जलवायु के दुश्मन दुनिया को बचने देंगे?
संभव है कुछ दशक के बाद गंगा और यमुना जैसी नदियों में ग्लेशियरों के समाप्त हो जाने के कारण पानी आना बंद हो जाये। दूसरी ओर भारी वर्षा और बाढ के कारण फसलों का नुकसान काफी बढता जा रहा है। इससे किसान बर्बाद हो रहे हैं। बेरोजगारी और विस्थापन बढ रहा है।
-रामशरण
31 दिसंबर से ग्लासगो (ग्रेट ब्रिटेन) में COP26 विश्व पर्यावरण सम्मेलन हो रहा है। इसमें चीन को छोड़कर दुनिया के अधिकांश राजप्रमुख शामिल हो रहे हैं। इसे दुनिया को बचाने का आखिरी मौका माना जा रहा है। दुनिया में बढते प्रदूषण को लेकर यह छब्बीसवां अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन है, पर इतने वर्षों के प्रयास के बावजूद अपेक्षित परिणाम क्यों नहीं निकल रहे हैं? उद्घाटन भाषण में ही ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जानसन ने सरकारों के अलावा कारपोरेट जगत को भी सहयोग करने की अपील की।
विगत कुछ वर्षों में पूरी दुनिया में एक ओर भारी वर्षा, तूफान और बाढ आ रही है वहीं दूसरी ओर गर्मी और लू का प्रकोप भी बढा है। भारत में भी गर्मी बढने के कारण ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार तेज हो गई है। संभव है कुछ दशक के बाद गंगा और यमुना जैसी नदियों में ग्लेशियरों के समाप्त हो जाने के कारण पानी आना बंद हो जाये। दूसरी ओर भारी वर्षा और बाढ के कारण फसलों का नुकसान काफी बढता जा रहा है। इससे किसान बर्बाद हो रहे हैं। बेरोजगारी और विस्थापन बढ रहा है। देश की खाद्य आत्मनिर्भरता संकट मे है। चाय आदि का उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। गर्मी के कारण मजदूरों के लिए काम करना मुश्किल होता जा रहा है। मछुआरे भी तबाह हो रहे हैं। डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारी का खतरा बढता जा रहा है। गर्मी बढने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और समुद्र बढकर तट पर मौजूद गांव और शहरों को निगलता जा रहा है। बिहार ही नहीं, असम, उत्तराखंड से लेकर केरल तक के शहरी इलाके भी बाढ से तबाह हो रहे हैं। भारत मे गतवर्ष 83 अरब डॉलर का नुकसान होने का अनुमान है। यही हाल पूरी दुनिया का है। इसके बावजूद जलवायु संरक्षण के ठोस उपाय क्यों नहीं किये जा रहे हैं?
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जानसन ने कबूला है कि इसी ग्लासगो में जब जेम्स वाट ने कोयला से चलनेवाले इंजन का आविष्कार किया था, तब से ही जलवायु प्रदूषण की समस्या प्रारंभ हुई। पर्यावरण सम्मेलन का प्रमुख लक्ष्य है कि इस औद्योगिक क्रांति के पहले जितनी ठंढक थी उसके करीब ही रहा जाये। ज्यादा से ज्यादा गर्मी 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोक लग जाये। लेकिन औद्योगीकरण के कारण गर्मी 2.0 डिग्री के आसपास पहुंच रही है, जो बहुत खतरनाक है। औद्योगीकरण का भूत उर्जा के खुराक पर ही चलता है। यह उर्जा कोयला, तेल और गैस जलाने से ही मिलती है। बांध बनाकर और परमाणु संयंत्रों से भी उर्जा मिलती है, पर वह और भी ज्यादा खतरनाक है। एकमात्र विकल्प सोलर उर्जा, वायु उर्जा आदि नवीकरणीय उर्जा ही हैं। लेकिन खतरे को समझते हुए भी इस ओर कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं?
