कोरोना लॉक डाउन के बहाने कुदरत की आजादी

गंगा जी इलाहाबाद के रसूलाबाद घाट पर वर्तमान में। चित्र : श्याम कृष्ण पांडेय के सौजन्य से
पीयूष त्रिपाठी, बुलन्दशहर से 
आपको याद है कि आपने नदियों को अविरल बहते और साफ पानी में मछलियों को अठखेलियाँ करते हुए अंतिम बार कब देखा था? क्या बता सकते हैं कि गौरैया आप की मुंडेर पर कब चहकी थी? महानगरों में रहते हुए साफ आसमान में टिमटिमाते हुए तारे कैसे दिखते थे? क्या आप कल्पना कर सकते थे कि मिलियन सिटी के अंदर कोई हाथी उन्मुक्त रूप से सड़कों पर घूम सकता है और नदी में पानी पी सकता है? अगर आप को यह सब याद नहीं है या आप इसकी कल्पना नहीं कर पा रहे हैं तो परेशान होने की कोई बात नहीं है। यह सब संभव हो पाया है, पूरी दुनिया में फैली महामारी कोविड-19 के कारण। यह सब बताने का उद्देश्य कोविड 19 का महिमामंडन करना नहीं है, बल्कि यह चर्चा करना है कि मानवजाति ने अपनी जरूरतों को गैरवाजिब तरीके से बढ़ा लिया है जिससे वह अन्य प्राणियों के साथ सह अस्तित्व के दूर होता चला गया है और साथ ही पृथ्वी की धारणीयता को भी चोट पहुचाई है.
उद्विकास की यात्रा के प्रारंभ में मनुष्य अन्य जीवजंतुओं कि तरह एक मामूली प्राणी था. सभ्यता की विकास यात्रा में मनुष्य ने स्वयं को उच्चतम स्तर पर प्रतिष्ठित कर लिया। यह केवल पाशविक शक्ति के कारण संभव नहीं हो सकता था। मनुष्य ने आग की खोज की, सम्प्रेषण शक्ति के विकास से विचारों का आदान प्रदान करना सीखा तथा समुदाय के साथ सहकारिता का विकास किया। उसने विभिन्न प्रकार के यंत्रों का आविष्कार किया। इससे वह प्रकृति के अन्य प्राणियों पर नियंत्रण करना सीख गया। धर्मों ने भी मनुष्यों को विवेकवान व श्रेष्ठतर होने का बोध कराया। यदि मनुष्य प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है तो उसे प्रकृति पर नियंत्रण का अधिकार होना चाहिए। इस तर्क के कारण ही मनुष्य प्रकृति के साथ सह अस्तित्व मानने की जगह अपने को प्रकृति का नियंता मान बैठा। उसने प्राकृतिक संसाधनों का असंयमित तरीके से विदोहन किया।
आधुनिक युग में पूंजीवाद हो या साम्यवाद, दोनों ही विचारधाराओं में अत्यधिक उत्पादन व उपभोग पर बल दिया. दोनों ही विचारधाराओं में प्रकृति के अत्यधिक दोहन पर बल दिया गया. भारत की संस्कृति ही इस मामले में वैकल्पिक मार्ग सुझाती है. भारतीय संस्कृति मनुष्यों का प्राणियों के साथ सह- अस्तित्व पर जोर देती है. यह प्रकृति के साथ सहकारिता करते हुए उसके सीमित उपयोग ही पर बल देती है. आधुनिक युग में महात्मा गांधी ने संयम का विस्तार अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी किया. उनका यह प्रसिद्ध कथन है “पृथ्वी के पास प्रत्येक व्यक्ति के आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संसाधन है परंतु किसी के लालच को पूरा करने के लिए कुछ भी नहीं है”.
आज से लगभग आधी शताब्दी पहले विश्व के नेताओं ने पर्यावरणीय चुनौतियों पर गंभीर चिंतन आरंभ किया 5 जून 1972 को स्टॉकहोम कान्फ्रेंस को पर्यावरण की रक्षा के लिए पहला गंभीर कदम माना जाता है. स्टॉकहोम कॉन्फ्रेंस के बाद वैश्विक मंच पर पर्यावरण एक गंभीर विमर्श के रूप में सामने आया. पर्यावरण को समझने के परिप्रेक्ष्य में पृथ्वी के जैव संसाधनों की पुनर्जनन क्षमता तथा संसाधनों के वास्तविक उपभोग के मध्य संबंधो का अध्ययन करने के लिए ‘अर्थ ओवरशूट डे’ का विचार दिया गया।
‘अर्थ ओवरशूट डे’ का विचार पृथ्वी के संसाधनों की पुनरुत्पादकता से जुड़ा हुआ है. विश्व में प्रत्येक वर्ष अर्थ ओवरशूट डे उस दिन को मनाया जाता है जब मानव जाति द्वारा अगले वर्ष के लिए निर्धारित जैव संसाधनों तथा सेवाओं की पुनरुत्पादन क्षमता का पूर्ण रूप से दोहन कर लिया जाता है. इसकी गणना एक अंतरराष्ट्रीय रिसर्च संस्था ‘ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क’ के द्वारा की जाती है. अर्थ ओवरशूट डे के माध्यम से यह समझने का प्रयास किया जाता है की समस्त मानव जाति द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का किस स्तर से दोहन किया जा रहा है.
