संयोजनकारी संस्कृति एक वैश्विक माँग

संयोजनकारी
डॉ. रवींद्र कुमार

संस्कृति संस्कार-निर्मित और विकसित व अतिमूल्यवान, कल्याणकारी और सुन्दर आभूषण है, जो व्यक्ति तथा समाज को एक विशिष्ट पहचान देता है।

संस्कृति रूपी आभूषण एक विशेष भू-क्षेत्र–राष्ट्र के निवासियों की सामान्य मानसिकता और उनके आचरणों–व्यवहारों का अन्यों से परिचय कराता है।

संस्कार, स्थापित मूल्यों, जो दीर्घकाल तक प्रासंगिक और कभी-कभी तो सर्वकालिक, वृहद्कल्याणकारी, तथा विशेष रूप से मानसिकता को सकारात्मक स्थिति में बनाए रखने में अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं, से विकसित होते हैं, उनसे फलते-फूलते हैं।

व्यक्ति को स्थापित मूल्यों के अनुरूप संस्कारों से भरपूर करने में माता-पिता, परिवार, समुदाय, शिक्षालयों एवं समाज का निर्णायक योगदान रहता है।

संस्कार मानव-मस्तिष्क को गहराईपूर्वक प्रभावित तथा निर्देशित करते हुए व्यक्ति से सामाजिक और धार्मिक सहित जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में श्रेष्ठ करने की अपेक्षा रखते हैं। संस्कार मनुष्य का सत्कर्मों का आह्वान करते हैं।

धार्मिक संस्कार –सभी धर्म-सम्प्रदायों के मूलाचार, स्थापित रीतियां और परम्पराएं संस्कारों की विशाल परिधि में सम्मिलित हैं।

मानसिक, कायिक और आत्मशुद्धि –पवित्रता ही अंततः धर्माचरणों के मूल में रहने वाली भावना है। इसीलिए, धार्मिक संस्कार सामान्य मानवीय संस्कारों से पृथक नहीं हैं।

संस्कृति, जैसा कि उल्लेख कर चुके हैं, मानवीय संस्कारों से उपजती और विकसित होती है। यह मनुष्य की उत्तम स्थिति को प्रकट करती है।

एक विशेष भू-क्षेत्र के निवासियों –मानव – समाज के सामान्य व श्रेष्ठ दृष्टिकोण, उन्नत व्यवहारों, परस्पर सम्बन्धों, परम्पराओं, रचनात्मकता व विकासोन्मुखता, तथा संस्कारों के बल पर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्राप्त उपलब्धियों का दूसरों को परिचय देती है।

संस्कारों से निर्मित और विकसित संस्कृति के सम्बन्ध में यह पहली सत्यता है, जिसे हमें जानना और समझना चाहिए।

संस्कृति का मूल उद्देश्य मानव की उत्तम तथा विकासोन्मुख स्थिति के दूसरों को परिचय के साथ ही, मनुष्य में विद्यमान दो स्वाभाविक एवं अतिविशिष्ट गुणों, बुद्धि तथा रचनात्मकता के सदुपयोग द्वारा व्यक्तिगत और सजातीयों के साथ मिलकर वृहद्कल्याण के लिए साझे प्रयासों को सुनिश्चित करना भी है।

इस हेतु संस्कृति अपने अनुयायिओं-पोषकों का आह्वान करती है।

अपने इस आह्वान के अनुपालन –व्यवहार में इसकी परिणति के लिए संस्कृति व्यापक स्तर पर सहयोग और सहकार हेतु अपने अनुयायियों एवं पोषकों को सन्देश देती है।

अपने मूल उद्देश्य की प्राप्ति हेतु –अपने प्रमुख सन्देश की ग्राह्यता और व्यवहार में उसकी परिणति के लिए, विशेष रूप से सहयोग तथा समन्वय द्वारा वृहद्कल्याणार्थ विकास-पथ पर अनुयायियों के निरन्तर आगे बढ़ने के लिए प्रत्येक संस्कृति परिस्थितियों–समय और स्थान की माँग के अनुसार अपने में अनेक विशिष्टताओं का समावेश करती है।

इसी के साथ, सौहार्द, स्वीकार्यता (विशेष रूप से दृष्टिकोण सामंजस्य), सहनशीलता (विशेषतः मतभिन्नता की स्थिति में सहिष्णुता) और एकता-निर्माण, ये चार प्रत्येक संस्कृति के किसी-न-किसी रूप में, लेकिन अनिवार्यतः मूलाधार होते हैं।

