लंदन डायरी : ये क्या ग़ज़ब है आदमी इन्साँ नहीं होता

शिव कांत

शिव कांत, बीबीसी हिंदी रेडियो के पूर्व सम्पादक, लंदन से 

कोरोनावायरस कोविड-19 की महामारी को शुरू हुए महज़ 125 दिन ही हुए हैं। इतने से अरसे के भीतर ही 19 लाख लोग बीमार हो चुके हैं और एक लाख 15 हज़ार की मौत हो चुकी है। चीन से फैली इस महामारी की सबसे बुरी मार दुनिया के सबसे ताकतवर और अमीर देश अमरीका पर पड़ी है। दुनिया के हर तीन रोगियों में से एक और मरने वाले हर चार रोगियों में से एक अमरीका का है। अकेले अमरीकी राज्य न्यूयॉर्क में ही दुनिया में सबसे ज़्यादा लोग बीमार हो चुके हैं। महामारी की रोकथाम के लिए दुनिया भर में यातायात, कारोबार और सामाजिक मेलजोल बंद है। अर्थव्यवस्था ठप हो गई है और हर किसी को रोज़गार की चिंता है।

अच्छी ख़बर यह है कि पिछले सप्ताह भर से यूरोप के सबसे बुरी तरह प्रभावित देशों, इटली और स्पेन में नए रोगियों और मरने वाले रोगियों की संख्या घट रही है। ब्रिटन, फ़्रांस और अमरीका में भी अब नए रोगियों की संख्या घटने लगी है जिसे आशा की एक किरण के रूप में देखा जा रहा है। पाबंदियाँ हटा कर जनजीवन और अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर लाने की योजनाएँ बनने लगी हैं।

इसलिए अब वक़्त आ गया है कि हम कोविड-19 के बारे में जितना जान सकें जानें। ताकि टीका उपलब्ध होने तक अपने काम भी कर सकें और वायरस की रोकथाम भी। हमें समझना होगा कि कोविड-19 वायरस में ऐसा क्या है जो उसे ज़ुकाम के दूसरे वायरसों की तुलना में इतना ख़तरनाक बनाता है। यह कितनी तेज़ी से फैलता है और क्यों? क्या हमारे शरीर का इम्यून सिस्टम यानी रोग रक्षा प्रणाली इसका बिल्कुल मुकाबला नहीं कर पाती? क्या पहले से मौजूद एंटी वायरल दवाओं से इसका इलाज नहीं हो सकता? यह वायरस आया कहाँ से और भविष्य में इस तरह के कोरोना वायरसों की रोकथाम का असली उपाय क्या है?

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कोविड-19 वायरस की ख़ासियत यह है कि यह अपने साथी वायरसों की तुलना में बहुत तेज़ी से फैलता है। इसकी वजह इस वायरस के उन नुकीले प्रोटीनों में छिपी है जिनसे इसका खोल बना होता है। हर वायरस अपने खोल के प्रोटीनों के ज़रिए दूसरे जीव की कोशिका में प्रवेश करता है। कोशिका में प्रवेश करने के लिए वायरस को पहले अपने खोल के प्रोटीन को एक एंज़ाइम के ज़रिए काटना पड़ता है। उसके बाद वह कोशिका में प्रवेश कर जाता है। कोशिका वायरस के जीन को अपने जीन समझ कर उसकी नकलें बनाने लगती है। यानी पूरी कोशिका हाइजैक हो जाती है और ज़िंदा वायरस में तबदील हो जाती है। उसके बाद वह दूसरी कोशिकाओं को भी हाइजैक करने लगती है और वायरस फैलने लगता है।

