कोरोना वाइरस के प्रसार में पुष्प के परागकण की भूमिका
कहीं समझने में चूक तो नहीं हो रही ?
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज ,
आज के विकासशील वैज्ञानिक युग में ,कोरोना वाइरस जो एक अर्द्धजीव है विगत पांच माह से पूरे विश्व को आतंकित किये हुए है। विकसित वैज्ञानिक देश जो विज्ञान के विभिन्न शाखाओं में शिखर पर पहुंचे हैं ,इसके निराकरण के लिए कोई दवा या वैक्सीन नहीं ढूंढ पा रहे हैं और कोरोना का संक्रमण पुरे विश्व में अबाध गति से फैलता जा रहा है। वास्तविकता यह है की विश्व के सभी देश अपने अपने तरीके से अँधेरे में तीर चलाते जा रहे हैं। हताशा की यह स्थिति अत्यंत सोचनीय है।
कुदरत यह कैसा खेल कोरोना के माध्यम से खेलना चाह रहा है। वैज्ञानिक जगत को इसपर गहराई से सोचना होगा। अभी तक वाइरसों की जो जानकारी है उससे यह कोरोना कुछ विचित्र किस्म का है। बिडम्बना यह है की अभी तक इसका मूल स्रोत ही निर्धारित नहीं किया जा सका है की यह प्रकृतिजन्य है या अंतराष्ट्रीय षडयंत्र के तहत प्रयोगशाला में तैयार किया गया है।
कोरोना वाइरस का आकर 125 नैनोमीटर होता है इसका घनत्व 1 . 16 ग्राम पर सी सी होता है ,जो मनुष्य के कोशिका के बराबर ही अथवा उससे कुछ छोटा होता है। कोरोना का घनत्व भी कोशिका के घनत्व के बराबर होता है ,इसका वजन.8 5 फेक्टोग्राम टेन टू पावर माइनस फिफ्टीन ग्राम होता है। जब अरबों की संख्या में वायरस शरीर में पहुंचते हैं तब कहीं मनुष्य कोरोना संक्रमित होते हैं।
कहीं कोरोना वायरस के विसरण में पुष्प के परागकण
कोरोना के सम्बन्ध में वैज्ञानिक जानकारी का अध्ययन करते हुए मेरा ध्यान स्पेन के कॉरडोबा cardoba विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक जोस ओटेरोस jose oteros के एक अध्ययन की ओर आकर्षित हुआ। ओटेरोस ने मार्च 20 में अपने शोधपत्र के सार संक्षेप में यह शंका व्यक्त की है कहीं कोरोना वायरस के विसरण में पुष्प के परागकण तो सहायक नहीं हो रहे हैं। परागकणों का आकर 2500 से 5000 नैनोमीटर होता है। बहुत सरलता से यह कोरोना की सवारी बन सकता है। ये परागकण कुदरत की अजीब करस्तानी है जो हजारों किलोमीटर की यात्रा कर लेते हैं। ये अपनी सवारी को दूसरे कैरियर को भी स्थानांतरित कर देते हैं। वातावरण में यदि प्रदूषकों की मात्रा काफी है जिसमे कार्बन शूट भी सम्मिलित हैं तो ये कोरोना वायरस के कैरियर का कार्य कर सकते हैं वैज्ञानिक ओटेरोस का मत है की यूरोपीय देशों में स्प्रिंग सीजन बसंत ऋतु में कोरोना का तेजी से फैलाव इस तर्क की पुष्टि करता है। भारत में भी बसंत ऋतू मार्च अप्रैल में कोरोना का फैलाव हुआ। इस धारणा पर वैज्ञानिकों को विचार करना चाहिए कहीं हम वायरस के विसरण प्रवृत्ति और इसके कार्यपद्धति के अध्ययन में कोई चूक तो नहीं कर रहे हैं।
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कोरोना से मुक्ति पाने के सन्दर्भ में यह भी सोचते रहने की आवश्यकता है की यदि कोरोना प्रकृति जन्य है तो प्रकृति जो जननी है माँ है वह इतना क्रूर नहीं हो सकती की अपने पुत्रों का बलिदान ही ले ले ,कान भले भले ही उमेठ ले। माता न कुमाता पुत्र कुपुत्र भले ही। वायरस का निवारण प्रकृति ही करेगी। विचार करें मार्च अप्रैल के माह में लगातार आंधी ,तेज वर्षा ,समुद्री तूफ़ान आदि को दैवीय प्रकोप के रूप में न लें कहीं यह प्रकृति की लीला कोरोना से मुक्ति के लिए ही न हो। हवाओं की तेजगति ,वर्षा ,कोरोना के प्रसार को धूल धूसरित करने के लिए भी हो सकता है।
दुनिया के समक्ष यह क्रूर सत्य प्रकट हो चुका है की अब दुनिया में सांप बिच्छू की भांति कोरोना को भी अंगीकार करते हुए जीने की तैयारी मनुष्य को कर लेनी चाहिए। आदमी भी रहेगा कोरोना भी रहेगा पर दोनों को अपनी अपनी सीमा में रहना होगा। इसके लिए बुनियादी शर्त है प्रकृति के साथ तादात्म्य बना कर जीना। प्रकृति के साथ मातृवत व्यवहार करना होगा पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना होगा ,मास्क को ड्रेस कोड में शामिल करना होगा। सादा जीवन उच्च विचार को अंगीकार करना होगा। विचार करते रहिये कहीं चूक न होने पाए।
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