नदियों को बाजार की वस्तु बनाने की साजिश

नदी न केवल स्वच्छ जल का प्रवाह बनाए रखने में एक अहम भूमिका अदा करती है, बल्कि वर्षा या हिमपात के जरिए, हिम संपदा, जिसमें ग्लेशियर भी शामिल हैं, सतही पानी और भूमिगत जल-भंडारों के बीच एक आवश्यक संतुलन बनाने का काम भी करती है।

डा. सीताराम टैगोर

भारतीय संस्कृति तो नदियों को पोषणकारी मां मानकर व्यवहार करती रही है। आज की शोषणकारी सभ्यता नदियों का इस्तेमाल उद्योगों के लिए मालगाड़ी की तरह करती है। नदियों को बाजार की बस्तु बनाने की साजिश दिखती है। इस साजिश को रोकना हमारे समय का सबसे जरूरी काम है। नदियों का अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण रोकने वाली नीतियां कभी नहीं बनीं। हमने नदी नीति तैयार की है। नदियों के लिए अगर कोई नीति हो, तो ऐसी होनी चाहिए।

भूमिका :

नदी सिर्फ बहते स्वच्छ जल की धारा नहीं है। यह एक परिपूर्ण जलतंत्र, भूआकृति, पारिस्थितिकी तंत्र और जैव-विविधता संपन्न व्यवस्था होती है। यह न केवल स्वच्छ जल का प्रवाह बनाए रखने में एक अहम भूमिका अदा करती है, बल्कि वृष्टिपात (वर्षा या हिमपात के जरिए), हिम संपदा (जिसमें ग्लेशियर भी शामिल हैं), सतही पानी और भूमिगत जल-भंडारों के बीच एक आवश्यक संतुलन बनाने का काम भी करती है। इसके साथ ही नदी अपने आस-पास पड़ने वाले समाजों और पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय एवं आर्थिक सुविधाएं भी प्रदान करती है। उक्त बात कुछ पेचीदा महसूस हो सकती है, लेकिन तथ्य यही है कि नदी एक बेहद जटिल और खूबसूरत प्राकृतिक व्यवस्था होती है, जो अपने रास्ते में न जाने कितने सारे कामों को अंजाम देती जाती है! ज्यादातर नदियों को कभी न कभी बांधों में बांधा गया है और वे बार-बार तबाह होती रही हैं। बहुत सारी नदियां इतनी प्रदूषित हो चुकी हैं कि उनके पास आप खड़े भी नहीं हो सकते, उनमें नहाने और उनका पानी पीने की बात तो सोचना भी दूर है।

हमारे देश में नदियों के रख-रखाव और संचालन पर सरकार का ही एकाधिकार है। दुर्भाग्यवश यह व्यवस्था, उदासीन, गैर-पारदर्शी, गैर-सहभागी और लोगों के प्रति गैर-जवाबदेह रवैये की शिकार है। राज्य तंत्र का रवैया न केवल गैर-सहभागी और गैर-संवेदनशील रहा है, बल्कि वह अपनी गलतियों से सबक लेने को भी तैयार नहीं है। राज्य तंत्र ने नदियों या उनसे मिलने वाली सेवाओं को कभी कोई महत्व नहीं दिया। उसके लिए नदी सिर्फ एक संसाधन है, जिसका दोहन किया जा सकता है; उसके स्थायी अस्तित्व के बारे में परवाह करने की जरूरत नहीं है। प्रदूषण नियंत्रण तंत्र को ज्यादा से ज्यादा अकुशल और भ्रष्ट ही कहा जा सकता है। भारत की एक भी नदी को प्रदूषण मुक्त करने का श्रेय उसके खाते में नहीं जाता। हिमाचल प्रदेश में जारी की गई एक अधिसूचना को छोड़ कर इस देश में एक भी कानून नहीं है, जो इस बात पर जोर देता हो कि नदियों में पूरे साल ताजे पानी का प्रवाह बनाए रखना अनिवार्य है। जब सरकार बांधों, जल विद्युत परियोजनाओं, खादर क्षेत्र में घुसपैठ या पानी के बहाव की दिशा मोड़े और सीवेज तथा गंदगी को नदियों के पानी में फेंकने की योजनाओं को मंजूरी देती है, तो वह इन नदियों से मिलने वाली असंख्य सेवाओं का खयाल नहीं करती। ये सारी ऐसी कार्रवाइयां हैं, जो अंततः नदियों को मौत की तरफ धकेल देती हैं।

नदी नीति का दृष्टिकोण

नदी हमारी धरती की नाड़ी है। इनके साथ कहीं भी कुछ भी बुरा काम होता है, तो इसका असर पूरी भूसांस्कृतिकता व प्रकृति को बिगाड़ता है। आज नदियों पर अतिक्रमण से बाढ़ और सुखाड़ बढ़ा है। प्रदूषण से बीमारी आई है। भूजल शोषण से पेयजल का संकट खड़ा हो गया है। किसी भी शहर-गांव में अब नदी मूल स्वरूप में नहीं बची है। कहीं का भी गंदा और दूषित जल नदी को नाले में बदल देता है। नदी की भूमि में बनने वाले मकान, होटल, रिसोर्ट तथा सीमेंट-कंकरीट से निर्मित नालियों, नालों एवं नदी किनारों का बदलना भी नदियों को नाला ही बना रहा है। इससे नदी की आजादी नष्ट हुई है। नदियों के किनारे बसे शहरों की गंदगी से नदियों का मूल व पवित्र स्वरूप नष्ट हुआ है।

भारतीय संस्कृति तो नदियों को पोषणकारी मां मानकर व्यवहार करती रही है। आज की शोषणकारी सभ्यता नदियों का इस्तेमाल उद्योगों के लिए मालगाड़ी की तरह करती है। नदियों को बाजार की बस्तु बनाने की साजिश दिखती है। इस साजिश को रोकना हमारे समय का सबसे जरूरी काम है। नदियों का अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण रोकने वाली नीतियां कभी नहीं बनीं। हमने नदी नीति तैयार की है। नदियों के लिए अगर कोई नीति हो, तो ऐसी होनी चाहिए।

नदी की परिभाषा

हिम, भूजल स्रोत एवं वर्षा के जल को उदगम से संगम तक स्वयं प्रवाहित रखती हुई जो अविरलता, निर्मलता और स्वतंत्रता से बहती है तथा सदियों से सूरज, वायु और धरती का आजादी से स्पर्श करती हुई जीव-सृष्टि से परस्पर पूरक और पोषक नाता जोड़कर जो प्रवाहित है, वह नदी है।