लेकिन कोविड-19 के पास कोशिकाओं में घुसने की एक नई तरक़ीब है। यह वायरस कोशिका के पास जाने से पहले ही अपने खोल के प्रोटीन को काटे रहता है और कोशिका से संपर्क होते ही उसमें प्रवेश कर जाता है। प्रवेश की प्रक्रिया में एक कदम कम हो जाने के कारण इसके संक्रमण यानी फैलाव की रफ़्तार बाकी कोरोना वायरसों से कई गुना हो गई है। मिसाल के तौर पर यदि सार्स, मर्स और इबोला के वायरसों के संक्रमण की रफ़्तार की तुलना कोविड-19 की रफ़्तार से करें तो आप अवाक् रह जाएँगे। महामारी फैलने के बाद पहले 20 दिनों के भीतर दुनिया में मर्स वायरस से मरने वालों की संख्या केवल पाँच थी, सार्स से मरने वालों की संख्या 62, इबोला से मरने वालों की संख्या 123 थी और कोविड-19 से मरने वालों की संख्या 170 थी। आप सोचेंगे ठीक है। कोविड-19 से मरने वालों की संख्या सबसे ज़्यादा थी लेकिन इतनी भी नहीं की अवाक् कर दे।

बस आम आदमी यहीं भूल कर जाता है। मैं पहले भी कई बार कह चुका हूँ। महामारियाँ गुणात्मक रफ़्तार से फैलती हैं और गुणात्मक रफ़्तार का अंजाम शुरू के तीन हफ़्तों के बाद ही नाटकीय रूप में सामने आता है। यानी कहानी 20 दिनों के बाद शुरू होती है। बीस से पचास दिनों के अरसे में, यानी अगले एक महीने के भीतर, मार्स से मरने वालों की संख्या पाँच ही रही, इबोला से मरने वालों की संख्या बढ़कर 167 हो गई, सार्स से मरने वालों की संख्या 391, लेकिन कोविड-19 से मरने वालों की संख्या उछल कर 2921 पर जा पहुँची। उसके बाद के दो महीनों की कहानी तो आप सब जानते ही हैं। कोविड-19 से मरने वालों की संख्या अब सवा लाख की तरफ़ बढ़ रही है। यानी कोविड-19 के फैलाव को कड़ी तालाबंदी के बिना रोक पाना असंभव था।

चीन को यही बात समझने में लगभग दो महीने का समय लगा। वूहान के वेट मार्किट या मछली बाज़ार की एक दुकानदार ने पिछले साल 11 दिसंबर को केंद्रीय अस्पताल में फ़ोन किया और कहा कि उसे बुख़ार और खाँसी हो गई है। 18 दिसंबर तक उसकी हालत इतनी बिगड़ गई कि उसे अस्पताल में दाख़िल होना पड़ा। 21 दिसंबर तक कई और लोग उसी बीमारी के शिकार होकर अस्पताल में भर्ती हुए। तब तक वायरस 15 लोगों में फैल चुका था। मरीज़ों पर कोई दवा काम नहीं कर रही थी। इसलिए डॉक्टरों ने 24 दिसंबर को रोगियों से वायरस का नमूना लेकर उसकी जेनेटिक जाँच शुरू की। 29 दिसंबर को वूहान के रोग नियंत्रण केंद्र ने बीमारी कहाँ से और कैसे फैली इस बात की खोजबीन शुरू की। उनको पता चला कि तब तक बीमार हुए 30 रोगियों में से अधिकांश वूहान के मछली बाज़ार में काम करते थे।

उसी समय वूहान के केंद्रीय अस्पताल के नेत्र चिकित्सक डॉ ली वेन्यंग को प्रयोगशाला से रिपोर्ट मिली कि इस बीमारी की जड़ सार्स जैसा कोई कोरोनावायरस है। ख़बर सोशल मीडिया पर फैलने लगी जिससे विवश होकर 31 दिसंबर को चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को बीमारी के बारे में बता दिया। चीन ने कहा कि बीमारी नियंत्रण में है। ज़्यादातर मरीज़ों को हल्की शिकायत है। कुछ एक को तो घर भी भेज दिया गया है। चीन के रोग नियंत्रण केंद्र ने मछली बाज़ार को बीमारी फैलाने का दोष देते हुए पहली जनवरी को उसे बंद कर दिया। 

