चमोली में ऋषिगंगा की बाढ़ : घायल हिमालय की एक और चेतावनी
हिमालय के अंदर 700 किलोमीटर से ज्यादा की सुरंगें
चमोली में ऋषिगंगा की बाढ़ , घायल हिमालय की एक और चीत्कार और चेतावनी है – कहना है देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार दिनेश जुयाल का.
जिस ऋषिगंगा प्रोजेक्ट और तपोवन हाइड्रो प्रोजेक्ट रोकने के लिए उत्तराखंड के लोगों ने लंबी लड़ाई लड़ी और जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने भी एक बार रोक दिया था , उन्हें गुस्साए हिमालय ने आखिरकार अपनी गंगा में वेग लाकर बहा दिया।
2014 में इनके साथ ही 24 बांधों का काम रोका गया था। 2013 में पूरे उत्तराखंड में जल प्रलय जैसी हुई जिसे पूरा देश सिर्फ केदारनाथ हादसे के रूप में याद करता है, तब भी इन दोनों परियोजनाओं को नुकसान हुआ।
अंधी व्यवस्था दांव पेंच में लगी रही
विकास के नाम पर अंधी व्यवस्था दांव पेंच में लगी रही और एक-एक कर परियोजनाओं को फिर हरी झंडी मिलने लगी। ऋषिगंगा पर एक प्रोजेक्ट तो बन गया लेकिन दो रोक दिए गए। जाहिर ये बने होते तो ये भी बह गए होते। 530 मेगावाट के विष्णु प्रयाग प्रोजेक्ट पर काम चल ही रहा था। यहां भी कई हजार करोड़ फिऱ से बह गए। 200 से ऊपर लोगों की लोगों की लिस्ट बनी है जिनमें ठेके पर काम करने वाले कितने ही अनाम मजदूर शायद नहीं होंगे।
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अपनी पुस्तक में प्रोफेसर शेखर पाठक जिस उत्तराखंड को चुप प्रदेश बताते हैं दरअसल वह पिछले 45-50 सालों से तो लगातार हिमालय को बचाने की धाद दे ही रहा रहा है। इन धाद देने वालों में एक अलग से पहचानी जाने वाली आवाज खुद उनकी भी है। हिमालय पुत्रों की ये आवाजें इस देश की सर्वोच्च अदालत में एक बार नहीं कई बार गूंजी, लेकिन समय पर ठीक से सुनी नहीं गई और फिर हिमालय ने बड़े हादसों के रूप में चेतावनियां दी।
2013 की केदारनाथ आपदा और अब ऋषिगंगा की बाढ़ ऐसी ही चेतावनियां हैं. इन आवाजों की, चीत्कारों की और चेतावनियों की लंबी फेहरिस्त है।
चार धाम परियोजना
चार धाम नाम की जिस परियोजना पर दिल्ली और देहरादून के शाह इतरा रहे हैं उस पर भी सुप्रीम कोर्ट की हाईपावर कमेटी की सिफारिशों पर पानी डालते हुए काम जारी है और यह एक ऐसा कथित विकास हो रहा है जिसका खामियाजा आने वाली कई पीढियों को भुगतना पड़ेगा। फिलहाल तो नेताओं, आईएएस और इंजीनियरों की लाबी सुप्रीम की कमेटी के चेयरमैन समेत तीन वैज्ञानिकों को विकास विरोधी खलनायक बता कर हजारों करोड़ के वारे न्यारे करने की जुगत में लगी है।
चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवी
ये ताजा हादसा चिपको आंदोलन की जननी गौरा देवी के गांव के पास हुआ है। यही वह जमीन है जहां से हिमालय के संरक्षण के लिए गौरा देवी के नेतृत्व में की अनपढ़ महिलाओं ने 1974 में पेड़ों से लिपट कर उन्हें कुल्हाड़ों से बचाते हुए चिपको आंदोलन शुरू किया था । तब सरकार ने झांसे से सारे पुरुषों के चमोली बुला कर रैणी के जंगल काटने की कुटिल नीति बनाई थी। यही गांव कई पुरस्कारों से नवाजे गए सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट की प्रेरणा स्थली है।
उत्तराखंड में स्थानीय जरूरतों और हिमालय की संवेदनशीलता के हिसाब से विकास के लिए उत्तराखंड राज्य आंदोलन की शुरुआत भी इसी जमीन को माना जाना चाहिए , क्योंकि इसी चिपको आंदोलन में उसका बीज था।
