कोरोना काल कथाः स्वर्ग में सेमीनार
प्रकाशकाधीन उपन्यास का अंश
पिछले साल कोरोना की पहली लहर आयी तो स्वर्ग में एक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी. इस गोष्ठी में महामारियों का इतिहास खंगालने के साथ हाई उनके निदान पर भी चर्चा हुई. यह काल्पनिक गोष्ठी आयुर्वेद के विद्वान डॉ.आर.अचल पुलस्तेय के मस्तिष्क की उपज है जो शीघ्र हाई एक उपन्यास के रूप में प्रस्तुत होगा.

महाव्यापद से बचाव व चिकित्सा विषय विमर्श से अब महाव्यापदों के इतिहास की दिशा में भी दृष्टिपात करना आवश्यक लगता है। इसके लिए अमेरिकी विज्ञान इतिहासकार, लेखक, आविष्कारक जर्न्सबैक आमंत्रित है,जो कोरोना शैली के विश्वध्वंसक व्यापदों का इतिहास प्रस्तुत करेगें। ऋषि ह्यूहो जन्सबैक का भूलोक प्रवास 1884 से 1967 ई. तक अमेरिका में रहा है। महामारियों के इतिहासकार वैज्ञानिक जन्सबैक का संक्षिप्त परिचय देकर महर्षि पुलस्त्य आसनस्थ हो गये।
जर्न्सबैक ने तत्क्षण पटल पर उपस्थित होकर बोलना शुरु किया।
महामारियों का इतिहास बहुत पुराना है
आनरेबल्स ! महामारियों का इतिहास बहुत पुराना है।जब भी कोई रोग एक ही समय में बहुत से लोगों को होने लगता है तो उसे महामारी कहा जाता है।इसके तीन वर्ग होते है। पहले इन्डेमिक(प्रादेशिक)होता है,फिर वही एपिडेमिक संक्रामक बन जाता है।सामान्यतः यह समुदायिक रुप में होता है,पर जैसे-जैसे सम्पर्क का विस्तार होता है, वैसे-वैसे रोग का विस्तार होने लगता है।
रेस्पिरेटरी सिस्टम अर्थात श्वासनतंत्र को प्रभावित करने वाला इन्फ्लूएंन्जा भी प्राचीन एपिडेमिक रोग है।वर्तमान व्यापद भी इसी का एक प्रकार है।ऐसे रोग पहले एक-दो लोगों से शुरु होते हैं,फिर कुछ ही समय में 2 से 20 प्रतिशत लोगों में हो जाते है।क्रमशः पूरी बस्ती-नगर-जनपद,देश,दुनियाँ अर्थात जहाँ तक प्रभावित लोगों का आवागमन होता है, वहाँ तक फैलता जाता है।वर्तमान में तीव्र आवागमन के सहज संसाधनों के कारण कोरोना पेन्डेमिक अर्थात वैश्विक महामारी बन गया है,हालाँकि इस लक्षण के रोग मौसम के अनुसार प्रत्येक वर्ष होते रहते हैं।
महामारी के संदर्भ में समान्यतः यह देखा गया है कि 20-30-50-100 वर्षो में कोई न कोई रोग एपिडेमिक या पेन्डेमिक जरूर होता है।प्रमाणिक तौर पर भूलोक काल गणना के अनुसार 1510 ई.के बाद इन्फ्लूएंजा की गणना 30 विश्वव्यापी रोगों में किया जाने लगा,जो क्रमशः 1847, 1848, 1889-90, 1892, 1918, 1919,1957 ई. में वैश्विक रुप में फैला था। प्रत्येक काल में इसके स्वरूप व लक्षण बदलते रहे हैं।विषाणु विज्ञान के विकास के बाद पता चला कि रोगकारक विषाणुओं की संरचना में बदलाव के कारण लक्षणों में बदलाव होता रहता है। 1889ई. में यह तीन बार रुपान्तर के साथ संक्रामक हुआ था,जिसमें दूसरा दौर सबसे भयानक था । इसमें शिशु व वृद्ध संक्रमित होकर मृत्यु को प्राप्त हुए थे ।
