कोविड-19 के बदलते रूप और ब्रिटन की गहराती दुविधा

शिव कांत

शिव कांत, बीबीसी हिंदी रेडियो के पूर्व सम्पादक, लंदन से 

कोविड-19 की महामारी से मरने वालों की संख्या में ब्रिटन ने इटली को पीछे छोड़ दिया है। 23 मार्च से चली आ रही तालाबंदी के बावजूद ब्रिटन में लगभग लगभग दो लाख बीमार पड़ चुके हैं और 30 हज़ार लोग दम तोड़ चुके हैं। देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह धराशाई हो चुकी है और बेरोज़गार हुए लोगों और बदहाल हुई कंपनियों को राहत और भत्ते देने के लिए सरकार की कर्ज़े उठाने की हिम्मत भी अब जवाब देने लगी है। इटली, स्पेन और जर्मनी में कारोबारों और लोगों पर लगाई गई पाबंदियाँ हटाई जा रही हैं। ब्रिटन के लोग भी इसकी राह देख रहे हैं लेकिन नए रोगियों और मरने वालों की संख्या में लगातार हो रही कमी के बावजूद हालात ऐसे नहीं है कि सरकार तालाबंदी को पूरी तरह खोलने का जोखिम उठा सके।

स्वयं प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन मौत के मुँह से लौटे हैं। उन्होंने संवाददाताओं के साथ बातचीत करते हुए खुलकर यह स्वीकार किया है कि कोविड-19 की चपेट में आ जाने के बाद लंदन के सेंट टॉमस अस्पताल में उनकी हालत बेहद गंभीर  हो गई थी। उन की देखभाल करने वाली न्यूज़ीलैंड मूल की नर्स जैनी मैगी ने माना है कि हालाँकि प्रधानमंत्री का निर्देश था कि उनकी देखभाल आम मरीज़ों की तरह ही की जाए। फिर भी देखभाल करने वाली नर्सों को अपने कंधों पर देश के नेता के जीवन की ज़िम्मेदारी का बोझ तो महसूस होता ही था। 

 

वैसे ब्रिटन और यूरोप के कई और लोकतांत्रिक देशों में ही ऐसी स्वस्थ परंपराएँ मौजूद हैं कि सरकारी कर्मचारी नेताओं के साथ भी आम आदमियों की तरह ही व्यवहार कर सकते हैं। उन्हें मंत्रियों की दरबारी सेवकों की तरह सेवा नहीं करनी पड़ती। मुझे सन 2000 की पाँच जुलाई की रात की घटना अभी तक याद है। तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के 16 वर्षीय पुत्र युएन को परीक्षा के बाद के जश्न के जोश में चढ़ गई थी। पुलिस ने रात ग्यारह बजे लंदन के रंगशाला चौक लैस्टर स्क्वायर में नशे में धुत्त एक युवक को पकड़ लिया था जो आपे से बाहर होकर उल्टियाँ करता फिर रहा था। थाने में युएन ने अपना नाम और पता बदल कर अपने पिता का नाम बचाने की कोशिश की। लेकिन पुलिस ने प्रधानमंत्री को फ़ोन कर उनके बेटे की हालत की रिपोर्ट दी और सुबह घर भेज दिया। लेकिन असामाजिक व्यवहार की लिखित रूप से चेतावनी लेने के लिए कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री और उनकी पत्नी को बेटे समेत थाने जाना पड़ा था।

क्या आप भारत में यह कल्पना कर सकते हैं कि पुलिस ऐसा साहस दिखा सके? सन 1982 की एक घटना की मिसाल ज़रूर दी जाती है जब दिल्ली के एक सब इंसपैक्टर निर्मल सिंह ने प्रधानमंत्री कार्यालय की एक कार को वर्जित स्थान पर पार्क होने की वजह से उठवा दिया था। किरण बेदी उन दिनों दिल्ली पुलिस की उपायुक्त थीं। वरना भारत में तो मंत्री छोड़ सांसदों और विधायकों के बच्चे भी आम आदमी तो दूर, पुलिस वालों पर गाड़ियाँ चढ़ा देते हैं। कल ही यहाँ एक और दिलचस्प घटना हुई। ब्रितानी सरकार के कोविड-19 सलाहकार प्रो नील फ़र्गुसन को अपना पद छोड़ना पड़ा क्योंकि उन्होंने अपने ही बनाए सामाजिक दूरी रखने के नियमों को तोड़ा था। ये वही प्रो फ़र्गुसन हैं जिन्होंने वैज्ञानिक मॉडल के आधार पर चेतावनी दी थी कि कोविड-19 की रोकथाम के कड़े उपायों के बिना ब्रिटन में इस महामारी से ढाई लाख लोगों की जान जा सकती है। उसी से घबरा कर सरकार ने तालाबंदी लागू की थी जिसमें लोगों से कहा गया था कि जो साथी अलग-अलग घरों में रहते हैं वे एक-दूसरे के घर जाने से परहेज़ करें। प्रो फ़र्गुसन ने इस नियम को ताक पर रखते हुए अपनी मित्र को घर बुला लिया जिसकी भनक मीडिया को लग गई और प्रो फ़र्गुसन को पद छोड़ना पड़ा।