वास्तविकता यह है कि औद्योगिक समूह इसमें आड़े आ रहा है। उद्योगपतियों के दबाव में ही ट्रंप ने अमेरिका को इस प्रयास से अलग कर दिया था। लेकिन अमेरिका पर आरहे प्राकृतिक प्रकोपों से परेशान जनता ने वर्तमान सरकार को फिर से इस अभियान मे शामिल होने के लिए बाध्य कर दिया, जो बहुत अच्छी बात है। जनदबाव के कारण ही यूरोप जलवायु मामले में ज्यादा संवेदनशील है। पर भारत जैसे विकासशील देश अभी भी इस समस्या पर उचित कदम नहीं उठा रहे हैं। यह सही है कि आयात खर्च को कम करने केलिए बिजली चालित गाडिय़ों को बढावा दिया जा रहा है। तेल के दाम बढने से ऐसी गाडिय़ां लोकप्रिय भी हो रही हैं। इससे प्रदूषण घटेगा पर बिजली उत्पादन तो ज्यादातर कोयला जलाकर ही होता है। लोहा आदि के कारखानों मे भी कोयले का भारी उपयोग होता है। चीन,अमेरिका और भारत दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं। चीन ने घोषणा किया है कि वह भविष्य में कोयला आधारित बिजली संयंत्र नहीं लगायेगा। लेकिन भारत अभी भी कोयला आधारित संयंत्रों को और कोयला खदानों को बढाने की कोशिश मे है। इससे बड़ी संख्या में जंगलों का और उनपर निर्भर आदिवासियों का विनाश होगा। कोयला चालित बिजलीघर सिर्फ हवा ही नहीं पानी और फसलों को भी प्रभावित करते हैं। इनपर रोक लगना सबसे आवश्यक है।
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लेकिन भारत के उद्योगपति भी जलवायु संरक्षण के खिलाफ हैं। उन्हें लगता है कि उनका विकास रुक जायेगा। लेकिन वर्तमान पद्धति से होनेवाला विकास टिकाऊ नहीं होगा। जब कुछ वर्षों में कोयला, तेल और गैस खत्म हो जायेगा तो विकास कैसे होगा? प्रदूषण का प्रभाव अलग से होगा? जलवायु परिवर्तन पर बने अंतरराष्ट्रीय पैन (IPCC) ने इस सम्मेलन के पुर्व सुझाव दिया है कि 2050 तक पूरी दुनिया में नेट जीरो प्रदूषण कायम कर दिया जाये। यानि कि जो देश जितना प्रदूषण करे उतना ही उस प्रदूषण को सोखने की भी व्यवस्था करे। भारत का दावा है कि यहां जंगल बढे हैं ,पर दुनिया भर के विशेषज्ञ मानते हैं कि यहां जंगल घट रहे हैं। खदानों और उद्योग लगाने के लिए और भी जंगल काटे जायेंगे। इसलिए यहां के उद्योगपति इसका विरोध कर रहे हैं। हाल ही मे एक थिंक टैंक “काउंसिल फार इनर्जी, इन्वायरमेंट एण्ड वाटर” (SEEW) ने मोदी सरकार को अपील किया कि वह 2050 मे नेट जीरो स्वीकार नहीं करे। इसे 2070 तक टाल दिया जाये। मोदीजी ने इसे स्वीकार कर लिया और ग्लासगो में घोषणा कर दी की भारत 2070 में नेट जीरो जारी करेगा। इसका असर अन्य देशों पर भी पड़ेगा। ध्यान देने की बात है कि इस थिंक टैंक SEEW के प्रमुख प्रसिद्ध उद्योगपति जमशेद गोदरेज जी हैं। इससे उद्योगपतियों की मनसा स्पष्ट होती है।
इसीलिये यह आवश्यक है कि ऐसे षड्यंत्रों के खिलाफ भारत के पर्यावरणवादी एकजुट हों।
(लेखक रामशरण गंगा मुक्ति आन्दोलन से जुड़े हैं।)