सामान्यःकिसी महामारी का विषाणु शरीर में सुषुप्त होकर रह जाते हैं जो अनुकूल अवसर पाकर भयानक रुप धारण कर लेते हैं । सन् 1918ई. में कुछ महीनों के अन्तर से तीन बार फैला था। जिसमें दुनियाँ के 50 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे, 1.5 करोड़ लोग मारे गये थे। इस काल में युवाओं पर अधिक प्रभावी हुआ था।इसकी शुरुआत स्पेन से हुई थी,इसलिए इसे स्पेनिश फ्लू कहा गया । सन् 1933ई. में सर एन्ड्रयू,स्मिथ व लेडलाव ने इसके वायरस की पहचान कर वायरस-ए नामकरण किया ।
आगे चलकर ए-1,ए-2 प्रकार के वायरस पहचाने गये। सन्1889,1918,1947 ई. में ए-1 का संक्रमण हुआ था,परन्तु1957 व1968ई. में एशियन फ्लू ए-2 के कारण हुआ था । सन् 1940ई. में एक अन्य प्रकार के वायरस से अमेरिका प्रभावित हुआ था।1949 ई. में सर टायलोर ने जी वायरस का पता लगाया । सन्1954 ई. में बी-1,बी-2 प्रकार के वायरस का पता चला।
इसके पहचान के लिए बिल्ली,चूहों,पक्षियों को प्रयोग का माध्यम बनाया गया । इस वायरस आकार 100मिली माइक्रान होता है । यह खाँसनें, छींकनें, थूकनें से प्रसारित होते हैं।ये विषाणु रक्त में प्रवेश नहीं करते हैं,इनका संक्रमण नाक,गले से लेकर फेफड़ों तक ही होता है।फेफड़ों को संक्रमित कर न्यूमोनियाँ के रूप में मृत्युकारक बन जाता है। यह सन् 1966ई. में हांगकांग से शुरु हुआ था,इसलिए इसका नाम हांगकांग फ्लू दिया गया।
जर्न्सबैक धारा प्रवाह बोल रहे थे,इस क्रम में त्वरण लाते हुए आगे कहने लगे-
मैं सन् 1967ई में भूलोक त्याग कर, स्वर्गलोक में आ गया।यहाँ से देख रहा हूँ कि 1970ई.में पूरे यूरोप में फ्लू का उग्र आक्रमण उग्र हुआ,इसके पश्चात स्थानीय रुप से कई बार फ्लू को विविध रुप को देखा गया। सन् 2009 ई. में स्वाईन फ्लू 2013 में बर्डफ्लू, 2014 में ईबोला, 2018 ई. मे निपाह का संक्रमण हुआ । इसके पश्चात अब कोरोना काल चल रहा है,थैक्स फार टेकिंग मी टाइम सर पुलस्त्य ।
जर्न्सबैक के संवाद के तत्काल बाद अग्रिम पंक्ति में बैठे रसाचार्य वीर भद्र भैरव की कर्मभेदी ध्वनि गूँजी-विश्वध्वंसक व्यापद का यह अपूर्ण इतिहास है।मंडप के सभी प्रतिभागियों का ध्यान वीरभद्र भैरव की ओर आकर्षित हो गया। महर्षि पुलस्त्य स्थिति को भाँप कर उन्हें पटल पर आकर अभिव्यक्ति के लिए आमंत्रित किया।
महर्षि पुलस्त्य की भूलोकदृष्टि-17
