दिया था की शहर केन्द्रित और पूंजीवादियों द्वारा लागू व्यवस्था एक विनाशकारी प्रक्रिया है।
पश्चिमी विज्ञान और आविष्कार उस वक्त पूंजीवादी व्यापार का इंजन बन रहा था, उन्होंने आगाह करते हुये ‘हिन्द स्वराज’ में लिखा था कि ये नवीन उत्पाद और वस्तुएं मानव उपभोग के लिये नहीं बल्कि व्यापार और मुनाफ़े के लिये हैं। इससे समाज में आगे चलकर कई तरह के विनाशकारी असन्तुलन पैदा होंगे। आज ये बात बिल्कुल सत्य जान पड़ती है। 1992 के रियो डी जिनेरियो से 2021 के ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मेलन तक इस मुद्दे पर कोई व्यापक आम राय नहीं बन पाई है। वजह ये कि विकसित देश अपने इकोनॉमी और लाइफ स्टाइल में कोई बदलाव के लिये तैयार नहीं हैं।
कुछ साल पहले अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प को जलवायु परिवर्तन के एजेंडा से इतनी दिक्कत थी की उन्होंने पेरिस समझौते से ही अमेरिका को अलग कर दिया था। गांधी यहां फिर प्रासंगिक हो उठते हैं। उन्होंने हिन्द स्वराज में लिखा था ‘वर्तमान सभ्यता एक अंतहीन इच्छाओं और शैतानिक सोच से प्रेरित है। यह हमारी आवश्यकता नहीं वरन लालच और उपभोग की प्रकृति पर अंकुश लगाने का काम ना कर, उसे बढ़ाने के कार्य कर रही है।’
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उनके अनुसार असली सभ्यता तो अपने कर्तव्यों का पालन करना और नैतिक और संयमित आचरण करना है। उनका दृष्टिकोण था कि लालच, उपभोग और शोषण पर अंकुश होना चाहिए। विघटनरहित और टिकाऊ विकास का केंद्रबिंदु, समाज की मौलिक जरूरतों को पूरा करना होना चाहिए। सतत विकास के लिए गांधी जी के विचारों को पुन: समझना और लागू करना अनिवार्य है।
ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मलेन में जी20 देशों का रवैया बहुत निराशजनक रहा। इसमें भारत भी शामिल है। उल्लेखनीय है कि यह समूह 80 प्रतिशत विश्व कार्बन उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार है। इन देशों ने महत्वपूर्ण मुद्दे 2050 और 2070 तक पूरा करने का वायदा किया है।