इन मूलाधारों की अनुपस्थिति में, अथवा इनमे से किसी एक के भी न होने, या दुर्बल होने की स्थिति में कोई भी संस्कृति सच्ची नहीं हो सकती।

किसी भी संस्कृति के जीवित रहने और उसकी निरन्तरता के लिए, तथा अपनी मूलभावना के अनुसार उद्देश्य-प्राप्ति हेतु आगे बढ़ने के लिए इन विशिष्टताओं का होना अपरिहार्य और आवश्यक है।

संस्कृति मूल विशिष्टताओं के सम्बन्ध में यह वह बात है, जिसे सदैव स्मरण रखना चाहिए।

अपनी मूल विशिष्टताओं के बल पर वृहद् मानव-कल्याणार्थ विकास-प्रक्रिया को सतत रूप में आगे बढ़ने के लिए संस्कृति अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है।

स्थापित मूल्यों, विशेषकर स्वस्थ और सकारात्मक सामाजिक परम्पराओं से विकसित संस्कारों द्वारा फलने-फूलने वाली संस्कृति स्वयं संगठित समाज और राष्ट्र-निर्माण के लिए एक प्रकार से निर्णायक योगदान देती है।

संस्कृति ठहराव का विषय नहीं है। साझे प्रयासों द्वारा वृहद्स्तरीय स्वीकृति को केन्द्र में रखकर समय और परिस्थितियों की माँग के अनुसार वातावरण को अनुकूल बनाते हुए विकास-प्रक्रिया को आगे बढ़ाना – मनुष्य की उत्तमता को निरन्तर निखारना संस्कृति की अग्निपरीक्षा होती है।

दूसरे शब्दों में, सजातीयों-सहमार्गियों को अपनी सोच एवं इच्छा के अनुरूप बदलने के विपरीत उनकी सोच, इच्छा और कार्यपद्धति के साथ तालमेल बैठाकर, पहचान को एक के बाद दूसरा आयाम देना संस्कृति की निर्णायक परीक्षा होती है।

वर्तमान समय वैश्वीकरण का है। अब सभी प्राप्तियां और घाटे, अथवा सफलता एंव असफलताएं साझी हैं।

इसलिए, अब स्थानीय, क्षेत्रीय या राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चलना –साझे प्रयासों द्वारा शान्ति और प्रगति के लिए कार्य करना आवश्यक है।

ऐसी स्थिति में स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय संस्कृति का अपनी मूल विशिष्टताओं से सम्बद्ध रहने के साथ ही विश्वोन्मुखी होना भी आवश्यक है।

यह समय की माँग है; यह संस्कृति से अब अपेक्षा है।

संस्कृति, अपनी मूलभावना के अनुरूप अपने अनुयायियों से एक-दूसरे को समझने के साथ ही परस्पर सहयोग, सामंजस्य, सौहार्द तथा आत्मिक एकता का आह्वान करती है।

एकबद्धता से आर्थिक तथा सामाजिक बाधाओं को पार करते हुए प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ने की अपने अनुयायियों व पोषकों से अपेक्षा रखती है।

अतः अपने पड़ोस, क्षेत्र तथा देश के लोगों के साथ अपरिहार्य साझी समस्याओं के समाधान के लिए आगे आने के अतिरिक्त, वैश्विक स्तर पर लोगों को जोड़ने की प्रेरणा देने वाली संस्कृति का भविष्य ही अब उज्ज्वल हो सकता है।

उपलब्धियों को साझा करते हुए साथ-साथ कार्य करने की प्रेरणा देने वाली, इस हेतु अपने अनुयायियों एवं पोषकों का मार्गदर्शनकारी संस्कृति का भविष्य ही सुनहरा हो सकता है।

एकांगी, संकीर्ण और अलग-थलग स्वभाव वाली संस्कृति का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता।

अब अनेकता में एकता का विचार ही कारगर सिद्ध हो सकता है। ऐसा विचार ही वृहद् सहयोग का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

सामान्य हित, सर्वकल्याण, शान्ति और प्रगति के लिए वृहद् सहयोग आवश्यक है। सुन्दर और समानता-आधारित विश्व के निर्माण के लिए यह परमावश्यक है।

यह कार्य भली-भांति संपन्न हो, विश्वोन्मुखी संस्कृति इस दिशा में निर्णायक भूमिका का निर्वहन कर सकती है।

“वसुधैव कुटुम्बकम्“ अवधारणा को समर्पित भारत की सदाबहार संस्कृति इस कार्य में संसार का मार्गदर्शन करने में पूर्णतः सक्षम है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित भारतीय शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर डॉ. रवीन्द्र कुमार मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैंI

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