हमेशा की तरह जर्न्सबैक के संवाद काल में भी पुलस्त्य भूलोक पर देख रहे थे।जहाँ अमेरिकी शासक अपने देश के व्यापद जनसंहार से ध्यान हटा कर चीन व ईरान पर आक्रमण का वातावरण रच रहा था। प्रवासी तकनीकी श्रमिकों को प्रबंधित कर रहा था।जिससे भारतीय श्रमिक चिंतित हो उठे थे । इधर चीनी सेना व्याधिरक्षक औषधि का परीक्षण कर रही थी।ब्रिटेन के विज्ञानविद् भी ऐसी ही औषधि का परीक्षण कर रहे थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) जनजीवन को अभी अधिक समय तक स्तम्भित(लाकडाउन) करने का परामर्श दिया था। परन्तु कुछ देशों की जनता इसके विरुद्ध आंदोलित होती दिख रही थी ।भारत खण्ड में स्तम्भन से प्रजा का एक बड़ा हिस्सा तनाव में था ।युवाओं के विवाह की आशायें टूट चुकी है।धार्मिक आस्था केन्द्रों के सन्नाटे से उसके आश्रित जीवन-यापन वाले पुजारी,मौलवी, पादरी, पूजन सामग्री विक्रेता हताश थे ।
शिक्षण-प्रशिक्षण केन्द्र भी बंद है,दूरदर्शक यंत्रो(आनलाइन क्लासेज) के माध्यम से शिक्षण के प्रयोग किये जा रहे थे,जो संकेतों(नेट सिग्नल) के टूटने के कारण असफल सिद्ध हो रहे थे। जनता-चिकित्सक संबंधों में अविश्वास हो रहा था। चिकित्सकों की सुरक्षा हेतु नयी, राजदण्ड विधि पारित की गयी है,कोरोना मंथर गति चल रहा है।
अकिंचन मनुष्यता के साथ ही महर्षि पुलस्त्य को कुछ संतोषप्रद दृश्य भी दर्शित हुए है। भारत सहित कुछ देश रसान्तरण(Plasma Therapy) चिकित्सा का प्रयोग कर रहे हैं।जो व्यापद भुक्त स्वस्थ व्यक्ति के रसतत्व को गंभीर रुग्णों के शरीर मे प्रवेश कर,चिकित्सा करने की विधि है।भारतीय शासन ने भारतीय आयुर्विद्याओं के प्रयोग व शोध के लिए राजाज्ञा दे दी है।जिसे देख कर महर्षि की आँखें चमक उठी हैं,होठ बुदबुदा रहे हैं कि शायद सेमीनार के संदेशो ने भारत के नर इन्द्र को प्रभावित किया है।
पंचम प्रस्तुति
वीरभद्र भैरव
वीरभद्र भैरव के पटल पर पहुँचने से पूर्व महर्षि पुलस्त्य ने परिचय देते हुए बताया कि-आचार्य वीरभद्र अनादिकालीन शैव चिकित्सा के प्रथम आचार्य है,जो आयुर्विद्या की दीक्षा के लिए ब्रह्मा व प्रजापति से निवेदन किया था,परन्तु उन्हे तिरस्कृत कर दीक्षा नहीं दी गयी। जिससे क्रुद्ध होकर ब्रह्मा व प्रजापति का शिरच्छेद कर दिया था,परन्तु अश्वनीकुमारों द्वारा पुनः शिरयोग कर वीरभद्र को अपमानित किया गया। जिससे दुखी होकर आचार्य वीरभद्र भैरव महादेव के पास जाकर रुदन करते हुए कहा कि-हे देवाधिदेव आप ब्रह्माण्ड की समस्त विद्याओं के मूल हैं। मैं मूढ़मति अन्यत्र निवेदन कर अप्रतिष्ठा को प्राप्त हो रहा हूँ।आज लोक नाना व्याधियों से त्राहिमाम् कर रहा है।आयुर्विज्ञ अहंकार व लोभ में मात्र देवलोक की चिकित्सा करने में व्यस्त हैं।लोक कल्याणकारी चिकित्सा की जिज्ञासा तुष्ट कर मुझे उपकृत करें ।वीरभद्र भैरव की करुण वंदन से प्रसन्न होकर, महादेव ने लोक रक्षार्थ रसविद्या में दीक्षित किया,जिसे प्राप्त कर इन्होंने रसमंगल,रसायनमहानिधि,रसेन्द्रसंहिता,रसतंत्र,रसार्णवतंत्र ग्रंथों की रचना की।अमृतार्णवरस, व्रजेश्वररस,त्रिनेत्ररस,कालान्तक रस, मकरध्वज, सर्वतोभद्ररस, सर्वांगसुन्दररस,प्रचण्डभैरवरस,वसंतकुसुमाकर रस,राजमृगांक रस आदि 42 द्विव्य प्राण रक्षक औषधियोगों की रचना की है । इस परम्परा में आगे चल कर नन्दी, स्वच्छन्द भैरव,मन्थान भैरव, काकचण्डीश्वर,रत्नाकर,हरिश्वर,वासुदेव आदि आचार्य हुए।
