स्वास्थ्य के बाजार पर एकाधिकार और बदलता प्रोटोकाल
कोरोना कोविड महामारी की चिकित्सा में उपयोग की जा रही औषधियों का प्रोटोकाल कल फिर बदल गया।जो चिकित्सकों से पहले अखबारों व मीडिया को पता चला।इसे पढ़ कर कोविड संक्रमण के रोगियों के मन में छले जाने का भाव भर गया । उन परिवारों को तो गहरा झटका लगा जिन्होंने अपनी जमापूँजी और परिजन दोनो खो दिया ।उन्हे ऐसा लगने लगा कि शायद वे किसी साजिश का शिकार हो गये थे।जिन दवाओं को प्राण रक्षक बताया जा रहा था, जिन दवाओं के नाम पर अस्पतालों एवं फार्मा द्वारा मनमानी कीमत वसूली गयी, वे आज निष्प्रभावी घोषित कर दी गयी ।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ था,पिछले एक साल से ऐसे समाचारों ने पूरी दुनियाँ को उलझा रखा है। याद करें, पिछले साल मलेरिया की एक साधारण दवा क्लोरोक्वीन ने भारत-अमेरिका संबंधो के प्रभावित कर दिया था।जो कुछ हप्ते में ही बेकार सिद्ध हो गयी थी।इसके बाद लगातार प्रोटोकाल बदलते रहे. सक्षम वर्ग इन दवाओं का बिना जरूरत या चिकित्सकीय सलाह के खरीद कर घरों में जमा करता रहा, बाजार से वे दवायें गायब होती रही, गंभीर रोगियों के परिजन मनमानी कीमत देने को मजूबर होते रहे, जो नहीं दे सके अपनी मजबूरी पर आत्मग्लानि एवं कुंठा के शिकार हो गये, कि काश यदि वे दवायें मिल गयी होती तो पिता, माता, पत्नि, पति, भाई की जिन्दगी बच गयी होती ?
आज जब वे दवायें प्रोटोकाल से बाहर हो गयी, तो उन्हें तो कुछ सुकून मिला होगा, जो खरीद नहीं सके थे,पर उन्हे झटका लगा होगा, जिन्होने इन दवाओं के लिए जमापूँजी, जेवर, घर, खेत, बेच कर या गिरवी रख कर खरीदने के बावजूद अपने प्रियजनो को नहीं बचा सके।
सवाल बार-बार प्रोटोकाल बदलने का नहीं है,क्योंकि वायरस केन्द्रित चिकित्सा में ऐसा होना स्वाभाविक है,क्योंकि नये किस्म के वायरस को निष्क्रिय करने के लिए नई दवा की खोज करने के लिए लम्बे समय की जरूरत होती है।जब तक ऐसा नहीं हो जाता है,तब तक लक्षणों के अनुसार दवाये प्रयोगकर बीमारी को नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है। अर्थात यह प्रोटोकाल लक्षणों के अनुसार निर्धारित किये जाते रहे है ।हाँलाकि यह महामारी विभिन्न देशों के जलवायु एवं लोगो के रहन-सहन के अनुसान अपने लक्षण और मारकता बदलती रही है। एक ही देश के विविध जीवन स्तर के लोगों में भी महामारी का प्रभाव व मारकता एक जैसी नहीं पायी गयी,फिर भी वैश्विक प्रोटोकाल बलात लागू किया जाता रहा है ।जो कुछ वैश्विक फार्मा कार्पोरेट के लिए आपदा में अवसर सिद्ध होता रहा है ।
ताईवान का उदाहरण
पिछले साल ताईवान ने वैश्विक प्रोटोकाल को अस्वीकार करते हुए,अपना स्वतंत्र प्रोटोकाल बना कर महामारी पर नियंत्रण स्थापित कर लिया,जिससे विश्वस्वास्थ्य संगठन ने उसे सदस्यता से बाहर कर दिया। चीन,हंगरी,सूडान,मेडागास्कर आदि देशों ने भी प्रोटोकाल को असफल होते देख कर अपनी पारम्परिक दवाओं के प्रयोग से महामारी के नियंत्रण में कुछ हद तक सफलता प्राप्त करने समाचार भी मिले हैं,परन्तु अमेरिका,ब्रिटेन,इटली आदि देश जिन्होंने अपनी पारम्परिक दवाओं के खत्म कर दिया था, वे निर्विकल्प मरते रहे।
आश्चर्य जनक रूप में आयुर्वेद,योग, यूनानी, सिद्धा, सोवारिंग्पा, होम्योपैथी जैसी छह समृद्ध पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों को संरक्षण देने वाला भारत यूरोपीय-अमेरिकी प्रोटोकाल के भरोसे महामारी से निपटने में कड़ाई के साथ लगा रहा ।यहाँ भी एक विडम्बना रही कि संक्रमित मरीजों की चिकित्सा कर रहे, मुख्यधारा के एलोपैथी चिकित्सकों को कड़ाई से प्रोटोकाल के पालन के लिए मजबूर कर दिया गया,उनके लम्बे अनुभव,विवेक,युक्तिगत प्रयोगो को प्रतिबंधित कर दिया गया ।रोगी की तात्कालिक परेशानियों को देखते हुए वे चिकित्सक एक टैबलेट भी अपने अनुभव व विवेक से नहीं दे सकते थे। जबकि एक बात स्पष्ट रही कि बिना किसी लक्षण के मरीज पाजीटिव पाये जाते रहे,तथा गंभीर लक्षणों वाले मरीजों की जाँच निगेटिव पायी जाती रही।किसी भी तरह के बुखार वाले मरीज संदेह के आधार पर व्यवस्था के शिविरो की पीड़ा से गुजरते रहे।मीडिया की भयावह रिपोर्टिग एवं पुलिसिया व्यवस्था के कारण उन परिवारों को मानसिक,समाजिक प्रताड़ना से भी गुजरना पड़ा ।