कल्पना करें कि भारत में कितने स्तर के कितने नेताओं और अधिकारियों ने तालाबंदी के नियमों को ताक पर रखकर क्या-क्या नहीं किया होगा! लेकिन अपने यहाँ कुर्सी कौन छोड़ता है? कुर्सी छोड़ना दूर, नेता लोग ग़लतियाँ मानने तक को तैयार नहीं होते। ब्रितानी संसद के प्रश्नकाल में आज यहाँ विपक्षी लेबर पार्टी के नए नेता किएर स्टामर ने महामारी की रोकथाम को लेकर प्रधान मंत्री बोरिस जॉन्सन से तीख़े सवाल किए। प्रधानमंत्री ने अपने लंबे बयान में तालाबंदी के ज़रिए महामारी की रोकथाम में कामयाबी हासिल करने का दावा किया और ब्रिटन के वृद्धाश्रमों में हुई हज़ारों बुज़ुर्गों की मौत पर गहरा अफ़सोस प्रकट किया। 

विडंबना की बात है कि तालाबंदी और सामाजिक दूरी के नियमों को यह दलील देते हुए लागू किया गया था कि इससे बुज़ुर्गों को महामारी से बचाया जा सकेगा। क्योंकि कोविड-19 महामारी बुज़ुर्गों को ही अपना पहला शिकार बनाती है। इसलिए परिवार के युवा सदस्यों और बच्चों को बुज़ुर्गों से दूर रहने की सलाह दी गई ताकि उनके ज़रिए महामारी बुज़ुर्गों तक न पहुँचे। लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। वृद्धाश्रमों में अकेले रहने के बावजूद सेवाकर्मियों के ज़रिए बीमारी फैलती चली गई और लगभग पाँच हज़ार बुज़ुर्गों की जान ले बैठी। कई लोगों के मरने का पता कई-कई दिनों बाद चला और लाशें कमरों में पड़ी सड़ती रहीं। 

स्पेन, इटली और फ़्रांस के वृद्धाश्रमों में हुई मौतों के क़िस्से और भी भयानक हैं। जो वृद्धाश्रम महामारी से बचाव के क़िले समझे जा रहे थे वे मौत की कालकोठरी साबित हुए। वृद्धाश्रमों में हुई मौतों के अलावा भी ब्रिटन में यूरोप में सबसे ज़्यादा मौतें हुईं हैं। यहाँ इटली और स्पेन की तरह अस्पतालों में इन्टेंसिव केयर बिस्तरों की भी कमी नहीं पड़ी। ब्रिटन में महामारी का प्रकोप चीन, ईरान और इटली के बाद शुरू हुआ। इसलिए ब्रिटन के पास सबक सीखने के लिए मिसालें थीं और तैयारी के लिए कुछ सप्ताहों का समय भी था। इसके बावजूद ब्रिटन अपने नागरिकों क्यों नहीं बचा पाया? ऐसे सवालों का प्रधानमंत्री के पास कोई सटीक जवाब नहीं था। सबसे बड़ा सवाल तो शायद यही है कि स्कूल, बाज़ार और कारोबार बंद करने और सामाजिक दूरी के नियम लागू करने के बावजूद ब्रिटन ने सार्वजनिक परिवहन जैसे कि लंदन की भूमिगत रेल सेवा और बसों को बंद क्यों नहीं किया।