लक्ष्य :

भारत की नदियों का चरित्र बिगड़ गया है, उसे उनके मूल स्वरूप में लाकर नदी को उसकी परिभाषा के अनुरूप बनाना।

कारण :

  1. नदियां राज, समाज और सृष्टि की साझी हैं। साझे हित में इनकी सुरक्षा, संरक्षा, सांस्कृतिक, धार्मिक तथा सामाजिक आस्था की योजना बनाने वाली समाजोपयोगी मार्गदर्शिका बनाना ही इस नदी नीति निर्माण का उद्देश्य है।
  2. नदियों को ‘जल बाजार’ से बचाने के लिए उन्हें बड़े बांध, अतिक्रमण, शोषण और प्रदूषण से मुक्त रखना आवश्यक है। ‘जल बाजार’ वाली ताकतें पहले हमारी नदियों को मैला करती हैं, और फिर उसे साफ करने के नाम पर पैसा लगाकर अतिक्रमण करती हैं। जल को दूषित करके बोतल का जल खरीदने पर मजबूर करती हैं। हमारा ही जल हमें बिक्री करके हमारे जल और धन की लूट करती हैं। जल, धन तथा स्वास्थ्य की लूट रोकने हेतु नदी नीति आवश्यक है।
  3. नदी विवाद को का नीति के बिना समाधान नहीं है। विवादों के समाधान हेतु नदी नीति का निर्माण करना अत्यन्त आवश्यक है।
  4. स्वार्थी शक्तियां नदी नीति के विरूद्ध तनकर खड़ी हैं। उन्हें हटाकर पर्यावरण रक्षा एवं आस्था को कायम रखना है, तो भी नदी नीति का निर्माण अतिआवश्यक है। राज, समाज एवं संतों की अब पहली प्राथमिकता है, नदी पुनर्जीवित करने वाली नदी नीति बनाना। नदियों, उपनदियों, प्राकृतिक नालों का प्रबंधन स्थानीय समुदायों, जिला पंचायतों के स्तर पर किया जा सकता है। लेकिन नदियों को पुनर्जीवित करने का काम प्राथमिक तौर पर करना चाहिए।
  5. पृथ्वी की गर्मी व मौसम के मिजाज के साथ मिट्टी की नमी का नदी के जल प्रवाह से गहरा रिश्ता है। जब यह बिगड़ता है, तब जलवायु परिवर्तन का प्रभाव गहरा होता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सहने हेतु नदी नीति का निर्माण अत्यन्त आवश्यक है।

नदी नीति के सिद्धान्त

  1. नदियों की भूमि का सीमांकन, 100 साला बाढ़ क्षेत्र के अनुसार गजटेड डिमार्केशन तथा नोटीफिकेशन किया जाय। नदी के प्रवाह क्षेत्र तथा बाढ़ क्षेत्र का उपयोग नहीं बदला जाय। उद्गम से लेकर समुद्र तक नदी को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाय। सीमांकन के सीमा चिन्हों का पूरे समुदाय को पता हो।
  2. नदियों में किसी भी आबादी एवं उद्योग का प्रदूषित जल न डाला जाय। रिवर और सीवर को अलग रखने वाला सिद्धान्त अपनाया जाय।
  3. नदी जल को दूषित करने वालों के खिलाफ सूचना के आधार पर फौजदारी अपराध और अर्थदण्ड का प्रावधान किया जाय।
  4. नदियों की अविरलता-निर्मलता बनाए रखने के सभी उपाय किये जायं। बेसिन क्षेत्र का संरक्षण एवं नदी पुनर्जीवन को सुरक्षा प्रदान की जाय।
  5. नदियों में ‘पर्यावरणीय प्रवाह’ सुनिश्चित करने हेतु राज्य स्तरीय कानून बनाया जाय।

भारत की नदी नीति

1.1 नदी जल का उपयोग पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करके ही किसी दूसरे कार्यों में किया जायेगा। हमें विश्वास है कि समाज की आवश्यकता को पूरा करने के रास्ते में यह सिद्धान्त आड़े नहीं आएगा।

नदी नीति की सर्वोच्च प्राथमिकता नदी की अविरलता-निर्मलता कायम रखना है। नदी जल के उपयोग की प्राथमिकता तय की जानी चाहिए।

1.2 पर्यावरणीय प्रवाह की प्राथमिकता में परिवर्तन नहीं किया जायेगा। नदी जल व भूजल साझा सामाजिक संसाधन है। इसका नियोजन स्थानीय समुदाय के हाथ में हो। सामुदायिक नदी प्रबंधन पहले भी था, अब भी पुनः वहीं तंत्र खड़ा किया जाय।

सभी कौटुबिंक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और अध्यात्मिक संस्थाओं के जरिये नदी संरक्षण और नदी पुनर्जीवन के मूल्यों को नागरिक जीवन में स्थापित करने के लिए शासन की ओर से नदी, उपनदी अथवा स्थानीय प्राकृतिक नालों पर सभी को हर हफ्ते ‘स्वैच्छिक श्रम’ से जोड़ा जाय।

नदी जल के प्राकृतिक प्रवाह में वृद्धि

1.3.1 नदी के सभी संभावित एवं उपलब्ध जल संसाधन, स्थाई एवं अस्थाई जल स्रोत, सतही जल, भू-जल आदि की एक वृहद सूची तैयार की जाय। इन संसाधनों के मॉडल तैयार करने की क्षमता का विकास किया जाय।

1.3.2 जन सहभागिता से स्थानीय, सब-बेसिन, बेसिन तथा भूमिगत जलधर से संबंधित जल संसाधन एवं पर्यावरण विकास की योजनाएं बनाई जाय। भारत सरकार इस नीति द्वारा यह सुनिश्चित करायें कि भूसांस्कृतिक विविधता का सम्मान किया जायेगा।

1.3.3 प्रस्तावित नई परियोजनाओं का पर्यावरण मूल्यांकन, समाज पर उनके प्रभाव, उनकी पर्याप्तता, जल संसाधनों के संरक्षण और निरन्तर घटते भूजल के आधार पर किया जाय।

1.3.4 पुराने तालाबों-बावड़ियों-कुओं का जीर्णोदार कराया जाय तथा इनके कब्जे हटवायें जायं।