जाँच के लिए वायरस का नमूना लेने के महज़ दो सप्ताह बाद, सात जनवरी को चीनी अधिकारियों ने वायरस की पहचान कर ली और बताया कि यह वायरस सार्स प्रजाति का ज़रूर है परंतु बिल्कुल नया है। जनवरी के मध्य तक वायरस दर्जनों ऐसे लोगों में फैल चुका था जिनका मछली बाज़ार में आना-जाना नहीं था। फिर भी चीनी अधिकारी इसी बात पर अड़े रहे कि कोविड-19 से वही लोग बीमार हैं जो मछली बाज़ार गए थे। उनका कहना था कि यह वायरस जानवरों से ही इंसानों में फैलता है। इंसानों से इंसानों में नहीं फैलता क्योंकि अभी तक रोगियों की देखभाल में लगा कोई भी स्वास्थ्य कर्मी इस वायर से बीमार नहीं हुआ है। अफ़सोस की बात यह है कि विश्वस्वास्थ्य संगठन भी चीनी अधिकारियों की हाँ में हाँ मिलाने अलावा कुछ नहीं कर रहा था।

15 जनवरी को जापान ने कोविड-19 के पहले मरीज़ की ख़बर दी और साथ में यह भी कहा कि रोगी कभी मछली बाज़ार नहीं गया था। वह अपनी चीन यात्रा के दौरान केवल किसी कोविड-19 से बीमार व्यक्ति से मिला था। लेकिन वूहान के स्वास्थ्य आयोग ने जापान की बात का खंडन करते हुए कहा कि इंसानी संक्रमण का कोई सबूत नहीं मिला है। वूहान से छह दिन पहले लौटा एक व्यक्ति 21 जनवरी को अमरीका के उत्तरी वॉशिंगटन राज्य में बीमार पड़ा और कोविड-19 का शिकार पाया गया। 22 जनवरी को जर्मन शहर श्टॉकपोर्ट से लौटी एक चीनी महिला कोविड-19 की रोगी पाई गई जिसके बाद जर्मनी में उससे मिलने वाले लोगों की खोज और जाँच शुरू हुई। उसी दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पहली बार माना कि कोविड-19 इंसानों से इंसानों में फैल रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन से एक और बड़ी भूल यह हुई कि उसके निदेशक ने मध्य जनवरी में यह कहा कि हवाई यातायात बंद करना सही नहीं है क्योंकि उससे वायरस की रोकथाम में कोई मदद नहीं मिलती। तो एक तरफ़ चीन और उसके सुर में सुर मिलाते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन 22 जनवरी तक यह कह रहे थे कि कोविड-19 इसांन से इंसान में नहीं फैलता। दूसरी तरफ़ विश्व स्वास्थ्य संगठन यह कह रहा था कि हवाई यातायात को बंद करने से वायरस की रोकथाम में कोई मदद नहीं होती। जबकि वायरस को इंसानों से इंसानों में फैलते हुए लगभग दो महीने हो चुके थे। मछली बाज़ार से वायरस पूरे वूहान और हूबे प्रांत के दूसरे शहरों तक फैल चुका था और वूहान से हवाई यात्राओं के ज़रिए थाइलैंड, जापान, जर्मनी और अमरीका के शहरों में पहुँच चुका था।

चीन दुनिया को भले ही इस झाँसे में रखे हुए था कि कोविड-19 इंसानों से इंसानों में नहीं फैल रहा है। लेकिन वूहान और हूबे की ज़मीनी हक़ीक़त उसे मालूम थी। इसलिए 23 मार्च को चीनी नए साल से दो दिन पहले उसने वूहान को सीलबंद कर दिया। हवाई उड़ानों को छोड़ कर सारा यातायात, बाज़ार, कारोबार, स्कूल सब कुछ बंद कर दिया गया और लोगों को घरों से बाहर न निकलने के सख़्त आदेश दे दिए गए। छह करोड़ लोग पूरी तरह बाकी चीन के काट दिए गए और सारे देश के स्वास्थ्य कर्मियों, पार्टी कार्यकर्ताओं और सैनिकों को वूहान के बंदोबस्त और देखभाल में झोंक दिया गया।