बोरिस जॉन्सन की सरकार से यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि तालाबंदी लागू करने के लिए उसने 23 मार्च तक किस बात का इंतज़ार किया। परसों फ़्रांस ने एक नई रिपोर्ट जारी की है जिससे पता चलता है कि कोविड-19 दिसंबर से ही फैलने लगा था। पैरिस के पूर्वोत्तर में पड़ने वाले बॉबिनी कस्बे के एक 43 वर्षीय व्यक्ति की 27 दिसंबर को निमोनिया से मृत्यु हुई थी। डॉक्टरों ने उसकी बलगम के जमाए हुए नमूने का दो बार टैस्ट करके देखा। दोनों बार वह कोविड-19 का मरीज़ साबित हुआ। यह व्यक्ति हाल में न तो विदेश गया था और न ही किसी विदेशी से मिला था। अलबत्ता इसकी पत्नी की हवाई अड्डे पर एक दुकान थी जहाँ विमान से उतरते ही यात्री सामान सहित ख़रीदारी करने आ जाते थे। हो सकता है उनमें से किसी के द्वार पत्नी को और पत्नी से पति को लगा हो। लेकिन यदि ऐसा हुआ है तो वायरस 14 से 22 दिसंबर से बीच लगा होगा। क्योंकि हम जानते हैं कि कोविड-19 से बीमार पड़ने और मरने में 10 से 15 दिन लग जाते हैं। यदि दिसंबर के मध्य में कोविड-19 पैरिस में फैल रहा था तो लंदन में भी फैला होगा। इससे यह बात और भी रेखांकित होती है कि ब्रिटन और फ़्रांस दोनों ने तालाबंदी और सामाजिक दूरी लागू करने में बहुत देर की।

अब सवाल इसका है कि महामारी को दोबारा फैलने का मौक़ा दिए बिना तालाबंदी को कैसे खोला जाए। ब्रिटन और फ़्रांस की सरकारें बहुत दिनों से इसी उधेड़-बुन में हैं। चीन के महामारी केंद्र वूहान में आज साढ़े तीन महीने बाद पहली बार स्कूल खोले गए हैं। कारोबार और जनजीवन भी धीरे-धीरे पटरी पर आ रहा है। दक्षिण कोरिया, हांग-कांग, इटली, ईरान, स्पेन और जर्मनी सभी धीरे-धीरे तालाबंदी खोल रहे हैं। अमरीका में न्यूयॉर्क को छोड़ कर सब जगह बीमारों और मरने वालों की संख्या का बढ़ना जारी है। फिर भी, पचास में से 42 राज्य तालाबंदी में ढील दे चुके हैं। इसलिए ब्रितानी सरकार भी खोलने के दबाव में है। प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन ने कहा है कि अगले सोमवार से वे कुछ चीज़ें खोलने की योजना बना रहे हैं। इस बीच इंगलैंड के दक्षिण में पड़ने वाले टापू आइल ऑफ़ मैन में लोगों के मोबाइल फ़ोनों पर एक टोह रखने वाला ऐप डालकर जनजीवन खोलने का प्रयोग किया जा रहा है। आइल ऑफ़ मैन में करीब डेढ़ लाख लोगों की आबादी है और कम से कम आधे लोगों के फ़ोन में ऐप डाउनलोड होना चाहिए तभी वह काम कर सकता है।

दक्षिण कोरिया और सिंगापुर ने भी इसी तरह के टोही ऐप लोगों के फ़ोनों में डाल कर महामारी के फैलाव पर नज़र रखी थी। अमरीका की दो प्रतिद्वंद्वी टैक महाकंपनियों एपल और गूगल ने भी अपनी दुश्मनी भुला कर महामारी की टोह रखने वाला एक संयुक्त ऐप तैयार किया है जो एपल और एंड्रॉएड दोनों प्रणालियों पर चलने वाले फ़ोनों में डाला जा सकता है। बबल नाम के इस ऐप की एक ख़ासियत यह है कि यह लोगों की निजता का भी हनन नहीं करता। लेकिन ब्रिटन ने अपना अलग ऐप बनाया है क्योंकि वे ऐप से प्राप्त जानकारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा NHS के पास भेजना चाहते हैं ताकि उसका प्रयोग महामारी पर होने वाले दूसरे अनुसंधानों के लिए भी किया जा सके।

महामारी के वायरस पर दुनिया के कई देशों में शोध चल रहे हैं और लगभग सौ टीमें टीकों के विकास के काम में जुटी हुई हैं। इन्हीं में से अमरीका और यूरोप की टीमों ने जाँच करके बताया है कि कोविड-19 का वायरस भी पिछले चार महीनों से निठल्ला नहीं बैठा है। उसने अपनें सैंकड़ों रूप तैयार कर लिए हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि वायरसों का संक्रमण के दौरान रूप बदल लेना एक आम बात है। लेकिन इतने सारे रूप बदलने के पीछे वायरस की क्या ख़ास चाल हो सकती है और इनमें से कौन सा रूप सर्वाधिक घातक और संक्रामक साबित होता है इसका पता और गहन अध्ययनों से चलेगा। फ़िलहाल तो यही कहा जा सकता है कि वायरस के अनेक रूप धर लेने के कारण उसकी कोई एक अचूक दवा तैयार करने का काम और भी चुनौतीपूर्ण हो गया है। 

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