1.3.5 स्थानीय सतही जल के संग्रहण के समुचित उपाय प्राथमिकता के आधार पर किये जायं।

1.3.6 पारम्परिक जल संग्रहण संरचनाओं के संरक्षण और नई स्थानीय सरंचनाओं एवं नई तकनीक वाली स्थानीय लघु जल संग्रहण संरचनाओं के निर्माण को प्रोत्साहित किया जाये। छत के वर्षा जल के संग्रहण, अन्य वर्षा जल का संग्रहण, अपशिष्ट जल के पुनः उपयोग एवं चक्रण (रिसाइकिल) को प्रबल रूप से प्रोत्साहित किया जाये।

1.3.7 खेती हेतु जल के यथोचित उपयोग को प्रोत्साहित किया जाय।

1.3.8 सभी बेसिनों में उपचारित जल के पुनः उपयोग की तकनीकी एंव आर्थिक संभावनाओं का आंकलन किया जाये।

1.3.9 नदियों में गंदे नाले न मिलाये जायं। वर्षा जल व मल जल अलग-अलग रखा जाये। नदियों में पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित किया जाये। मल जल का उपचार करके खेती-बागवानी में उपयोग किया जाय।

1.3.10 कृषि हेतु भू-जल शोषण का इस प्रकार प्रबंधन किया जाये कि वह औसत दीर्घकालीन पुनर्भरण से ज्यादा न हो। भू-जल पुनर्भरण क्षमता का भी मूल्याकंन किया जाय, जिसमें जल-संकट वाले एवं अत्याधिक जल दोहन वाले क्षेत्रों पर विशेष जोर दिया जाय।

1.3.11 लवणीय भू-जल को काम में लेने योग्य बनाने हेतु उपलब्ध तकनीकों की विभिन्न परिस्थितियों में लागत-प्रभावकारिता का आंकलन किया जाय। इन तकनीकों को प्रायोगिक परियोजनाओं की मदद से क्षेत्रीय परिस्थितियों में जांचने हेतु उन इलाकों में लागू किया जाये, जहां पीने के पानी की या तो कमी है या जहां कोई अन्य जल स्रोत उपलब्ध नहीं है।

1.3.12 भू-जल के बेहतर उपयोग हेतु फव्वारा एवं बूंद-बूंद सिंचाई तकनीकों को प्रोत्साहित एवं और अधिक सुसाध्य बनाया जाय।

1.3.13 भारत भर में जल के अनुशासित उपयोग के संस्कार-दस्तूर-कानून-कायदे थे। उनमें समानता मूलक संशोधन के बाद उनका सम्मान किया जाये। जल पर सामुदायिक हक कायम करने वाली भारत की राष्ट्रीय जल नीति बने।

1.4 परियोजनाओं की संरचना एवं क्रियान्वयन

1.4.1 आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरण एवं वित्तीय आधारों पर नदी प्रवाह बढ़ाने की परियोजनाओं की प्राथमिकता निर्धारित की जाये।

1.4.2 यथा सम्भव परियोजना में सतही एवं भू-जल का एकीकृत उपयोग किया जाय।
1.4.3 जल क्षेत्र से संबंधित विभागों की तकनीकी सहायता से हितभागियों द्वारा भविष्य में जल मांग के मात्रात्मक अनुमान तैयार किए जांय।

1.4.4 आयोजन, निर्माण और परियोजना संचालन काल में जल परियोजनाओं के प्रभावों (सामाजिक एवं पर्यावरण पर प्रभावों सहित) की परियोजना से जुड़े प्राधिकारों द्वारा समीक्षा की जाये।

1.4.5 परियोजना की शुरूआत वृह्द जांच और विस्तृत परिकल्पना पर निर्भर करे, जिसमें सामाजिक एवं पर्यावरण संबंधी आयाम अहम होंगे।

  1. एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन

2.1 जल उपभोक्ताओं का संगठन एवं भागीदारी सुनिश्चित हो।

2.1.1 एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन को पूरे राष्ट्र में सामुदायिक समग्र जल प्रबंधन के लिए लागू किया जाय।

2.1.2 एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन के आधार पर पंचायती राज संस्थाओं द्वारा जल उपभोक्ता समूहों को जल विषयों में आवश्यक तकनीकी सहायता प्रदान की जाय।

2.1.3 बड़े एवं लघु जल उपयोगकर्ताओं द्वारा इन जल उपभोक्ता संगठनों के सदस्यों का चयन लोकतांत्रिक तरीके से उचित प्रतिनिधित्व द्वारा किया जाय।

2.1.4 एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन को प्रभावित किये बगैर राज्य सरकार एवं जल उपभोक्ता संगठनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने हेतु सहयोग स्थापित किया जाय।

2.1.5 जल संरक्षण हेतु सम्पूर्ण सामुदायिक चेतना जगाने के लिए संगठनों को उत्तरदायित्व सौंपा जाय और उनके माध्यम से अभियान चलाए जाय, जिसका प्रमुख लक्ष्य यह होगा कि भूजल का उपयोग वार्षिक उपयोग सीमा के अन्दर होगा।

2.1.6 अरवरी नदी जल संसद के अनुभवों के आधार पर अन्य नदी जल संसदों को बेहतर जल उपयोग के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की जिम्मेदारी दी जायेगी।

जल संसदों के निम्न दायित्व भी होंगे, परन्तु यह इन तक ही सीमित नहीं होंगे –

नदी जल विषयों पर सामुदायिक शिक्षा। कम जल में खेती करें। नदी जीवन कायम रखें। नदी का पर्यावरणीय प्रवाह कायम रखने के बाद ही आगे विचार किया जायं। ज्यादा बेहतर एवं समान आधार पर जल वितरण/सामान्य जल संसाधन प्रबंधन/आधारभूत ढांचे का संचालन एवं रख-रखाव/जल उपभोग के पूर्ण शुल्क की वसूली के चरणबद्ध प्रयास/आंकडे संग्रहण में सहयोग/हाइड्रोलॉजिक आंकड़ों का उचित प्रयोग/जल गुणवत्ता एवं जनस्वास्थ्य की समुचित रक्षा।

2.1.7 जल क्षेत्र के विभागों द्वारा जल संबंधित तकनीकी आंकड़े, निर्देशिका, सूचना आदि जल संसदों को प्रदान की जाये। कुशल डेटा वितरण, डेटा संग्रहण की निरन्तरता और आंकड़ों की गुणवत्ता पर नियंत्रण निरंतर रखा जाये। जल आंकड़े आसान और पारदर्शी समाजोपयोगी बनें।