अर्थ ओवरशूट डे को समझने के लिए दो संकल्पनाओं को समझना होगा. पहली, पृथ्वी की ‘बायोकैपेसिटी’ तथा दूसरी,  मानव जाति के लिए निर्धारित ‘इकोलॉजिकल फुटप्रिंट’. बायोकैपेसिटी का अर्थ है पृथ्वी की अगले वर्ष पुनरुत्पादन की क्षमता ; तथा, इकोलॉजिकल फुटप्रिंट का अर्थ है- उस निर्धारित वर्ष में मानव जाति द्वारा किए गए संसाधनों का वास्तविक उपयोग. बायोकैपेसिटी को सामान्य अर्थशास्त्र की भाषा में ‘मांग पक्ष’ और ‘आपूर्ति पक्ष’ के रूप में समझा जा सकता है. बायोकैपेसिटी आपूर्ति पक्ष से संबंधित है. यह किसी राष्ट्र की उस जैव उत्पादन क्षमता को व्यक्त करती है जो प्राकृतिक संसाधनों के रूप में समुद्र, वन, भूमि, चारागाह, खेतों आदि से उत्पादित किया जाता है. दूसरी ओर इकोलॉजिकल फुटप्रिंट से अर्थ है किसी राष्ट्र के लोगों के द्वारा उपभोग किए जाने वाले जैव उत्पाद जैसे- खाद्य वस्तुएं,  पशुधन,  मछलियां, वनोत्पाद आदि.
अर्थ ओवरशूट डे की गणना करने के लिए पृथ्वी की बायोकैपेसिटी को मानव जाति के द्वारा प्रयुक्त इकोलॉजिकल फुटप्रिंट में भाग देते हैं तथा भागफल में 365 का गुणा करते हैं. इसके परिणाम स्वरूप अर्थ ओवरशूट डे प्राप्त होता है. दूसरे शब्दों में अर्थ ओवरशूट डे उस दिन मनाया जाता है जब पृथ्वी की जनसंख्या के लिए निर्धारित बायो कैपेसिटी का इकोलॉजिकल फुटप्रिंट द्वारा उपभोग कर लिया जाता है।
अर्थ ओवरशूट डे की गणना किसी शहर प्रांत देश या पूरी पृथ्वी के लिए की जा सकती है. यह प्राकृतिक संसाधनों के चुकने की दर को बताता है. 1987 में अर्थ ओवरशूट डे 23 अक्टूबर को मनाया गया. सन 2000 में 23 सितंबर, 2010 में 8 अगस्त, 2018 में 1 अगस्त तथा 2019 में यह 29 जुलाई को मनाया गया. अर्थात प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग की दर तेजी से बढ़ रही है.
विश्व के समक्ष उत्पन्न वर्तमान कोरोना संकट एक अभूतपूर्व चुनौती है. वैज्ञानिकों का मानना है कि जब तक कोविड-19 के लिए कोई टीका विकसित नहीं हो जाता, तब तक ‘लॉकडॉउन’ तथा ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ ही इन इस समस्या को कुछ हद तक रोक सकता है. अधिकतर देशों के नीति निर्माताओं तथा सरकारों द्वारा लॉकडाउन को कोविड संक्रमण फैलने की दर को धीमा करने की रणनीति के रूप में अपनाया गया है. लॉकडाउन के रणनीति का कुछ क्षेत्रों खासतौर पर पर्यावरण के क्षेत्र में सकारात्मक असर देखा जा रहा है.