आज उस रैणी गांव समेत करीब तीस गांव और मजरे शेष भारत से कट गए है। फौज को चीन सीमा तक पहुंचाने वाला पुल भी नहीं बचा।
नंदा देवी पर्वत माला से निकलने वाली ऋषिगंगा
नंदा देवी पर्वत माला के घेरे ऊंची चट्टानों के बीच से बहुत ही वेग और पतली धार से निकलने वाली ऋषिगंगा यहीं से कुछ आगे बाहर निकलती है। परियोजना के लिए बन रही सुरंगों के धमाकों से परेशान यहां के लोगों की आवाज सुनकर ही पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट और वैज्ञानिक नवीन जुयाल सुप्रीम कोर्ट तक गए थे। विकास की अंधी सोच को आगाह किया, किसी ने नहीं सुना और नतीजा सामने है।
आसपास के 11 गाव वाले ऋषिगंगा परियोजना के 46 लोग यहीं आसपास से नदी की धार में खो गए। यहां से और आगे तपोवन के पास बन रहे तपोवन हाइड्रो प्रोजेक्ट में कंपनी के लोगों ने 203 लापता लोगों की सूची बनाई है। इस सूची में कई नामों के आगे एक ठेकेदार का नाम लिखा है । असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की ऐसे ही पहचान होती है। अभी तो ये नाम, संख्या शुरुआती खानापूरी है।
लोग ऐसे ही कह दे रहे हैं कि नदी में कोई हिमखंड गिरा होगा या हिमनद टूटा होगा। हो सकता है ऋषि ताल ही टूट गया हो। उत्तराखंड में रिमोट सेंसिंग और {हिमअवधाव एवलांच} केंद्र की जिम्मेदारी है कि ग्लेशियरों की गतिविधियों पर नजर रखें लेकिन उनकी नजर में कुछ नहीं हैं। बता रहे हैं नासा ने सेटेलाइट इमेजेज का इंतजार है। हादसे से साफ है कि ये एक प्लैश फ्लड था, यानी अचानक कहीं रुका हुआ पानी पूरे वेग से बाहर निकला। अब अगर वहां कुछ दिनों से कोई झील बन रही थी या किसी छील में एवलांच या ग्लेशियर के टुकड़े के गिरने से दबाव बना तो उसमें समय लगा होगा।
केदारनाथ हादसे की तरह इस हादसे की सही वजह कुछ समय बाद ही पता चलेगी। संयोग से भूगर्भ वैज्ञानिक डा नवीन जुयाल हादसे कि दिन नीति घाटी में ही रैणी से कुछ दूर मलारी में अपने छात्रों को ऋषिगंगा क्षेत्र की संवेदनशीलता पर ही समझा रहे थे। इस तबाही के गवाह बने डा नवीन कहते हैं कि पानी का काला रंग देख कर लगता है कि कोई पुराना तालाब टूटा है ये उसकी तलछट लगती है। डा जुयाल की बात भी सही हो सकती है। उन्होंने हिमालय में कई जगह इस तरह के सेडीमेंट का अध्ययन किया है.
चेतावनी के बाद सरकार क्या कर रही है
अब सवाल ये कि हिमालय की इस नई चेतावनी के बाद सरकार क्या कर रही है और क्या करेगी? प्रधानमंत्री ने तुरंत बंगाल से ही इस आपदा पर चिंता जाहिर कर दी थी और उत्तराखंड के लोगों के साथ होने का अहसास दिलाया।
मुख्यमंत्री ने हवाई दौरा कर आश्वस्त किया था कि मैदानों तक बाढ़ नहीं पहुंचेगी। पहाड़ों के बीच ही नदी सामान्य हो गई है।
एनडीआरएफ, एसडीआरएफ , बीएसएफ और प्रशासनिक मशीनरी काम में जुट गई। कुछ शव, कुछ मानव अंग किनारों से बटोरे गए हैं। नुकसान का आकलन हो रहा है। आपदा राहत की एक खेप का ऐलान हो चुका।
चमोली में ऋषिगंगा की बाढ़ के बाद अब आगे क्या करेंगे? क्या तपोवन हाइड्रो प्रोजेक्ट फिर से बनेगा? क्या विष्णु प्रयाग परियोजना को हुए करोड़ों के नुकसान की भरपाई के बाद फिर वही 530 मेगावाट के प्रोजेक्ट पर काम शुरू होगा, या अब की बार उससे भी बड़ा बांध बनाने की सोचेंगे? लगता तो ऐसा ही है। आपदा में अवसर तलाशने वाले अपनी जुगत में होंगे .