2.2 नदी जल संसद के लिए संसाधन

2.2.1 प्रभावी जल संरक्षण, जल संसाधन प्रबंधन, जल गुणवत्ता संरक्षण आदि के लिए नदी जल संसदों को प्रशिक्षण हेतु तकनीकी, लाजिस्टिक एवं सामग्री रूपी सहायता प्रदान की जाये।

2.2.2 जल परियोजनाओं के आधुनिकीकरण के कार्यों में उन परियोजनाओं को प्राथमिकता दी जाये, जहां किसान, नदी जल संसदों से जुड़ने की इच्छा रखते हों।

2.2.3 छोटे सामुदायिक स्तर पर नदी जल संसदों में जल संसाधनों के प्रबंधन, संचालन, रख-रखाव एवं जल संरचना की शुल्क वसूली हेतु चरणबद्ध कार्यक्रम को लागू किया जाय।

2.2.4 जल संरचनाओं का प्रबंधन एवं उत्तरदायित्व निभाने हेतु जल उपभोक्ता समूहों को दिशा-निर्देश एवं आवश्यक सहायता प्रदान की जाये। भूमिहीन भी जल मालिक है, यह विश्वास पैदा करने वाले सामुदायिक जल संसाधन समुदायों को मान्यता दी जाय।

2.3 सामुदायिक स्तर पर तकनीकी प्रोत्साहन एवं सहायता

2.3.1 जल संसाधन आयोजना विभाग, जल संबंधित जानकारियों के प्रमुख स्रोत के रूप में कार्य करे एवं जल संसदों को क्रियाशील बनाने में योगदान दे।

2.3.2 जन जागरूकता हेतु एक अभियान चलाया जाय, जिसमें समुदायों को उनके विधिक सामर्थ्य, अधिकार, उत्तरदायित्वों एवं जल संसाधन प्रबंधन के सामान्य संसाधनों की जानकारी दी जाय।

2.3.3 सामुदायिक जल प्रबंधन के लिए बहु-विषयक तकनीकी सहायता को उच्च प्राथमिकता दी जाय। इसके साथ आवश्यक योजना जैसे जल संसाधन मॉडलिंग एवं नदी बेसिन/सब-बेसिन/जलघर प्रबंधन की निर्देशिका उपलब्ध करवाई जाय।

  1. सिंचाई पद्धति

3.1.1 सतही जलापूर्ति का प्रथम उद्देश्य उपलब्ध जल से ज्यादा से ज्यादा जमीन की सिंचाई करना होगा, भू-जल स्तर को दीर्घ कालीन नुकसान पहुंचाए बिना, भू-जल से सिंचाई का मूल उद्देश्य उपलब्ध जल से ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र की सिंचाई करना होगा। वर्तमान में भूजल शोषण को व्यैक्तिक अधिकार समझे जाने वाले अनियंत्रित तरीकों को हतोत्साहित किया जाय। इसके स्थान पर भूजल सामुदायिक दायित्व से दीर्घकालीन सामूहिक जल संसाधन बनाये रखा जाय, ताकि भूमिगत जलघर अधिक समय तक सामुदायिक संसाधन बने रहें।

3.1.2 न्यायसंगत और प्रभावी सिंचाई व्यवस्था लागू की जाय।

  1. जल संसाधन आधारभूत ढांचा

4.1.1 आंकड़ा संकलन की विश्वसनीयता, निरन्तरता, अभिलेखों का रख-रखाव एवं अन्य संबंधित तथ्यों के आधार पर राज्य में जल सर्वेक्षण से संबंधित माध्यमों एवं आंकडों के संग्रहण की समीक्षा की जाय।

4.1.2 भू-जल की स्थिति के अध्ययन हेतु बोरहोल्स एवं भूजल स्तर मापक यंत्रों की समीक्षा कर आवश्यकतानुसार सुधार किया जाये। मॉनीटरिंग की समीक्षा की जाय, जिससे बोरहोल्स के तंत्र एवं नक्शों में सुधार होगा।

4.1.3 सतही एवं भूजल संबंधित आंकड़ों को यथाशीघ्र जल उपभोक्ता समूहों तथा जिला एवं ब्लाक स्तर के मध्यवर्ती स्तरों तक पहुंचाने हेतु एक आधार संहिता का विकास किया जाय।

4.2 सूचना प्रबंधन तंत्र

4.2.1 एक अन्तर विभागीय सूचना प्रबंधन तंत्र का विकास किया जाये। जल संबंधित सूचनाओं को जल उपभोक्ताओं की जरूरत के अनुसार संकलन, परिष्करण एवं उपलब्ध कराने का काम किया जाय।

4.2.2 सुरक्षित सूचना प्रबंधन तंत्र को राज्य जल संसाधन योजना विभाग में स्थापित किया जाये। राज्य जल संसाधन योजना विभाग, डेटा की जांच एवं एन्ट्री, संकलन, बैकअप, डेटाबेस संचालन में पारदर्शिता बरते।

4.2.3 इस डेटाबेस में हाइड्रो-मैटीरियोलोजिक, जल विज्ञान, भूजल गुणवत्ता आदि से संबंधित सूचनाओं के अतिरिक्त जल संसाधन से संबंधित जल उपभोक्ता समूहों, जनसंख्या एवं सामाजिक आंकड़ों के अभिलेख भी शामिल किए जाय।

4.2.4 आंकड़ों के संकलन की निरंतरता सुनिश्चित की जायं और सभी पुराने अभिलेख डेटाबेस में शामिल किए जायं।

4.2.5 भूजल, बाढ़ क्षेत्र, पर्यावरण जोन आदि के मानत्रित तैयार किय जायं।

4.2.6 आमजन के लिए सुलभ एक संदर्भ जल पुस्तकालय बनाया जाय, जिसमें पूर्वकालिक एवं अब तक की जल क्षेत्र से संबंधित सभी महत्वपूर्ण रिपोर्ट्स संकलित होंगी। इन सभी स्रोतों की कम्प्यूटरीकृत सूची सार्वजनिक या निजी सुलभता के लिए तैयार की जाय।

4.2.7 पानी के वाष्पीकरण को मापने एवं जल संचयन संरचनाओं में इसे कम करने की संभावित पद्धतियों के लिए अनुसंधान किया जाय। यथासंभव इन पद्धतियों के मूल्याकंन अध्ययन किए जाय।

