प्रधानमंत्री कारपोरेट के पक्ष में

प्रधानमंत्री ने आंदोलन से आंदोलनकारियों को अलग करने और उन्हें अपमानित करने का जो क्रम राज्यसभा में शुरू किया था उसे लोकसभा में भी जारी रखा। उन्होंने उत्पादक किसान- मजदूर समुदाय पर कारपोरेट की तानाशाही को ऐतिहासिक रूप से गलत तथ्यों के आधार पर जायज ठहराया।


उन्होंने कहा कि “मांग मांगने के लिए मजबूर करने की सोच लोकतंत्र की सोच नहीं हो सकती।” कितना हास्यास्पद और दुर्भावनापूर्ण है यह कथन जबकि लोकतंत्र का मतलब ही बहुमत की मांग को मानने की बाध्यता है। बहुमत सिर्फ जोड़-तोड़ से सरकार बनाने और उसके बाद उसके ही हितों का दलन करने के लिए नहीं होता।

लोकतंत्र को गुप्त एजेंडे के आधार पर नहीं चलाया जा सकता। जो नीतियां लागू करनी हो चुनाव उन मुद्दों पर लड़ कर बहुमत बनाना होता है। इस तरह यदि नोटबंदी ,जीएसटी या राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, तथा तीनों कृषि कानूनों और नये श्रम कानून जैसे नियम लागू करने हो तो इनके आधार पर ही चुनाव लड़ा जाना चाहिए था।
आज यह चकित करने वाला नहीं है कि कारपोरेट लूट गिरोह के मुखिया के रूप में प्रधानमंत्री बेअदबी की भाषा बोल रहे हैं।
जिसकी पार्टी ने अपने 2014 के चुनावी घोषणा पत्र को ही साइबर नेटवर्क से गायब करा दिया और उनके सिद्धांतवादी कहलाने वाले लोगों में उस संबंध में बात करने तक का साहस नहीं बचा।
प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी में आज यदि जरा भी नैतिक साहस होता तो अपने चुनावी घोषणा पत्र में किए वादों को पूरा नहीं करने पर शर्म करते हुए और संविधान सम्मत सरकार चलाने की अपनी असमर्थता को स्वीकार करते हुए सत्ता का परित्याग कर चुके होते।
आज वे बहुत ही अश्लील तरीके से “प्राण जाए पर वचन न जाई” वाले राम के मंदिर के नाम पर चंदा गिरोह नहीं चला रहे होते बल्कि प्रायश्चित करते हुए सरजू में छलांग लगा चुके होते।
लोकसभा में दिए उनके भाषण में एक बात का तो पर्दाफाश कर दिया है और उनके भीतर छुपे डर को भी उजागर कर दिया है कि वह किस तरह उन राजनीतिक अर्थशास्त्र के विद्वानों से खौफ खाते हैं जो इस सच्चाई को उजागर करना जानते हैं कि सामूहिक उत्पादन का निजी स्वामित्व मनुष्यता के लिए उपयोगी नहीं हो सकता। इन विचारवान लोगों को इंगित कर राजकीय साजिश का शिकार बनाने की सच्चाई भी आज अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर तैर रही है।
कितना दुखद है कि उन्होंने राज्यसभा और लोकसभा के भाषणों में किसानों द्वारा निरंतर प्रस्तुत किए जा रहे मुद्दों पर चर्चा करने की रंच मात्र भी हिम्मत नहीं जुटाई है। अपने भाषण में उन्होंने जाहिर किया है की नीतियां बनाना और लागू करना सत्ता के साजिश का नतीजा होता है, किसी प्रक्रिया, आंदोलन और बहुमत या संसद में मत विभाजन का मोहताज नहीं होता।

यह सोच इतिहास के आज के कालखंड को कितनी कलंकित करने वाली है, कितना जरूरी है इसके लिए देश का निर्माण करने वाले मजदूरों, किसानों और आंदोलनजीवियों का इस साजिश को खत्म कर स्वतंत्रता समानता एवं भाईचारे का समाज बनाने के लिए आगे आना, जिससे घड़ियाली आंसुओं से और जबड़े से समाज को बचाया जा सके।

पौराणिक बाने को अपने असंवैधानिक कार्यो के लिए आवरण के रूप में धारण करने वाले प्रधानमंत्री मोदी को आज यह दिखाई देना चाहिए कि उस स्थापित कुरुक्षेत्र के मैदान में ही आज फिर से एक बार रणभेरी बज चुकी है। इस मैदान में आज मोदी कारपोरेट के पक्ष में धृतराष्ट्र की तरह खड़े हैं। उनकी ऐतिहासिक गति को देखने समझने वालों को कारागार तय किया जा रहा है। जाहिर है कारपोरेट राज का खात्मा है। जीत धन की नहीं जन की होगी ।

डॉ चतुरानन ओझा
समान शिक्षा आंदोलन, उत्तर प्रदेश

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