दीर्घ परिचय समाप्त होते ही पटल पर वीरभद्र भैरव ने गर्जनघोष किया।
विषपरमाणु जन्य महाव्यापद आदि काल से रहे
आचार्य गण ! आचार्य जन्सबैक ने महाव्यापदों का इतिहास अधूरा बताया है। मैं बताना चाहूँगा कि विषपरमाणु जन्य महाव्यापद आदि काल से रहे हैं। उसकी चिकित्सा भी होती रही है।आचार्य जन्सबैक ने अपने देशकाल के अनुसार महामारियों का इतिहास बताया है।
आचार्यगण ! आज भूलोक जिस महाध्वंसक व्यापद से त्रस्त है।वह प्राणवायु पथ को अवरुद्ध करने वाली व्याधि होने के कारण अत्यंत घातक रही है।इसकी उत्पत्ति देवाधिदेव महादेव रुद्र के उच्छ्वास से हुई है।पूर्व कल्प में देव, दावन, दैत्य, नाग, किन्नर, मानव एक दूसरे पर आधिपत्य के लिए युद्ध के लिए तत्पर होकर अशान्ति फैलाये हुए थे।भोग व सत्ता के लिए प्रकृति का विनाश कर रहे थे। एक दूसरे के प्रति असहिष्णु बन चुके थे।नदी ,पर्वत, वायु, सूर्य, चन्द्र,समुद्र,पृथ्वी का विध्वंस कर रहे थे।अहंकार वश महादेव के संकेतो की भी उपेक्षा कर दिया था। जिससे क्रुद्ध महादेव ने तीव्र गंभीर उच्छ्वास छोड़ा,इससे असंख्य ज्वरकारक विषपरमाणु उत्पन्न होकर त्रयलोक्य को ग्रसित कर लिये। देव-दानव, नाग, किन्नर, मानव आदि सभी त्राहिमाम् करने लगे।
निरुपाय सभी ने अहंकार-वैमनष्य त्याग कर, एक समूह में महादेव के शरणागत होकर व्यापद को शान्त करने की प्रार्थना करने लगे।
सर्वभूतेश्वर महादेव ने प्रसन्न होकर कहा -रुद्र क्रोध से उत्पन्न विषपरमाणुओं को नष्ट करना संभव नही हैं,परन्तु अब ये निष्क्रिय-समाधिस्थ होकर अनंत काल तक तीनों लोकों मे विचरते रहेगें।
जब-जब अतिभोग के कारण प्रकृति की क्षति होगी,वैमनष्य बढ़ेगा तब-तब सक्रिय होकर पशु-पक्षी,देव,मानव,दावन आदि प्रत्येक योनि के लिए व्यापद बनेगें। विविध रुपान्तरण के साथ प्राणवायु पथ से प्रवेश कर दण्डित करेंगे। जिसकी चिकित्सा मेरे द्वारा उपदिष्ट रसौधियों(आयुर्वेद की पादर,गंधक,सोना आदि के भस्म से निर्मित औधषियाँ) से संभव होगी।
आयुर्विज्ञ आचार्यगण ! यही विषपरमाणु 121 प्रकार के ज्वरों के कारण हैं।वर्तमान व्यापद श्लेष्मवातज ज्वर है,जो देशकाल-व्याधिक्षमत्व, सत्वबल, ओज के अनुसार प्रभावित हो रहा है। इससे बचने के लिए व्याधिक्षमत्व,सत्वबल तथा ओज का संरक्षण करना होगा,जो केवल औषधियों से संभव नहीं है।जिसके लिए आचार,व्यवहार भी शुद्ध करना होगा । ईष्या, विद्वेष, घृणा, तनाव, विषाद, शत्रुता, मोह, लोभ से मुक्त होकर रसायन औषधियों का सेवन करते हुए मन प्रसादक व्यवहार करना चाहिए ।व्याधि क्षमत्व दुर्बल होने पर श्लेष्मवातिक ज्वर, सन्निपातिक ज्वर का रुप धारण कर लेता है,जिससे प्राण संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