4.3 संरचनाओं की क्षमता एवं सुरक्षा

4.3.1 बांध सुरक्षा कमेटी को प्रभावी एवं उचित आकार का बनाया जाय। यह कमेटी निरीक्षण करके रिपोर्ट प्रस्तुत करें। कमेटी को निरीक्षण प्रतिवेदनों के अनुपालन एवं विनियम के अधिकार हों।

4.3.2 दैनिक आवक, उत्प्रवाह, वर्षा अभिलेख, संचयन स्तर एवं अन्य प्रचलनीय दस्तावेज सभी प्रमुख बांधों पर रखे जाय। वाष्पीकरण का भी सभी बडें बांधों पर प्रेक्षण किया जाय।

4.3.3 जो समुदाय प्रमुख बांधों की तलहटी में बसे हैं, उन्हें बाढ़/बांध टूटने की चेतावनी एवं आपातकालीन निष्क्रमण तरीकों की जानकारी देनी होगी। आपातकालीन बंदोबस्तों को जिला प्रशासन द्वारा उचित समय-बाध्यता एवं विभागों की प्रतिक्रिया के लिए दो वर्ष में एक बार जांचा परखा जाय। इन आपात स्थितियों के लिए सामाजिक तैयारी का भी आंकलन किया जाए और इनमें सुधार भी किया जाये।

4.4 जल निकास एवं लवण

4.4.1 शुरुआती एवं वर्तमान लवणीय क्षेत्रों तथा बहुत कम जल निकास क्षमता वाले क्षेत्रों के मानचित्र तैयार किए जाएं। समुद्री जल को उपयोगी जल बनाने की सरल-सहज तकनीक खोजी जाय।

4.5 शहरी जल आपूर्ति एवं दूषित जल निकास

4.5.1 सभी शहरों के लिए मूलभूत जल एवं स्वच्छता सेवाओं की योजना बनाकर क्रियान्वित की जाय। प्रभावी जल दरें अपनाई जायं, जो संचालन एवं रख-रखाव की लागत को समाहित करेंगी। इससे जल उपयोग पर भी नियंत्रण किया जायेगा।

4.5.2 ऐसे कार्यक्रम शुरू किए जायेंगे, जिनसे शहरी क्षेत्र में दूषित जल के निकास एवं प्रशोधन हेतु सीवरेज प्रशोधन संयंत्र (एसटीपी) के निर्माण की आवश्यकता एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति जन-मानस में जागरूकता पैदा हो। जल शोधन मापक अभी तक विदेशी बीओडी और सीओडी पर ही आधारित है। हमें जल शोधन के भारतीय मापक बनाने की पहल इस जल नीति द्वारा करानी होगी। भारतीय जलशोधन विधि अपनाने पर बल दिया जाय। जल शोधन में भारतीय ज्ञान तंत्र का उपयोग करने पर बल दिया जाये।

5.1 सामान्य जल संरक्षण

5.1.1 जल बचत तकनीकों के व्यावहारिक प्रयोग एवं जागरूकता को बढ़ाया जाय। जल उपभोग को और बेहतर बनाने के लिए मल्टी मीडिया से जागरूकता, स्कूली शिक्षा एवं तकनीकी सहायता द्वारा सभी वर्गों को एक निरंतर कार्यक्रम द्वारा प्रेरित किया जाये। जल संरक्षण के सामुदायिक तरीके सिखाये जाय। परम्परागत जल प्रबंधन को बढ़ावा दिया जाय।

5.1.2 हर तरह के अपशिष्ट प्राथमिक एवं द्वितीय प्रशोधित सीवेज जल, घरेलू उपयोग में लिया हुआ जल एवं पुनःचक्रित औद्योगिक जल आदि के उपयोग हेतु उचित प्रणाली का विकास किया जाय।

5.2 शहरी जल संरक्षण

5.2.1 जल रिसाव एवं जल वितरण में अनधिकृत जल शोषण को रोकने के लिए एक आवर्ती प्रोग्राम हाथ में लिया जायेगा। जल वितरण से संबंधित सभी प्राधिकारों को बेहिसाब जल को 20 प्रतिशत से भी कम करना होगा।

5.2.2 जल हानि को रोकने हेतु कार्यक्रम चलाया जाये। जल संरक्षकों को सम्मान तथा जलशोषण करने वालों को दंड का प्रावधान हो।

5.3 नगरपालिका एवं औद्योगिक जल संरक्षण

5.3.1 सीवेज निकास के पुनः उपयोग को प्रोत्साहित किया जाए एवं उचित प्रशोधन के पश्चात इसे नगरपालिका उपयोगों जैसे औद्योगिक शीतल यंत्रों में, जंगलों, बागवानी, लाभदायक सतही उपयोग एवं भूजल पुनर्भरण हेतु उपयोग में लिया जायेगा। अधिक जल उपयोग करने वाले उद्योगों को जहां तक हो सके, जल को पुनःचक्रित कर उपयोग में लाने हेतु बाध्य किया जायेगा।

5.3.2 खनन विभाग प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करेगा कि जिस भूजल का खनन के दौरान दोहन किया गया है, वह रासायनिक प्रदूषण को दूर करने के पश्चात किसी लाभदायक कार्य के लिए उपयोग किया जाय।

5.3.3 सभी बड़े एवं छोटे उद्योगों के जल मापन हेतु एक आवर्ती कार्यक्रम शुरू किया जाएगा। सभी बड़े एवं लघु उद्यागों के औद्योगिक जल उपयोग का एक रजिस्टर भी तैयार किया जाएगा। इस जल अंकेक्षण में मात्रात्मक जल उपभोग, जल पुनःचक्रण एवं संरक्षण की क्षमता एवं संभावित प्रदूषण की मात्रा की जानकारी होगी।

5.4 ग्रामीण एवं कृषि जल संरक्षण

5.4.1 सिंचाई दक्षता में सुधार हेतु कार्यक्रम विकसित एवं क्रियान्वित किया जाएगा।

5.4.2 सिंचाई में जल हानि को कम करने के लिए आवर्ती प्रोग्राम चलाया जायेगा।

5.4.3 खेतों को पानी से भर कर सिंचाई के विकल्प के स्थान पर दाब सिंचाई तंत्र, जैसे बूंद-बूंद एवं फौव्वारा सिंचाई को प्रोत्साहन दिया जायेगा।

5.4.4 सिंचाई के पश्चात बचे जल के पुनः प्रयोग को बढ़ावा दिया जायेगा।

5.4.5 जलोत्थान द्वारा सिंचाई करने पर मीटर लगाना आवश्यक किया जायेगा।

5.4.6 जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन को हर एक बेसिन पर लागू किया जायेगा।

