डा. धर्मवीर भारती : एक वार—रिपोर्टर!

डा.भारती की लेखनी का लावण्य और चाहत ही अलग होती थी

धर्मवीर भारती हिंदी जगत के बड़े साहित्यकार होने के साथ ही साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के सम्पादक थे. पर इन दोनों के अलावा पत्रकारिता और युद्ध के समाचार संकलन और प्रस्तुति में भी वह बेजोड़ थे. वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव ने इस लेख में उनके इसी रूप की विशेष चर्चा की है.

धर्मयुग के सम्पादक और ख्यातिलब्ध साहित्यकार – पत्रकार डा. धर्मवीर भारती आज (25 दिसम्बर 2020)94 के होते। तेइस वर्ष हुये उनके बिछुड़े हुये।

इसी माह 1971 में अपने ”धर्मयुग” साप्ताहिक के लिये बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के कवरेज हेतु वे पूर्वी भारत में गये थे। हिन्दी पत्रकारिता में वार—रिपोर्टिंग के उन्होंने तब नये मानक और नया व्याकरण रचा था।

भिन्न किस्म की शैली, घटनाओं का प्रभावी प्रस्तुतिकरण, सैन्य गाथा के तथ्यों को रोचक बनाना। सब याद आता है। पाठक भी उनकी अद्भुत रचना से सटे रहते थे।

युद्ध समाचार

डा. भारती ने इतना तो साबित कर दिया था कि आजाद भारत के दो दशकों बाद ही सही युद्ध—समाचार अंग्रेजी पत्रकारिता से हिन्दी में कोई उन्नीस नहीं है।

उन दिनों मैं ”टाइम्स आफ इंडिया” (1971) के अहमदाबाद संस्करण में संवाददाता था। गुजरात सिंध सीमा से सटे कच्छ पर हम सब नजर गड़ाये रहते थे।

उन वर्षों में पाकिस्तान से दो जंग (1947 तथा 1965) और कम्युनिस्ट चीन से (1962) की युद्ध रिपोर्टिंग हो चुकी थी। पर हिन्दी पत्रकारिता अभी अन्य भाषाओं के समकक्ष नहीं बन पायी थी। इस कारण से डा. भारती हमेशा स्मरणीय रहेंगे।

उनके रपट में आंखों देखा प्रवाहमय वर्णन ज्यादा होता था। जरुरी बैकग्राउण्ड भी। मसलन खुलना और कोमिल्ला में जंग, ढाका के प्राचीन मंदिर पर हमला। कवीन्द्र रवीन्द्र से जुड़े पूर्वी पाकिस्तान के स्थलों में सामरिक मुकाबलों के हादसों का उल्लेख आदि।

इस्लामी पंजाबी और पठान सैनिकों ने इन सबको विरुप कर दिया था। इसकी पीड़ादायिनी अनुभूति होना केवल हिन्दी—बांग्ला सहित्यकार के लिये हो संभव होती है।

शायद मेरे अंग्रेजी भाषायी पत्रकार साथी रुष्ट हुये थे, पर डा. भारती की हिन्दी रिपोर्ताज को उस दौर में अंग्रेजी तथा गुजराती दैनिकों को मैं मुहय्या कराता था। कुछ संपादकों ने पसंद भी किया। कारण है: चुरायी हुई खबरें, छीने हुये चुम्बन की भांति वे ज्यादा लुत्फ देते है। फिर डा.भारती की लेखनी का लावण्य और चाहत ही अलग होती थी।

मुझे 1962 की वार रिपोर्टिंग को एडिट करने का अनुभव था। तब हमारे ज्येष्ठ संपादक और लब्ध—प्रतिष्ठित संवाददाता बीजी वर्गीस चीन की धोखाधड़ीभरे हमले की अत्यंत सजीव रिपोर्टिंग कर रहे थे। चुशूल (लद्दाख) से बोमडीला (अरुणांचल) आदि का तभी आम भारतीय पाठकों से परिचय हुआ था।

भारत पराजित हो रहा था। पिटे हुये सैनिक पीछे भाग रहे थे, सूती मोजा पहने हमारे जवान शून्य तापमान में खून जमा रहे थे। इधर दिल्ली में जवाहलाल नेहरु आंखों में पानी भर रहे थे।

रक्षामंत्री वीके कृष्ण मेनन तब तक माओ जेडोंग को शान्तिप्रिय मानते थे। उनकी राय में कम्युनिस्ट कभी भी विस्तारवादी नहीं हो सकते थे। मेरा मानना है कि यदि डा. भारती 1962 में भी वार रिपोर्टिंग करते तो हिन्दी पाठक भी भारत—चीन सीमा के कई तथ्यों से अवगत हो जाते।

उस जंग में सारे भाषायी दैनिक अपने पाठकों को जूठन ही परोसते थे। अंग्रेजी रपट का लचर अनुवाद। दोष देना ही पड़ेगा इन हिन्दी संपादकों को जो स्वयं को हीन भावना से ग्रसित कर दोयम दर्जे का मानते थे।

