अथर्ववेद में लोकतंत्र की व्याख्या
डॉ. चन्द्रविजय चतुर्वेदी
वैदिक काल में राजा का बेटा ही राजा होगा, ऐसा नहीं था।
यह अथर्ववेद के एक मन्त्र -त्वाम विशो वृणताम राज्याय –अथर्ववेद -3 /4 /2 अर्थात राज्य के लिए जनता तुम्हें वरण करती है, लिखा गया है।
इसी मन्त्र में कहा गया है की पूर्व आदि चार दिशाएं और पांचवी मध्य दिशा आपका वरण करती हैं। राज्य राजा की संपत्ति नहीं है। राज्य का धन प्रजाजनों के लिए है -विभजा वसुनि।
अथर्ववेद के मन्त्र 4 /22 /2 में इंद्र से प्रार्थना की गई है की राजा को जनसमूह से, घोड़ों से, गायों से संयुक्त करो। उसका जो शत्रु है, उसे जनसमूह आदि से अलग करो।
इसका मंतव्य है की राजा को जनसमूह से जुड़ा रहना चाहिए और इसकी भी सावधानी रखनी चाहिए की जनसमूह में उसके शत्रु न हों, उनको पहचानो और अलग करो।
अथर्ववेद के मन्त्र –3 /5 /1 में राजा ऐसे पर्णमणि के पाने की कामना देवताओं से करता है जो ओज रूप है जिसके तेज से शत्रुओं का नाश होता है। यह पर्णमणि औषधि स्वरूप श्रेष्ठ फल देने वाली है।
यह पर्णमणि क्या है?
पर्णमणि का रहस्योदघाटन अथर्ववेद के मंत्र -3 /5 /5 -6 से स्पष्ट होता है —
ये धीवानो रथकाराह कर्मरा ये मनीषिणः
उपस्तीन पर्ण मह्यं त्वं सर्वान कृण्वभीतो जनां
अर्थात हे पर्णमणि तुम सभी धीवर, रथकार या बढ़ई, कर्मरा अर्थात श्रमिक वर्ग को राज्य की सेवा के लिए मेरे चारों और उपस्थित करो। अर्थात मेरी राजयसभा में इन्हें स्थापित करो।
ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामण्यश्च ये
उपस्तिन पर्ण मह्यं त्वं सर्वान कृण्वाभिते जनान
अर्थात हे पर्णमणि, जो राजगण, राजा बनाने समर्थ सचिवगण, रथ हांकने वाले सूत और गांव के मुखिया हैं, उन सब को राज्य की सेवा करने के लिए मेरे चारों ओर उपस्थित करो ,अर्थात इन्हे राजयसभा में स्थापित करो।
वस्तुतः यह पर्णमणि ही राज्य सञ्चालन के लिए आवश्यक संविधान है, विधान है, व्यवस्था है जो राज्य के लिए वरदान स्वरूप होता है, जो औषधि स्वरूप श्रेष्ठ फलदायक है।
उपर्युक्त दोनों मन्त्र समता ,समानता और एकत्व का उद्घोष करते हैं जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है।
सारगर्भित रूप से प्रस्तुत पठनीय मीमांसा