दुनिया के इतिहास में इतने बड़े पैमाने पर इतनी आकस्मिक और कड़ी सीलबंदी कभी नहीं हुई। चीन समझ चुका था कि कोविड-19 की रोकथाम का इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है। इतने सख़्त और नाटकीय कदम के बावजूद चीन में 3340 लोगों की जान गई और 82 हज़ार से ज़्यादा लोग बीमार पड़े। इंसानों के ज़रिए वायरस फैलने की बात को कल तक नकारने वाले चीन के इस नाटकीय कदम से जागते हुए दक्षिण कोरिया ने स्वास्थ्य टीमें सड़कों पर उतार कर लोगों के टैस्ट करने और देगू प्रांत को पूरी तरह सीलबंद करने की नीति अपनाई। पचास हज़ार टैस्ट प्रतिदिन की रफ़्तार से टैस्ट करते हुए जिन्हें रोगी पाया गया उनके आसपास के इलाकों को सीलबंद किया गया जिसकी वजह से वायरस बहुत ज़्यादा नहीं फैल पाया।

यूरोप में जर्मनी ने पहले रोगी की सूचना मिलते ही श्टॉकपोर्ट शहर को सीलबंद किया और उन सभी लोगों और उनसे मिलने वालों की खोजबीन कर उन सब को सीलबंद किया जो रोगी से मिले थे। जहाँ-जहाँ रोगियों की सूचना मिलती गई उन-उन इलाकों को सीलबंद करके उनके संपर्क जाल को खोजने और क्वारंटीन करने की प्रक्रिया जारी रखी। साथ ही बीमारों की देखभाल के लिए ICU बिस्तरों और वेंटिलेटरों की संख्या बढ़ाई जिसकी बदौलत दूसरे यूरोपीय देशों की तुलना में कम मौतें हुईं। लेकिन चीन की तरह सख़्त तालाबंदी न कर पाने के कारण जर्मनी भी रोग के फैलाव पर अंकुश नहीं रख पाया और रोगियों की संख्या बढ़ती गई।

इटली, स्पेन, फ्रांस, ब्रिटन, ईरान और अमरीका की सरकारों ने चीन और दक्षिण कोरिया से कोई सबक नहीं सीखा। ब्रिटन, स्पेन, फ़्रांस और अमरीका ने तो टैस्ट कराने में भी कंजूसी बरती जिसका नतीजा आप सब के सामने है। एक और बात समझना ज़रूरी है कि बड़े पैमाने पर टैस्ट कराओ कहना जितना आसान है, करना उतना की मुश्किल और ख़र्चीला है। सबसे ज़्यादा प्रामाणिक और प्रचलित PCR टैस्ट है जिसके लिए नाक और गले से वायरस के नमूने लेकर प्रयोगशाला में भेजे जाते हैं। वहाँ मशीनों में वायरस के नमूने को लाखों गुना बढ़ाकर ख़ास किस्म के रासायनिक घोल से तय किया जाता है कि व्यक्ति के शरीर में वायरस है या नहीं। कई बार वायरस होते हुए भी नमूने या टैस्ट प्रक्रिया की चूक की वजह से भी उसका पता नहीं चलता।

PCR टैस्ट का नतीजा मिलने में दो-तीन दिन लग जाते हैं। लाखों-करोड़ों लोगों के टैस्ट करने के लिए देशों के पास न तो पर्याप्त स्वास्थ्य कर्मी हैं और न ही प्रयोगशालाएँ। इसलिए पिछले दो-तीन महीनों से दुनिया भर की कंपनियाँ झटपट किस्म के टैस्ट तैयार करने में लगी हैं। ये ऐसे टैस्ट होंगे जिन्हें आप अपने-अपने घरों में कर सकेंगे और पता लगा सकेंगे कि आप वायरस से मुक्त हैं या नहीं। लेकिन इन टैस्टों का फ़ायदा भी तभी होगा जब आप रोगी पाए जाने वाले लोगों को, उनके आस-पास के इलाकों को, उनके संपर्क में आए लोगों को और उनके आसपास के इलाकों को सीलबंद करके उनके भी टैस्ट कर सकेंगे और रोगी पाए जाने वालों को कम से कम दो हफ़्ते तक एकांतवास में रख सकेंगे। भारत जैसे देश में यदि आप लाखों टैस्ट करा भी लें तो क्या आप उनके बाद रोगी मिलने वाले लाखों लोगों और उनके इलाकों को क्वारंटीन में रख पाँएगे?