5.5 भू-जल

5.5.1 भूजल दोहन नियंत्रण हेतु नए कुओं/बोरहोल्स की गहराई बढ़ाने की इजाजत तभी दी जाये, जब उपभोक्ता समूहों द्वारा भूजल प्रबंधन के दूरगामी एवं प्रभावी उपाय लागू किए गए हों।

5.5.2 सभी खुदाई यंत्रों को जल स्तर की दीर्घकालीन स्थिरता को देखते हुए ही लाइसेंस दिये जायं। सम्भव हो तो जल शोषण करने वाले यंत्रों पर रोक लगायी जाय। जहां जल अधिक हो, वहां लाइसेंस दिया जाय।

5.5.3 सभी खुदाई यंत्रों के माध्यम से भूजल से संबंधित तथ्य एकत्रित करके जल क्षेत्र के आंकड़ा आधार में जोड़े जायं। जल स्तर में कमी का भी विश्लेषण किया जाय एवं एक वार्षिक रिपोर्ट तैयार की जाय।

5.5.4 चयनित क्षेत्रों में एकीकृत जल प्रबंधन एवं जल संरक्षण को लम्बे समय तक टिकाऊ बनाने हेतु प्राथमिकता दी जाय।

6.1 जल गुणवत्ता एवं प्रदूषण

6.1.1 विभाग की विश्लेषण क्षमता एवं उसके जल मानकों के अनुरूप होने की समीक्षा की जाय। सामुदायिक मॉनीटरिंग हेतु समाज को तैयार किया जाय। समुदायों को जल मॉनीटरिंग व नदी मॉनीटरिंग करना सिखाया जाय।

6.1.2 जिला स्तर पर जल की मूल गुणवत्ता, जन स्वास्थ्य सुविधाओं की समीक्षा की जाय। जिला स्तर पर एक आवर्ती प्रोग्राम विकसित किया जाये, जो जिला स्तर पर जल विश्लेषण की क्षमता में सुधार करे। सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी से जल के नमूनों और विश्लेषण की प्रभावी लागत की समीक्षा की जाये। जल और मानव सेहत का संबंध समझाया जाये।

6.1.3 जन स्वास्थ्य पर खतरों को देखते हुए प्राथमिकता पर बेहतर घरेलू जल गुणवत्ता हेतु चरणबद्ध कार्यक्रम चलाया जाय।

6.1.4 स्थानीय पेयजल में फ्लोराइड अधिकता वाले क्षेत्रों की प्रगति समीक्षा की जाये और जरूरत पड़ने पर उपचारात्मक उपाय भी किए जायें। इस कार्य में समुदाय की समझ बढ़ायें। समुदाय की समझ का उपयोग किया जाये।

6.1.5 सभी प्रदूषण स्रोत बिन्दुओं की एक आवर्ती सूची बनाई जाये।

6.1.6 उद्योग निष्कासित जल को प्राकृतिक जल स्रोतों में छोडा ही नहीं जाए और न तो भूजल पुनर्भरण के उपयोग में ही लिया जाए। समस्त स्रोतों का भारतीय मानकों के अनुसार उपचार किया जाय। उपचार के बाद खेती-बागवानी और उद्योगों में ही काम किया जाय। उद्योगों एवं नगरों का शोधित जल किसी कीमत पर प्राकृतिक जलस्रोतों में न मिलाये जायें।

6.1.7 नए, पुराने प्रदूषणकारी उद्योग एवं पुनरस्थापित हो चुके उद्योगों को चिन्हित किया जाये। किसी भी गंदे एंव संक्रमित जल को भूजल या सतही नालियों में छोडने पर रोक लगायी जाय।

6.1.8 जल प्रदूषण फैलाने की आशंका वाले औद्योगिक ठोस पदार्थों का निपटारा विशेष सुविधाओं द्वारा एकीकृत अपशिष्ट प्रबंधन के आधार पर किया जाये। बहुत से प्रदूषित उद्योग ऐसा दूषित जल छोड़ते हैं, जिसका उपचार संभव नहीं है। ऐसे दूषित उद्योगों को सदैव हेतु बंद कर दिया जाये।

6.2 गंदा पानी

6.2.1 बिना प्रशोधित सीवेज के गंदे जल को प्राकृतिक जल स्रोतों में नहीं छोड़ा जायेगा और न ही भूजल पुनर्भरण के उपयोग में लिया जायेगा। वर्षा जल व गंदा जल अलग-अलग ही रखने की बाध्यता हो।

6.2.2 समस्त शहरी एवं उच्च प्राथमिकता वाले ग्रामीण इलाकों में सीवेज प्रशोधन संयंत्र एसटीपी के आकल्पन एवं निर्माण का एक प्रोग्राम लागू किया जाये। प्रशोधित व निष्कासित जल के निपटारे में पूर्णकालिक स्वास्थ्य मानकों का पालन किया जाये। अपशिष्ट जल का प्रशोधन करके लाभकारी उपयोग आवश्यकता के अनुसार तय किया जाये।

  1. पर्यावरण प्रबंधन

7.1.1 सीमांत एवं पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में मौसम की प्रवृत्तियों और उनके दीर्घाकालीन प्रभावों का अध्ययन किया जाये। इस अध्ययन को एकीकृत जल प्रबंधन योजनाओं की प्लानिंग के लिए काम में लिया जाये।

7.1.2 बृहद एंव मध्यम जल संसाधन परियोजनाओं से पर्यावरण पर प्रभाव का स्वतंत्र अध्ययन किया जाये। उच्च प्राथमिकता पर अधिक अनुवांशिक विविधता वाले पर्यावरण तंत्रों की एक सूची तैयार करके उसमें मानव प्रभावों को आंका जाये।

7.1.3 झीलों एवं आर्द्र भूमि का संरक्षण किया जाये, जिससे पर्यावरण प्राकृतिक अनुवांशिक निरन्तरता को बनाए रखने का प्रयास किया जाये। नयी आर्द्र भूमि के निर्माण पर भी विचार किया जाये।

7.1.4 बृहद एवं मध्यम जलाशय परियोजनाओं के उपयोगकर्ताओं पर पड़ने वाले प्रभाव को योजना स्तर पर पहली प्राथमिकता दी जाये।

