मनुष्य के चार पुरुषार्थ 

चंद्र विजय चतुर्वेदी

चन्द्र विजय चतुर्वेदी –प्रयागराज –मुंबई से

मनुष्य कहने से एक विचारशील प्राणी का बोध होता है। पुरुषार्थ में पुरुष ही मनुष्य है और अर्थ का तात्पर्य लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः —मानव को अपने जीवन में क्या प्राप्त करना चाहता है –यह पुरुषार्थ ही मनुष्य को परिभाषित करते हैं .भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थ बताये गए है –धर्म –अर्थ -काम –मोक्ष। 

चार्वाक दर्शन केवल अर्थ और काम को मनाता है धर्म और मोक्ष नहीं –वात्सायन अर्थ धर्म काम पर आधारित सांसारिक जीवन जीने को ही पुरुषार्थ मानते हैं। 

एक – धर्म –धरति इति धर्मः –जो धारण करता है वही धर्म है। यतो अभ्युदयानि श्रेयससिध्दिः सः धर्मः –धर्म लौकिक और पारलौकिक उन्नति का कारक है –धर्म उपासना पद्धति न होकर विराट जीवन पद्धति है –एक अनुशासन है। 

स्वकर्म और स्वधर्म को जानना ही धर्म है। सजीव या निर्जीव कोई भी हो उसका एक सार्वभौमिक धर्म होता है –धरती के हर मानव का एक ही सार्वभौमिक धर्म होता है जो मानव धर्म है –उसकी उपासना पद्धति अलग हो सकती है। 

वेदों में धर्म के लिए ऋत का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है ब्रह्मांडीय –यूनिवर्सल नियम –ऋतस्य यथा प्रेतस्य.

दो –अर्थ –मनुष्याणां वृतिः अर्थः –चाणक्य कौटिल्यीय अर्थशास्त्र। अर्थ का तात्पर्य केवल धनोपार्जन से नहीं है –यह मनुष्य की वृत्ति है प्रवृत्ति है कौटिल्य के अर्थशास्त में अर्थ की व्यापक व्याख्या की गई है। इसे मनुष्य के सामाजिक तथा राजनैतिक कर्तव्य से भी जोड़ा गया है। मनुष्य की वृत्ति और प्रवृत्ति धर्मानुसार होनी चाहिए –शत हाथों से धनोपार्जन कर उसे सहस्र हाथों से समाज और प्रकृति को सौंप देनी चाहिए। मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति में अपार सम्पदा है पर जब मनुष्य अपने तृष्णा की तृप्ति के लिए आतुर हो जाता है तो वही शोषण का कारक बन जाता है –जो मानव धर्म सम्मत नहीं है। 

भोग की इच्छा से आत्मा मन से संयुक्त होता है और मन बिषयों से भोग करता हुआ आनंद का अनुभव करता है –मनुष्य की यही रागात्मक प्रवृत्ति ही काम है। 

काम इच्छा से भी जुड़ा है –इच्छाओं की तृप्ति भी आवश्यक है। जीवन इच्छा –ज्ञान –क्रिया के चक्र से ही संचालित होता है। 

चार –मोक्ष –आत्मा अजर अमर अनादि है -जो बंधन या मुक्ति की अवस्था में रहती है। मानव योनि कर्म योनि है शेष सब भोग योनि हैं। संसार आवागमन जन्म मरण और नश्वरता का केंद्र है –इस प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। 

सम्पूर्ण सृष्टि में असंख्य प्राणी हैं। सनातनधर्म की मान्यता है की आत्मा भोग भोगता हुआ चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता हुआ ज्ञान -कर्म योनि के रूप में मनुष्य योनि में प्रवेश करता है। 

यह चेतना का उर्ध्व स्तर है। मनुष्य यदि धर्म -अर्थ -काम जिसे त्रिवर्ग कहा जाता है के आवश्यक लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है तो वह चेतना के शिखर पर पहुँच कर परमात्मा में विलीन हो जाता है –यही मोक्ष है। 

सभी दर्शन स्वीकार करते हैं की संसार दुखमय है इससे मुक्ति ही मोक्ष है। 

मुक्ति के लिए आचार्य शंकर का अद्वैतवाद ज्ञानमार्ग बतलाता ही तो रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद भक्तिमार्ग का राह बताते हैं –रसो वै सः का उदघोष करने वाला उपनिषद आनंद की स्थिति को ही मोक्ष कहता है। 

पुरुषार्थ के त्रिवर्ग ही मनुष्य को परिभाषित करते है। 

सृष्टि के मनुष्यों में कोई दो मनुष्य ऐसे नहीं होंगे जिनके त्रिवर्ग –धर्म अर्थ काम की उपलब्धि समान हो। 

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