प्रबुद्ध चिकित्सक युक्ति पूर्वक रसौधियों के प्रयोग से आवश्य सफल होता है। इस प्रकार जगद् व्यापदों का प्रकोप अनादि काल से होता रहा है, जिसकी चिकित्सा भी अनादि काल से होती रही है।इस प्रकार कोई व्याधि- व्यापद न नवीन होती है,न कोई औषधि। किसी व्याधि को जब नयी व्याधि माना जाता है तो भय वृद्धि के कारण भी लोग मरने लगते हैं।जिससे व्याधि बल की वृद्धि तथा जीवन बल का ह्रास होने लगता है-सत्यं शिवम् सुन्दम् घोष के साथ, आचार्य वीर भद्र भैरव ने अपनी वाणी को विराम दे दिया।
महर्षि पुलस्त्य की भूलोकदृष्टि-18
मंडप हर हर महादेव के जयघोष से गूँज उठा । जिससे भूलोक केन्द्रित महर्षि पुलस्त्य का ध्यान भंग हो गया,जहाँ वे देख रहे थे-कोरोना कुल भूषण कोविद-19 का प्रकोप बढ़ रहा था। वर्तमान महाव्यापद का कारक विषाणु कोरोना समूह के एक नये विषाणु के रुप में की गयी है,जिसे विज्ञानविदों ने कोविड-19 नाम दिया है। आज भूलोक कालगणना में वैशाख मास की शुक्ल द्वितीया, संवत-2077,युगाब्द 5122. 24 अप्रैल 2020 ई. का दिन है।समस्त भूलोक में 27 लक्ष मनुष्य व्यापद ग्रस्त तथा एक लक्ष 90 सहस्र कालग्रस्त हो चुके हैं। भारत खण्ड में 23 सहस्र व्याधिग्रसित व 700 कालकवलित हुए हैं।ऋतु में व्यतिक्रम है,ग्रीष्म काल में वर्षा हो रही है,जो इस प्रकृति के व्याधियों के अनुकूल है।व्यापद चिकित्सा में स्त्री शक्ति की प्रबल भागीदारी है।
चीन व भारत में व्यापारिक तनाव के बीच विनिमय संबंध बना हुआ है। भूलोक व भारत में समृद्ध-दरिद्र की मध्य रेखा स्पष्ट हो रही है।स्तम्भन के पश्चात के जीवन का चिंतन कर लोग भय-विषाद से घिरे हुए हैं।जीविकोपार्जन के संसाधन छिन रहे हैं। सम्पन्न लोग-विपन्न होने की आशंका में है।विपन्न जीने के लिए आशंकित है। व्यापद काल में भी विभिन्न देशों के राजा,महाराजा अपनी सत्ता के प्रति सतर्क हैं।
रोगप्रतिरोधक वैक्सिन का चीनी परीक्षण असफल हो गया है,पर भारत के मध्यप्रदेश में दिल्ली सम्राट का प्रयोग सफल हो गया है।विपक्ष की सरकार गिर गयी है,केन्द्र पक्ष की सरकार बन गयी है।केन्द्रीय शासक दल मुदित है। संयुक्त राष्ट्र मंडल ने कोरोना काल के बहाने मानवाधिकारों के भंजन की आशंका प्रकट की है,अभी महर्षि भूलोक पर देख ही रहे थे कि श्रीवाक् मंडप के कोलहल से महर्षि वार्ता क्रम को पुनः गति देने के लिए सूत्रधार पटल पर प्रस्तुत हो गये।
Dr.R.Achal
Chief Editor-Eastern Scientist Journal
Regional Coordinator (UP) World Ayurveda Congress General Secretary UP chapter
Vijnana Bharati
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