7.1.5 नदियों का पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित कराने हेतु भारत की सभी नदियों का पर्यावरणीय प्रवाह सिद्धांत बनाया जाये। इनका पालन कराने वाली अच्छी व्यवस्था बने। नदियां नाले में न बदलें।

7.2 सूखा प्रबंधन

7.2.1 जल संसाधन प्रबंधन में सूखा प्रभावित क्षेत्रों की मांग को प्राथमिकता दी जाये। सामुदायिक एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन की मदद से सूखा प्रभावित क्षेत्रों में सूखे के प्रति बहुआयामी तरीकों को प्रोत्साहित किया जाये।

7.2.2 नई जल संसाधन विकास योजनाओं के लिए संभाव्यता संबंधी अध्ययन किए जायं एवं सूखा प्रभावित क्षेत्रों को उच्च प्राथमिकता दी जाये।

7.2.3 वर्षा जल सहेजकर अनुशासित उपयोग करके नदी को पुनर्जीवित किया जाये। जैसे तरुण भारत संघ ने सूखा प्रभावित क्षेत्र में नदी पुनर्जीवित की है।

7.3 बाढ़ नियंत्रण एवं जल संग्रहण

7.3.1 अधिक बहाव वाली नदियों पर बाढ़ पूर्वानुमान हेतु क्रियाशील तंत्र स्थापित किया जाये।

7.3.2 बाढ़ से खतरों के अनुमान हेतु संभावित बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को वर्गीकृत किया जाये। हर बाढ़ संभावित बेसिन/क्षेत्र के लिए आपातकालीन बाढ़ नियंत्रण एवं प्रबंधन योजना तैयार की जाये।

7.3.3 बाढ़ से बचाव हेतु पहाड़ों में घने जंगल रूपी नैसर्गिक बंधों में पानी रोककर निकाला जाये। पानी को मैदान में इकट्ठा होने से पहले भूजल भंडारों तथा अधोभूजल भंडारों को भरने से बाढ़ कम होती है। जल का समान वितरण होता है। समान जल वितरण से बाढ़ नियंत्रित रहती है।

  1. जल शुल्क

8.1.1 जल की दरें इस प्रकार निर्धारित की जायं, जिससे जल की कमी का एहसास हो तथा उपभोक्ता को जल के उपयोग में सावधानी रखने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। जल शुल्क, पूर्ण संचालन तक खर्चो की वसूली आदि को ध्यान में रखकर ही निर्धारित किया जाये। इसके अनुरूप ही संचालन की दक्षता और रख-रखाव की क्षमता का विकास किया जाये।

8.1.2 गैर कृषि जल वितरण के लिए तीन या चार स्तरीय जल शुल्क हो, जिसमें सर्वाधिक जल प्रयोग के लिए सबसे ज्यादा शुल्क वसूला जाये। इस स्तरीय जल शुल्क को इस तरह निर्धारित किया जाये कि निम्न एवं अधिकतम जल दरों में परिमाण का भेद हो। जल शुल्क के पहले स्तर पर जल सस्ता होगा और सभी जल उपभोक्ताओं के लिए समान होगा।

8.1.3 औद्योगिक, व्यावसायिक एवं नगरपालिकाओं के जल उपयोग पर विभिन्न स्तरीय जल दरें लागू की जा सकती हैं। सभी मामलों में जल दर द्वारा अनावश्यक जल उपयोग को हतोत्साहित किया जाये।

8.1.4 वर्तमान अनुदानित कृषि जल और राज्य द्वारा अनुदानित सिंचाई के स्थान पर पूर्ण संचालन एवं रख-रखाव, शुल्क वसूली और उपभोक्ताओं द्वारा नए आधारभूत ढांचे के निर्माण में उत्तरोत्तर बदलाव होंवे।

8.1.5 जल प्रबंधन कार्य हेतु जल उपभोग मापन कार्यक्रम को सभी महत्वपूर्ण जल स्रोतों अथवा जल स्वामित्व वाले उपभोक्ताओं पर लागू किया जाये।

  1. विधिक आधार

9.1.1 जल क्षेत्र कानून की आलोचनात्मक समीक्षा की जाये। अप्रचलित कानूनों को हटाया जाये या अधिक एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन एवं प्रभावी सरकारी क्रियाओं के लिए जरूरी विधि के रूप में संशोधित किया जाये। एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन के उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले एवं अधिकार, उत्तरदायित्व, शक्तियां, संसाधन एवं जल क्षेत्र के सभी हितभागियों के कार्य संचालन को दृढ़ता से लागू करने वाले विधान लाए जायें।

9.1.2 स्थानीय जल उपभोक्ताओं के अधिकार एवं उत्तरदायित्वों का कानून में निर्धारण किया जायेगा, जिससे वे अपने जल संसाधनों का खुद प्रबंधन कर सकें। इन विधायी प्रावधानों में किसानों, गरीबों एवं महिलाओं के जल उपभोक्ता समूहों में प्रतिनिधित्व एवं मुख्य भूमिका का विशेष ध्यान रखा जाएगा।

9.1.3 अति-शोधित एवं क्षीर्ण भूजल वाले क्षेत्रों में भूजल दोहन के नियंत्रण एवं प्रबंधन हेतु कानून पारित किए जायेंगे।

9.1.4 एक समयावधि के बाद भी एवं इन उपायों के बावजूद यदि अत्यधिक भूजल दोहन होता रहे, तो ऐसी परिस्थिति में स्थानीय भूजल स्वामित्व को वापस लेकर विधान बनाए जायेंगे एवं भूजल दोहन दर को रोका जाएगा। भूजल उपयोग पर प्रतिबंध लगाने हेतु विधिक आज्ञा स्पष्ट हो।

9.1.5 जल क्षेत्र में विवादों को हल करने हेतु विधिक संरचना का विकास किया जायेगा। यह प्रक्रिया समुदाय के स्तर पर समाधानों से शुरू होगी एवं सरकार में उच्च स्तर पर अपील की जा सकेगी।

9.1.6 ऐसे विधान बनाए जायेंगे, जिससे अधिक मात्रा में सीधे या स्थानीय भूजल उपभोग करने वालों को जल संरक्षण के क्षतिपूरक उपाय लागू करने के लिए बाध्य किया जा सके। जल संरक्षण के इन उपायों की व्यापकता पूरे जल उपयोग को ध्यान में रखकर बनाई जायेगी। जल संरक्षण में सहायक दिशा निर्देश तैयार किए जायेंगे। जल संरक्षण संबंधी मुख्य आवश्यकताओं की लगातार एवं अनुचित अनदेखी होने पर भूजल उपलब्धता को बंद करने के लिए कानूनी आधार बनाया जाएगा या फिर वितरित जल पर उच्च दरें लागू की जायेंगी।