पीयूष त्रिपाठी
बीबीसी हिंदी की वेबसाइट पर 17 दिसम्बर 2017 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक शाकाहार के मुकाबले मांसाहार उत्पादन व उपभोग के लिए कई गुणा पर्यावरणीय प्रभाव पड़ता है. मिसाल के लिए एक साल में प्रतिदिन चावल खाने (तीन टेबल स्पून प्रति सर्विंग) से 121 किलोग्राम ग्रीनहाउस गैस के बराबर उत्सर्जन होता है जो एक पेट्रोल कार को 499 किलोमीटर चलाने के बराबर है, वहीँ इसी अवधि तक इसी मात्रा में चिकन खाने से यह उत्सर्जन 497 किलोग्राम है जोकि पेट्रोल कार को 2044 किलोमीटर चलाने के बराबर है. इसी रिपोर्ट में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के शोध का हवाला देते हुए बताया गया है कि वातावरण में खाद्य पदार्थ से होने वाले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में करीब आधा हिस्सा केवल मांस या अन्य मांसाहारी खाद्य के कारण होता है लेकिन इस तरह के खाद्य पदार्थों से हमें कुल खाने से मिलने वाली कैलोरी का पांचवा हिस्सा ही मिलता है. कोविड 19 वायरस का प्रसार वुहान में मांस की मंडी से शुरू हुआ और यह बाद मे पूरी दुनिया में फ़ैल गया. लोगों के लॉक डाउन रहने तथा इस कारण मांस कि खपत कम करने से यह दो तरह से सकारात्मक असर डाल सकता है. पहला, इससे पृथ्वी की बायो कैपेसिटी में वृद्धि होगी; और दूसरा यह कि तद्जनित ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की दर धीमी पड़ सकती है.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों जैसे नदी,  जंगल,  पशु-पक्षी आज प्राकृतिक अवस्था का आनंद  ले रहे हैं. बहुत सालों बाद गंगा में डॉल्फिन पुनः दिखाई दे रही हैं. जालंधर से हिमालय को साफ देखा जा सकता है. ज्यादातर शहरों का एयर क्वालिटी इंडेक्स ‘बहुत अच्छा’ की श्रेणी में आ गया है. दिप्रिंट में 8 अप्रैल 2020 को प्रकाशित रिपोर्ट में केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के हवाले से बताया गया है कि लॉक डाउन यानि 25 मार्च 2020 से पहले विश्व के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में भारत के 14 शहर शामिल थे जबकि 7 अप्रैल 2020 तक इनकी संख्या घटकर मात्र दो रह गई है. भारत के अधिकतर शहर पिछले कई सालों की सबसे साफ़ हवा में सांस ले रहे हैं. हर साल अक्टूबर से जनवरी तक के समय दिल्ली व इसके आसपास के इलाकों में साफ़ हवा का स्तर ‘बेहद खतरनाक’ श्रेणीसुझाव मे हो जाया करता था. धुंध में सांस लेना दूभर हो जाता था. इस संकट से निबटने के लिए कृत्रिम वर्षा करवाने सुझाव दिए जाते थे. अब यह समस्या काफी हद तक कम हो गयी है.
 कोविड महामारी व अर्थ ओवर शूट डे की चर्चा से कुछ सामान्य निष्कर्ष निकले जा सकते हैं और सबक लिए जा सकते हैं. पहला और सबसे जरुरी निष्कर्ष यह है कि पूरी मानव जाति ने प्राकृतिक संसाधनों को जी भर कर लूटा है, जिससे न केवल मनुष्य प्रकृति से दूर हुआ, बल्कि पशु पक्षियों के प्राकृतिक आवासों का भी अतिक्रमण किया. मौका मिलने पर वे फिर से अपने हिस्से की जमीन पर लौटते दिखाई पड़ रहे हैं. दूसरा जरुरी निष्कर्ष यह है कि मनुष्य जिन ‘जरूरतों’ का हवाला देकर प्रकृति का विदोहन करने के लिए तर्क खोजता है, वे काफी हद तक गैर वाजिब हैं.
इसका एक सबक यह है कि प्रकृति जिसमे नदी, जंगल, पशु पक्षी तथा पर्यावास आदि को बचाने के लिए पूरी दुनिया में पूरी तैयारी के साथ एक निश्चित अवधि के लिए लॉक डाउन मॉडल को लागू किया जा सकता है. इसका शायद सबसे बड़ा सबक यह है कि युद्ध और शस्त्रों कि स्पर्धा सबसे ज्यादा गैर जरुरी है.
उत्पादन व उपभोग की दर न्यूनतम है. पूरी मानवजाति के के लिए यह देखना सचमुच रोमांचक होगा कि अप्रत्याशित संकट के कारण ही सही, अर्थ ओवरशूट डे दिसंबर की तरफ बढ़ेगा. मनुष्य लॉक डाउन क्या हुआ, ऐसा लग रहा है कि प्रकृति आजाद हो गयी है.
कृपया इसे भी देखें :       https://mediaswaraj.com/coronalockdown_clean_ganga/
लेखक देवनागरी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुलावठी, बुलंदशहर में असिस्टेंट प्रोफेसर , राजनीति विज्ञान हैं।  

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