दुनियाँ की यह पहली महामारी है जिसमें चिकित्सों से अधिक व्यवस्था प्रबंधको एवं पुलिस पर भरोसा किया किया।चिकित्सा वैज्ञानिकों के बजाय सभी देशों के शासक महामारी नियंत्रण पर बयान जारी कर रहे थे। पिछले साल तो हालत यह रही कि साधारण ज्वर-बुखार सर्दी जुकाम के रोगियों को लोग अपराधी जैसे देखने लगे थे, हाँलाकि ये पाजिटिव रोगी आम दवाओं, घरेलू उपायों से भी स्वस्थ होते रहे तथा प्रोटोकाल के प्रयोग के बावजूद कुछ लोग मरते रहे।
आतंक ऐसा फैला कि आक्सीजन,वेंटिलेटर,बेड के हाहाकर मचा रहा,औद्योगिक आक्सीजन अस्पतालों में प्रयोग किया जाने लगा। विदेशो से सहायता के रूप में आक्सीजन आने लगा । कार और ट्रैक्टर बनाने वाली कम्पनियाँ वेंटिलेटर बनाने लगी,फिर भी एक बड़ी संख्या में लोग अकाल काल कवलित होते रहे,नदियों मे लाशें तैरती रही ।ऐसे भयावह समय में एक बड़ी संख्या में लोग बिना प्रोटोकाल के देशी उपायों से अपना जीवन बचाने सफल रहे।हाँलाकि महामारी आधिनियम के अनुसार आयुष चिकित्सकों को सर्दी-जुकाम-बुखार के रोगीयों की चिकित्सा करने की मनाही थी।फिर भी कम आय वर्ग के लोग व्यवस्था से छुप कर अपने आयुष चिकित्सकों से चिकित्सा लेकर स्वस्थ होते रहे ।यह स्थिति पिछले साल से ही बनी रही । आयुष चिकित्सा पद्धतियों खासकर आयुर्वेद के चिकित्सक संगठनों के मांग पर पिछले साल आयुष मंत्रालय द्वारा बचाव के लिए काढ़ा आदि का प्रोटोकाल जारी किया गया, जिसे दिसम्बर 2020 तक एलोपैथिक चिकित्सकों,सहित आम जनता पीती रही,परन्तु वैक्सिन आते ही लोगो ने काढ़ा पीना बन्द कर, वैक्सिन की लाइन में लग गये।
मार्च आते-आते जब दूसरी लहर का आक्रमण हुआ तो वैक्सिन लेने वाले भी संक्रमित होने लगे।इस स्थिति में लोगो ने पुनः काढ़े की ओर रुख किया। फिर एक बार आयुर्वेद चिकित्सकों एवं मीडिया स्वराज द्वारा आयुर्वेद के महामारी चिकित्सा से अलग रखने का सवाल उठाये जाने पर आईसीएमआर से अलग आयुष मंत्रालय द्वारा एक स्वतंत्र प्रोटोकाल जारी किया, जिससे कुछ निजी चिकित्सकों ने चिकित्सा शुरु कर बहुत से लोगों का राहत दिया।यहाँ भी राजकीय आयुर्वेदिक मेडिकल कालेज एवं अस्पतालों को कोविड चिकित्सा व्यवस्था से अलग रखा गया ।आयुष चिकित्सकों से वैश्विक प्रोटोकाल के अनुसार सेवायें ली जा रही है।हालाँकि इसमें केरल,तमिलनाडु,महाराष्ट्र,तेलंगाना सरकारो ने कोविड नियंत्रण में आयुष पद्धतियों को शामिल कर मृत्यु दर को नियंत्रण करने में सफल रहे।उत्तर भारत में वैश्विक प्रोटोकाल के भरोशे मृत्यु दर अधिक रही ।
इस तरह वैश्विक महामारी में यह पहली बार हुआ है, कि जब स्थानीय संसाधनों, कारकों, अनुभव को दरकिनार करते हुए पूरी दुनिया विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नियंत्रण में आ गयी . । इससे स्पष्ट तौर पर कुछ फार्मा कम्पनियों का एकाधिकार स्थापित हो गया ।भारत का आईसीएमआर(भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद्) विश्वस्वास्थ्य संगठन का प्रतिनिधि बना रहा । जबकि संभव हो सकता था कि आई सी एम आर एवं सी सी आर ए एस (केन्द्रिय आयुर्वेद विज्ञान अनुसंधान परिषद्)एक साथ मिल कर भारतीय परिस्थियों के अनुसार प्रोटोकाल जारी कर सकते थे। चिकित्सकों का एक समन्वित टास्कफोर्स बनाया जा सकता था, अस्पतालों में चिकित्सा करने वाले चिकित्सकों के अनुभव का उपयोग भी किया जा सकता था।यदि ऐसा होता तो संभव है स्थिति कुछ अलग होती ।परन्तु ऐसा करने से शायद स्वास्थ्य के बाजार पर कुछ आधुनिक फार्मा कार्पोरेट्स का एकधिकार भंग हो जाता।
डॉ.आर.अचल , सम्पादक- ईस्टर्न साइंटिस्ट जर्नल एंव संयोजक सदस्य वर्ल्ड आयुर्वेद कांग्रेस