डा. भारती ने महाभारत का सम्यक अध्ययन किया था। वार रिपोर्टिंग में उन्हें संजय ने जरुर प्रभावित किया होगा। मगर कुरुक्षेत्र में सूरज के ढलने पर समर स्थगित हो जाता था।

डा. भारती तो अहर्निश युद्ध देख चुके हैं। बमबारी चौबीसों घंटे। यही तजुर्बा उनके लेखन को मजबूत बनाती है। श्रेष्ठता देता है। इसी पूर्वी पाकिस्तान से मुठभेड़ में डा. भारती गोली के निशाने पर आने से बच गये थे। फौजी दस्ते के सामने पड़ गये थे। भाग्य था, पुष्पाजी का साथ और मिलना बदा था, इसीलिये डा. भारती बच गये।

धर्मयुग में हालांकि डा. भारती ने स्वयं लिखा काफी कम। मेरी शिकायत पर वे बोले : ”खुद लिखता रहूंगा तो दूसरे को पढ़ नहीं पाऊंगा।” इसीलिये शायद 1965 के भारत—पाक युद्ध पर डा. भारती ने मुझसे आठ लेख लिखवाये थे।

ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो से लेकर जनरल जयंतनाथ चौधरी (भारतीय सेनाध्यक्ष), नौसेना के एडमिरल रामदास तथा वायुसेनाध्यक्ष मार्शल अर्जुन सिंह तक। तब ही मैंने जाना कि वार रिपोर्टिंग कितनी दुश्वारीभरी होती है। कितना जानना—पढ़ना पड़ता है। कराची बन्दरगाह पर पनडुब्बी से भारतीय नौ सेना ने गजब का हमला किया था। अत: इससे से लेकर वायु सेना के लखनवी—कीलर बंधुओं द्वारा ग्नैट बम्बारियों तक।

डा. भारती की रिपोर्ताज को संग्रहीत कर पत्रकारिता के छात्रों के लिये टैक्स्ट किताब उपलब्ध करानी चाहिये। अब तो विकृत हो चुकी है भाषायी पत्रकारिता जिसमें दंगे, प्राकृतिक आपदा, यौन अपराध, ओछी सियासत ही प्रमुख है। फिर भी पत्रकारिता को शैक्षणिक पद्धति में पढ़ाने की आवश्यकता बनी रहती है। मलयालम और तमिल पत्रकारिता से देखें।

बांग्लादेश की मुक्ति का वर्ष

यह वर्ष बांग्लादेश की मुक्ति का है। अर्धशती वर्ष है। डा. भारती की स्मृति में वार रिपोर्टिंग पर विशेष ध्यान देना चाहिये। जनसंचार माध्यमों के संस्थानों में राजनीतिक रिपोर्टिंग सरलतम विद्या है। प्राथमिकता बदलनी चाहिये। तकनीकी उत्कृष्टता को भाषायी पत्रकारिता में अब अधिक उपेक्षित नहीं रहना चाहिये।

एकदा ऐसी ही वार रिपोर्टिंग के सिलसिले में डा. भारती से मेरी प्रथम भेंट (1964 में) मुंबई के ‘टाइम्स भवन’ में हुई थी। वे चौथी मंजिल में बैठते थे| उनके ठीक नीचेवाले (तीसरे) माले में हम ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के स्टाफ वाले विराजते थे।

वर्ष २०२० की समीक्षा

यूं मुझे अंग्रेजी से बेहतर हिंदी आती है, क्योंकि लखनऊ में परवरिश हुई थी| अतः इच्छा हुई कि द्विभाषी लेखन चले। तभी तगड़े पठान फौजी छह फुटे मार्शल मोहम्मद अयूब खान ने वामनाकार पांच फुटे लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्ववाले भारत पर धावा (सितम्बर 1965) बोल दिया था।

डा. भारती से मिलकर मैंने कहा कि युद्ध सम्बन्धी अध्ययन है, अतः कुछ लिखना चाहूँगा।डा. भारती तनिक मुस्कराए फिर बोले : ‘कल दे दीजिये, भारत-पाक युद्ध पर कुछ।”

उस दौर में कभी मुंबई का छात्र रहा जुल्फिकार अली भुट्टो पाक विदेश मंत्री था। मार्शल अयूब के खासम-खास। दूसरे ही दिन अपना लेख मैंने जमा कर दिया। डॉ. भारती ने देखा और स्वयं शीर्षक दिया। अगले ही अंक में छाप भी दिया।

आज के पाकिस्तान के दसवें सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा के कठपुतली बने मोहम्मद इमरान खान जुल्फिकार अली भुट्टो से बहुत कमतर नेता थे। वे गरजते थे, बरसते नहीं। तुलना में मोदी कहीं ज्यादा गरजते हैं। धुआंधार बरसतें भी है। बालाकोट याद आता है।

के विक्रम राव
के. विक्रम राव, वरिष्ठ पत्रकार

K. Vikram Rao
Mobile -9415000909
E-mail –k.vikramrao@gmail.com

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