9.1.7 मौजूदा नदी जल इकाइयों को अतिक्रमण एवं प्रदूषण से बचाने के लिए जल का कानूनी आधार बनाया जाएगा। बहुत अधिक प्रदूषण की दशा में स्थानीय जल उपभोक्ता समूहों को यह जिम्मेदारी दी जायेगी कि वे संबंधित विभाग से तकनीकी एंव अन्य सामग्री सहायता द्वारा प्रदूषण को खत्म करने का उपाय करें।

9.1.8 सभी स्तरों पर मात्रात्मक जल संसाधन प्रबंधन को सुचारु करने के लिए जल उपभोक्ता समूह से लेकर जल संसाधन विभाग तक कुओं एवं बोरहोल्स की मीटरिंग, कूपों, जल-टैंकरों द्वारा वितरण, सिंचाई जल का वितरण एवं प्रमुख खंडों में नदी बहाव के जल मापन अथवा मीटरिंग के लिए एक आवर्ती कार्यक्रम शुरू किये जायं। इसके लिए विधिसम्मत आदेश पत्र तैयार किया जाये, जो सम्पूर्ण जल का मापन सुनिश्चित करे।

9.1.9 भूजल और जमीन का मालिकाना हक अलग-अलग किये जायें। जमीन का मालिक भूजल का मालिक नहीं हो सकता। जल पर सबको जीने हेतु समान हक दिया जाये।

  1. क्षमता विकास

10.1.1 सामुदायिक, मध्यस्तर राज्य सरकार, भारत सरकार स्तर पर सांस्थानिक क्षमता का विकास किया जाये। इस क्षमता विकास में सभी स्तरों पर राष्ट्र और राज्य आधारित प्रचलित अभियांत्रिकी से जल संचालन प्रबंधन के स्थान पर पूर्ण सामुदायिक सहभागिता संबंधी दृष्टिकोण अपनाया जाय।

10.1.2 सामुदायिक क्षमता विकास में संरचनात्मक अधिकार एवं उत्तरदायित्वों आदि में जल उपभोक्ता समूहों एवं जल क्षेत्र के अन्य समुदाय आधारित हितभागियों का प्रशिक्षण शामिल होगा।

10.1.3 शासन स्तर पर क्षमता विकास की दिशा इस प्रकार होगी। (अ) अपने कौशल को और अधिक बढ़ाना (ब) बेहतर तकनीकी सहायता (स) डाटा प्रोसेसिंग, बेसिन जल संसाधन प्रबंधन हेतु योजना पर अधिक बल (द) कार्य की स्वायत्ता (ए) प्रतिक्रियात्मक प्रशासन के स्थान पर अग्रसक्रिय होकर प्रश्नात्मक परीक्षण एवं जल संसाधन समीक्षा का दृष्टिकोण विकसित करें।

10.1.4 योजना निर्माण एवं क्रियान्वयन करने वाली पारम्परिक भूमिका को छोड़कर नदी जल उपभोक्ता समूहों एवं जल क्षेत्र के अन्य समुदाय आधारित उपभोक्ताओं को समय रहते दक्ष तकनीकी एवं भौतिक सहायता प्रदान करना प्रमुख कार्य होगा। सरकारी एजेन्सियों एवं जल उपभोक्ता समूहों के बीच विशेषकर तकनीकी सूचना के आदान-प्रदान हेतु बेहतर संचार के लिए प्रभावी साधन विकसित किए जायें।

10.1.5 कुछ सिद्धांत जैसे सामुदायिक जल प्रबंधन की जरूरत, नदी जल संरक्षण, जल प्रबंधन, अनुकूलतम जल उपभोग आदि को प्राथमिक स्तर के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाये।

10.1.6 नदी जल की कमी के बारे में जागरूकता के पश्चात सामुदायिक जल प्रबंधन की व्यावहारिकता, बेहतर जल उपभोग में दक्षता, बेहतर जल संरक्षण के उपाय, जल संबंधित जन स्वास्थ्य एवं बेहतर जल निकास स्वच्छता आदि में जन प्रशिक्षण शुरू किया जाये।

10.1.7 राष्ट्र एवं राज्य सभी नदी और जल क्षेत्र की विधाओं में प्रशिक्षण को प्रोत्साहित एवं समर्थन दें, जिसमें एकीकृत जल विकास, जल वितरण, सामाजिक ढांचा, जन स्वास्थ्य, रासायनिक एवं माइक्रोबायोलॉजिकल जल गुणवत्ता, पर्यावरण प्रबंधन, सूखा क्षेत्र एवं खारे जल से कृषि को बढ़ावा दिया जाता है।

10.1.8 जल उपभोग एवं जल गुणवत्ता आंकड़ा संग्रहण की विभिन्न राजकीय विभागों की क्षमता की समीक्षा की जायेगी। पूर्व में एकत्रित आंकड़ों की सटीकता, पूणर्ता, विश्वसनीयता एवं व्यवस्थित तथा अव्यवस्थित गलतियों की जांच की जायेगी एवं जहां तक हो सकेगा, इन कमियों को दूर एवं सीमित करने हेतु क्रमसंगत पद्धितयां लागू की जायेंगी।

10.1.9 मानवीय एवं पंजीकृत आंकड़ा संकलन, भौगोलिक सूचना तंत्र डेटाबेस, वेबसाइट, भौगोलिक सूचना तंत्र उपयोजन, कम्प्यूटर मॉडलिंग (भूजल, सतही जल एवं बेसिन हाइड्रोलॉजी), भूजल पुनर्भरण, जल संसाधनों के आंकलन एवं परिवर्तन तथा बेहतर सिंचाई क्षमता प्राप्त करने के क्षेत्र में तकनीकी क्षमता विकास किया जाये।

10.2 अनुसंधान

10.2.1 भारत के नदी से संबंधित अति महत्वपूर्ण विषयों पर केन्द्रित जल संसाधन अनुसंधान को शैक्षणिक एवं अन्य सरकारी संस्थानों को प्रोत्साहित किया जाये एवं इन दोनों इकाइयों में सहभागिता की भावना का विकास किया जाये। अनुसंधान में आंतरिक एवं वाह्य, विशेषतः अन्तर्राज्जीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ संस्थानों से सहयोग की संभावनाओं की खोज की जाये।

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