कोरोना महामारी और सत्ता का इंद्रजाल

अरविंद अंजुम 

महामारियों ने इतिहास में हमेशा इंसानों की जिंदगियों को तबाह और समाज के ताने-बाने को तहस-नहस किया है।यह वक्त होता ही ऐसा है जब समाज की अच्छी- बुरी सभी प्रवृतियां सतह पर आ जाती है और अपने अपने स्वभाव के लिहाज से किरदार भी अदा करती है।कोरोना वायरस के दौर में एक तरफ तो सड़कों घर पैदल लौटते मजदूरों की सहायता पहुंचाने के लिए एक बड़ी जमात जोखिम लेकर सामने आई तो दूसरी ओर उनके लिए मुश्किलें खड़ी करने के लिए सरकारी महकमे संवेदनशीलता की धज्जियां उड़ा रहे थे।

समाज जब भी संकटग्रस्त होता है तब सत्ता,चाहे वो राजनैतिक हो या सामाजिक, उस पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए उसे अवसर में बदल देता है ।वह लुभावना व रंगीन इंद्रजाल बुनती है।भारत में भी शुरुआत से ही इस मामले में कई तरह के हथकंडे अपनाए गए। वायरस की ब्रांडिंग, इलाज के हास्यास्पद टोटको से लेकर वैक्सीन के दावों के बीच का यह सुहाना सफर अत्यंत निराशाजनक, दयनीय और डरावना है।

महामारी का इतिहास 

महामारी के इस दौर के रुख को पीछे की ओर मोड़ कर ठीक 500 बरस पहले पहुंचकर देखें तो एकबारगी अहसास होगा कि दुनिया वहीं की वहीं ठहरी हुई है ,हालांकि हू-ब-हू ऐसा होता नहीं है।आज से ठीक 500 बरस पहले मेक्सिको में चेचक की महामारी का पहली बार प्रकोप हुआ तो यूकाटन प्रायद्वीप में मायाओं ने इसके लिए तीन दुष्ट देवताओं को जिम्मेदार ठहराया जो रात में उड़कर एक जगह से दूसरी जगह इसे फैला रहे थे। एजटेक इसके लिए अन्य दो देवताओं को और गोरों के काले जादू को दोषी ठहराते थे।

इस रोग के नियंत्रण के लिए पुरोहितों और वैद्यों से सलाह मशविरा किया गया।उन्होंने प्रार्थनाएं करने , शीतल जल से नहाने,बदन पर विटूमिन मलने और भौंरों को मसलकर घाव पर चिपकाने की सलाह दी। पर इनसे न कोई फायदा हुआ और न होना था।हजारों की संख्या में सढ़ते हुए शव पड़े थे और किसी के पास इतना साहस नहीं था कि उन शवों को दफनाये। कुछ ही दिनों बाद अधिकारियों ने आदेश दे दिया कि मकानों को शवों के ढेर पर गिरा दिया जाए।असंख्य परिवार तबाह हो गए,कुछ बस्तियों की तो आधी जनसंख्या मौत के हवाले हो गए।

इस महामारी की शुरुआत भी बड़े अजीबोगरीब तरीके से हुई। मार्च 1520 में जहाजों का एक छोटा बेड़ा क्यूबा के द्वीप से मेक्सिको की ओर रवाना हुआ।इन जहाजों में घोड़ों के साथ 900 स्पेनी सैनिक, तोपें और कुछ अफ्रीकी गुलाम सफर कर रहे थे। इनमें एक से एक गुलाम फ्रांसिस्को दि एगिया अपनी देह पर एक घातक जैविक टाइम बम लादे हुए था। उसको यह पता भी नहीं था कि उसकी अरबों कोशिकाओं के बीच एक खतरनाक विषाणु का लालन पालन हो रहा है।

मेक्सिको में उतरने के साथ विषाणु ने फ्रांसिस्को के पूरे शरीर को अपने कब्जे में लेकर रंग दिखाना शुरू कर दिया और त्वचा पर असंख्य फुंसियों के मार्फत फूट पड़ा। बुखार से तप रहे फ्रांसिस्को को टेम्पोआलान नगर स्थित एक स्थानीय अमेरिकी परिवार के घर पर आराम के लिए ले जाया गया। उसने उस परिवार के सदस्यों को संक्रमित कर दिया जिन्होंने अपने पड़ोसियों तक त्रासदी को पहुंचाया ।विषाणु ने दस दिन के अंदर टेंपोआसान को एक मरघट में बदल कर रख दिया और शरणार्थियों ने इसे आसपास के नगरों तक फैला दिया।यही विषाणु धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैला और करोड़ों लोग इसकी चपेट में आ गए।