अब सवाल उठता है कि दुनिया के वैज्ञानिक मिलजुल कर इन सारी समस्याओं से बचाने वाला उपाय कोविड-19 का टीका बनाने पर क्यों नहीं जुट जाते? जवाब है कि वे जुटे हुए हैं। अमरीका, यूरोप, चीन और जापान की लगभग 35 प्रयोगशालाएँ इसी काम में जुटी हैं। अमरीका में सियाटल की एक कंपनी ने तो रोगियों पर अपने टीके का परीक्षण भी शुरू कर दिया है। टीके आम तौर पर निष्क्रिय या मरे हुए वायरस के हिस्सों से बनाई जाती है। मरे हुए वायरस से बीमारी फैलने का ख़तरा नहीं होता लेकिन हमारी रोगरक्षा प्रणाली उसे वायरस समझ कर सक्रिय हो जाती है और शरीर में एंटीबॉडी बनाने लगती है।

लेकिन लंदन के इंपीरियल कॉलेज के वैज्ञानिक एक ऐसा टीका बनाने की कोशिश कर रहे हैं जो पूरी तरह कृत्रिम होगा। यानी उसमें वायरस का कोई अंश नहीं होगा, न जीवित और न मरा हुआ। प्रयोगशाला में तैयार किए बैक्टीरिया से कोविड-19 के उस नुकीले प्रोटीन की नकल तैयार की जा रही है जिनसे वायरस का खोल बना होता है। चूँकि बैक्टीरिया से बने इस प्रोटीन की जीन संरचना एकदम वही है जो कोविड-19 के नुकीले प्रोटीन खोल की होती है। इसलिए हमारी रोगरक्षा प्रणाली उसे कोविड-19 समझेगी और एंटीबॉडी बनाना शुरू कर देगी। यदि यह टीका कामयाब हो जाता है तो एक तो यह एकदम सुरक्षित होगा क्योंकि इसमें वायरस का कोई अंश है ही नहीं। दूसरे बैक्टीरिया से बना होने के कारण इसका बड़े पैमाने पर जल्दी उत्पादन भी किया जा सकेगा। लेकिन किसी भी टीके के बनने और बाज़ार में आने में कम से कम छह महीने से एक साल का समय लगेगा।

तब तक क्या होगा? उसके लिए वैज्ञानिक रोगियों को अलग-अलग दवाएँ और उनका मिश्रण देकर प्रयोग करने में लगे हैं। इनमें मलेरिया के लिए इस्तेमाल होने वाली भारत निर्मित दवा हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन और ज़ुकाम के लिए दी जाने वाली जापानी दवा एविगन के नाम प्रमुख हैं। दोनों दवाओं के प्रयोग अमरीका, चीन और जापान में चल रहे हैं। फ़्रांस की दवा नियंत्रण एजेंसी का कहना है कि हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन देने से कोविड-19 के कुछ रोगियों को दिल की बीमारियों की शिकायत होने लगती है। लेकिन चीन और अमरीका में हुए दूसरे कुछ परीक्षणों में उसे लाभकारी भी माना गया है। ऐसी ही कुछ दवाओं के मिश्रण से वायरस का मुकाबला करने की कोशिश की जाएगी।

साथ ही बहुत सी कंपनियाँ कोविड-19 के एंटीबॉडी टैस्टों के विकास में भी लगी हैं। ये टैस्ट रोगियों का पता के तो काम के नहीं हैं क्योंकि वायरस लगने के बाद शरीर में एंटीबॉडी बनने में कम से कम दस-बारह दिन लग जाते हैं। लेकिन एंटीबॉडी टैस्ट यह बता सकते हैं कि जिसके शरीर में एंटीबॉडी पाए जाएँ वह वायरस का सामना कर चुका है और कुछ समय तक उसके वायरस से बीमार पड़ने का ख़तरा नहीं है। क्योंकि कोविड-19 एकदम नया वायरस है इसलिए कुछ वैज्ञानिकों का अनुमान है कि उसके प्रति बनने वाली इम्यूनिटी एक साल या उससे भी लंबे अरसे तक चल सकती है। जिनके शरीरों में एंटीबॉडी पाए जाएँ उन्हें एंटीबॉडी प्रमाणपत्र देकर काम पर भी भेजा जा सकता है। क्योंकि ऐसे लोगों को कोविड-19 होने का ख़तरा ना के बराबर है। इसके अलावा इन टैस्टों से यह भी पता चल जाएगा कि सारे प्रयासों के बावजूद वायरस कितना फैला है।

