भारत में खेती किसानी की सांस्कृतिक वैज्ञानिकता बनाम व्यापारिक वैज्ञानिकता
भारत में खेती किसानी हजारों वर्ष से जीवन पद्धति के अभिन्न अंग के रूप में , तमाम ज्ञान विज्ञानं समेटे उत्तम कर्म रहा है। आरण्यक संस्कृति से उद्भूत खेती किसानी ने प्रकृति के तमाम रहस्यों को उदघाटित किया। इस धरती पर फसल की श्रेणी में आने वाले लगभग तीन लाख पौधे हैं जिनमे से अब तक कुल तीन हजार पौधों कोही खाद्यान्न पौधों के रूपमे ही चिह्नित किया जा सका है।
कृषि का इतिहास
कृषि का इतिहास लगभग दस हजार साल का इतिहास है। आज के वैज्ञानिक युग के पूर्व ही खेती किसानी करने वाले किसानों ने एक एक फसल की हजारों लाखों किस्मों की खोज की थी। उनको अपने खेतों में पाला पोसा। अनुभव और परिक्षण से उनका वर्गीकरण किया कौन फसल किस मौसम में होगा। किस किस्म को कम पानी चाहिए, किस किस्म को ज्यादा पानी चाहिए। इन वैज्ञानिक ऋषि किसानो ने खाद्यान्नों के बीजों को संरक्षित किया।
एक शताब्दी पूर्व भारत में धान की लगभग एक लाख किस्मे बोई जाती थी। एक एक गांव में बीसों किस्म के अलग अलग धान के खेत लहलहाते थे। पानी और बोली की तरह चार कोस पर धान की किस्मे बदल जाती थी। दुर्भाग्यपूर्ण गाथा है की दस हजार साल की किसानो की सृजनशीलता जो सांस्कृतिक वैज्ञानिकता थी उसे पिछले पचास साल के व्यापारिक वैज्ञानिकता ने नष्ट कर दिया।
आज पूरे भारत में धान की केवल पचास किस्मे ही बोई जा रही हैं।
हजार साल पूर्व के जैविक विविधता के प्रति सृजनशील किसानो की क्या दृष्टि थी। किसी किस्म को कम पानी चाहिए किसी को अधिक कोई किसी कीड़े के प्रति प्रतिरोधी था तो कोई खुद ही खर पतवार से लड़ लेता था। आज का वैज्ञानिक जैविक विविधता को परिभाषित करते हुए कहता है की कोई भी दो प्रजातियां अपने पर्यावरण का उपभोग सामान रूप से नहीं करती तथा किन्ही दो प्रजातियों के अनुवांशिक सूत्र भी एक समान नहीं होते। हजार साल पहले के किसान को जैविक विविधता के सम्बन्ध में निश्चित रूप से यह व्यावहारिक रूप से ज्ञात था की पर्यावरण के संतुलन के लिए आवशयक है।
पचासवर्ष पूर्व के गांव की और चले तो एक ही किसान धान की कई किस्मे खेतों में बोता था। अपने खाने के लिए मोटे किस्म का धान जैसे बजरंगा बोता था जो देर में पचता था। कुछ धान बाजार में बेचने के लिए बोता था जो कुछ अच्छे किस्म के होते थे जैसे गंगाजली ,निवारी ,कोसमखंड ,लचई। कुछ मेहमानो के लिए बोया जाता था जैसे विष्णुभोग ,बादशाह भोग।किसान परिस्थितिजन्य फसल भी विकसित करलेते थे। गाँवो में सूअर से धान के फसलों को बहुत खतरा रहा करता था। एक कांटेदार धान करगी बोया जाने लगा जो मोटा अन्न होता था। इसके सम्बन्ध में एक कहावत मशहूर रहा –धान बोये करगी -सूअर खाय न समधी। इसका चावल मेहमानो के लिए नहीं होता था।
खेती किसानी का अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्र की खेती किसानी(Opens in a new browser tab)
फसल के सांस्कृतिक वैज्ञानिकता का एक मजेदार तथ्य है की हमारे पुरखे लगभग दो हजार खाद्यान्न पौधों में से अपना भोजन चुनते थे। आज पुरे देश में खाद्यान्न लगभग दो सौ फसलों में ही सिमट कर रह गया है ,उसमे भी हमारी थाली के भोजन के अन्न अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं। फसलों की विशाल सम्पदा व्यापारिक विज्ञानवाद को भेट चढ़ता चला गया। खेती किसानी महगी होती गई किसान कर्ज में डूबता गया –आत्महत्या या कृषि पलायन के लिए बाध्य होता गया।
आजादी के बाद दुनिया का नक़ल करते हुए भारत के अधिकांश कृषि वैज्ञानिक जहाँ रासायनिक खेती की और किसानो को घसीटते रहे ,जी यम बीजों को प्रोत्साहित करते रहे ,रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रयोग को प्रोत्साहित करते रहे वही मूक साधक के रूप में प्रगतिशील किसान ,समाजसेवी संस्थाएं जीन रूपांतरित फसलों के तूफान को रोका ,जी यम फसलों के खिलाफ जनजागृति फैलाई।
बाबा आमटे से प्रभावित होकर केरल के जेकब नेल्लीथानाम छत्तीसगढ़ आकर परंपरागत खेती और जैविक खेती को बढ़ावा दिया। मध्यप्रदेश के आर यन रिछारिया ने देशी धान के फसलों से उत्पादनमे वृद्धि की। रिछारिया ने अथक प्रयास कर सतरह हजार देशी बीजों को एकत्रित किया है। सतना के बाबूलाल दहिया जो पद्मश्री से विभूषित हैं उन्होंनेदेशी धान की एकसौ दस किस्मे इकठ्ठा की है जिसके प्रयोग की रूचि किसानो में बढ़ी है।
भारत में खेती किसानी के क्षेत्र में सैकड़ों वर्ष से एक संघर्ष छिड़ा हुआ है खेती किसानी की सांस्कृतिक वैज्ञानिकता और व्यापारिक वैज्ञानिकता के बीच।