पाँच सदी पहले के इस विवरण से लगता है कि हम कहीं से भी मानसिक धरातल पर छलांग नहीं लगा पाए हैं जबकि इस दरमियान विज्ञान और भौतिक दृष्टि से हमारे जीवन में अभूतपूर्व बदलाव आए हैं ।मायाओं व एजटेक की तरह आज भी हम गुनहगार तलाश रहे हैं।कोरोना काल के आगाज के साथ ही दुष्टामाओं को ढूंढा जाने लगा और सभी अपनी अपनी सुविधानुसार इसकी पहचान कर रहे थे। भारत में तबलीगी जमात को पहला शिकार बनाया गया और ऐसा पूरी दुनिया मे हुआ। इसी तरह से कोरोना वायरस से बचाव के लिए गोमूत्र-पान, गो कोरोना गो पार्टी,बदन पर गोबर लेपन ,हनुमान चालीसा पाठ एवं 9 लड्डू- 9 लौंग से कोरोना माई का पूजन आदि ने पीछे धकेल कर हमें यूकाटन प्रायद्वीप के अंधकार के बीच ला पटका।

टोटके काम नहीं आए 

लेकिन ये सारे टोटके धरे के धरे रह गए।कोरोना का प्रसार बढ़ता ही जा रहा है।संक्रमित और मौत के आंकड़े सभी को डरा रहे हैं, हालांकि यह विगत शताब्दियों के मुकाबले काफी कम है।पर हमारी तरक्की तो उससे कहीं ज्यादा है। रोगों या महामारिओं पर नियंत्रण और चिकित्सा के सामर्थ्य में भी विस्मयकारी तरक्की हुई है।चेचक के टीकाकरण का वैश्विक अभियान इस कदर कामयाब रहा कि उन्हें 1979 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने घोषणा कर दी कि मानवता की जीत हुई है और चेचक का पूरी तरह उन्मूलन कर दिया गया है।यह पहली ऐसी महामारी है जिसे पृथ्वी से पूरी तरह निर्मूल कर देने में मनुष्य कामयाब रहा। 1967 में चेचक के जहाँ 15 करोड़ लोगों को गिरफ्त में लिया हुआ था और उनमें से 20 लाख लोगों की जान चली गई ,लेकिन 2014 में एक भी व्यक्ति को ना तो चेचक का संक्रमण हुआ और ना ही उसमें कोई जान गई। इस महामारी पर जीत इतनी मुकम्मल थी कि विश्व स्वास्थ संगठन ने टीके लगाना भी बंद कर दिया। इस तरह 1520 से शुरू हुआ जानलेवा महामारी सफर 2014 तक आते आते चिकित्सा शास्त्र के सामने बेबस हो गया।

टोटके,बीमारी के साथ हजारों सालों से अभिन्न रूप से चले आ रहे हैं और शायद अगली शताब्दियों में भी कायम रहैं। पर कोरोना महामारी से मुक्ति के लिए लोगों की टकटकी अब किसी ईश्वर के पूजनीय स्थान की ओर नहीं बल्कि ऑक्सफोर्ड समेत दो दर्जन से ज्यादा स्थानों पर हो रहे शोधों पर तिकी हुई है।

हर बीतते वक्त के साथ चिकित्सक एवं वैज्ञानिक बेहतर ज्ञान संचित कर रहे हैं जिसका इस्तेमाल वे अधिक कारगर दवाओं और चिकित्सा शास्त्र को गढ़ने में करते हैं।हम उम्मीद कर सकते हैं कि आगामी दशकों में वैज्ञानिक ज्यादा बेहतर तरीके से रोगाणुओं से निपट सकेंगे।टोटकों का संसार या सत्ता का इंद्रजाल चाहे जितना मनमोहक व रहस्यमय क्यों न हो पर ज्ञान और अनुभव के व्यापक होते दायरे के सामने निरंतर कमजोर पड़ते जा रहे हैं और एक दिन दम तोड़ देंगे।मानवता उसी अभीष्ट  के इंतज़ार में है।

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