अब असली सवाल यह है कि नए वायरस टैस्ट बनाने, एंटीबॉडी टैस्ट कराने, मौजूदा दवाओं का मिश्रण लेने और कोई असरदार टीका बना लेने से भी हम कोरोना वायरसों के हमलों कब तक बच पाएँगे? कोविड-19 आया कहाँ से? क्या टीका बनाने के साथ-साथ हमें इसकी जड़ों को नहीं उखाड़ना चाहिए?

इसका जवाब यह है कोविड-19 के और चमगादड़ों में पाए जाने वाले कोरोनावायरस के बीच 96 प्रतिशत समानता है। इससे लगता है कि सार्स, मर्स और इबोला के वायरसों की तरह कोविड-19 भी चमगादड़ों से ही आया है। लेकिन सीधे नहीं, किसी बिचौलिए जानवर के रास्ते आया है। जैसे मर्स का वायरस भी चमगादड़ों से पहले ऊँटों को लगा। फिर ऊँटों से इंसानों को लगा। इसी तरह कोविड-19 भी चमगादड़ों से पैंगोलिनों में फैला और उनसे इंसानों में फैला है। 

पैंगोलिन विशालकाय नेवले जैसा जानवर है जिसकी कमर और पूँछ पर कछुए जैसी ढाल चढ़ी होती है। यह रात का जानवर है। पेड़ों के खोखलों में रहता है और दीमक और चींटियों को खाता है। चमगादड़ भी रात को ही जगते हैं और पेड़ों में रहते हैं इसलिए इन दोनों का साथ स्वाभाविक है। इसके अलावा वूहान के जिस मछली बाज़ार से कोविड-19 फैला था वहाँ चमगादड़ भी बिकते हैं और ज़िंदा पैंगोलिन भी। ख़ून-चर्बी-आँत और बर्फ़ की कीचड़ के जिस माहौल में ये प्लास्टिक के जालों में पड़े तड़पते रहते हैं, वहाँ वायरसों का एक से दूसरे को लग जाना और रूप बदल जाना साधारण सी बात है।

चीन और दक्षिण पूर्वी एशिया के मछली बाज़ारों की बात ही क्यों, इंटेंसिव या सघन फ़ार्मिंग के लिए जहाँ-जहाँ जानवरों और पक्षियों को लाखों की तादाद में तंग बाड़ों और पिंजरों में ठूँस कर रखा जाता है वहाँ-वहाँ नित नए वायरसों के पनपने और बदलने की संभावना बनी रहती है। बार-बार फैलने वाली स्वाइन फ़्लू और एवियन या बर्ड फ़्लू की महामारियाँ इसी इंटेंसिव फ़ार्मिंग के लिए मुर्गियों और सूअरों को तंग जगह में बर्बरता से ठूँस कर रखने की वजह से फैलती हैं। गायों में फैलने वाली BSE या मैड काऊ डिज़ीज़ भी इसी का नतीजा थी जिस के इंसानों में फैलने की बात पर लीपा-पोती कर दी गई थी। इसी तरह कोविड-19 की महामारी के डर से फिलहाल तो चीन ने मछली बाज़ार बंद कर दिए हैं। लेकिन क्या गारंटी है कि कोविड-19 के आतंक का साया ढलते ही वही सब फिर शुरू नहीं हो जाएगा? अब क्या कहें। ख़ुमार बाराबंकवी साहब का शेर है:

सभी कुछ हो रहा है इस तरक़्क़ी के ज़माने में,

मगर ये क्या ग़ज़ब है आदमी इन्साँ नहीं होता।

कृपया यह भी पढ़ें :

https://mediaswaraj.com/harvard_yog_meditation_corona/1577

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