इस सबक के बाद सरकार कुछ अलग भी सोच सकती है क्या? क्या दूसरी परियोजनाओं की फिर से समीक्षा होगी? कुछ बांध परियोजनाएँ रद्द होंगी? क्या चार धाम प्रोजेक्ट पर अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप काम होगा? पर्यावरण के मानक, भागीरथी इको सेंसिटिव जोन के प्रावधानों, सड़क परिवहन मंत्रालय के अपने कायदे {2018 का नोटिफिकेशन}, इंडियन रोड कांग्रेस और हिल मैनुअल के प्रावधानों को लागू किया जाएगा?
कुल मिलाकर आशय ये कि हिमालय के संरक्षण के लिए बने थोड़े बहुत कायदे कानूनों पर अब अमल करने की दिशा में विकासजीवी लोग कुछ सोचने लगेंगे क्या? पिछले साल सरकार ने चारधाम रोड के मामले में सुप्रीम कोर्ट की हाईपावर कमेटी के चैयरमैन रवि चोपड़ा, वैज्ञानिक डा नवीन और डा हेमंत ध्यानी को खलनायक बनाने के लिए जिस तरह अपनी मशीनरी की दुरुपयोग किया, आईएएस की फौज लगा कर बहुमत के बहाने कमेटी की रिपोर्ट को अपने मनमाफिक करने का प्रयास किया, जैसे कोर्ट में पक्ष रखने की कोशिश की जिस तरह मीडिया और सोशल मीडिया में कुछ ख़रीदे हुए लोगों ने उनकी छवि धूमिल करने की कोशिश की, उससे तो ऐसा नहीं लगता.
चार धाम परियोजना में अब सरकार ने चीन का हौव्वा खड़ा कर रक्षा मंत्रालय को भी मोर्चे पर लगा दिया है, इधर इस बहाने मीडिया और सोशल मीडिया पर देशभक्तों की फौज भी लग गई। मैंने भी सेना में अहम पदों पर रह चुके लोगों से राय जानने की कोशिश की लेफ्टिलेंट जनरल काला जैसे अफसर सेना के बहाने को बेतुका मानते हैं।
उत्तराखंड के सीएम रह चुके मेजर जनरल खंडूड़ी यह कह कर बात टालते हैं कि यह तो चार धामों की रोड है, जब सेना के लिए सड़क बनेगी तो सेना की राय ली जाएगी। थल सेना अध्यक्ष रहते हुए विपिन रावत ने कह ही दिया था कि सेना को मूव करना होगा तो ऐसे भी कर लेगी साजो सामान तो एयर लिफ्ट हो जाता है.
तो फिर कई जगह तीखी ढलान वाले पहाड़ पर 900 किलोमीटर की 12 मीटर चौड़ी सड़क के लिए इतनी जिद क्यों है? इतने आंदोलनों और अदालतों में हार के बाद भी हिमालय पर बांध बनाते जाने की जिद क्यों? क्या चमोली में ऋषिगंगा की बाढ़ के बाद भी सरकार नहीं चेतेगी.
डा जी डी अग्रवाल अविरल गंगा के लिए स्वामी सानंद बन कर 115 दिन के उपवास के बाद दम तोड़ देते हैं, सरकार को फर्क नहीं पड़ता। सरकार को वैज्ञानिकों की बात समझ में नहीं आती लेकिन साध्वी उमा भारती जब कहती हैं कि धारी देवी का स्थान बदलने से केदारनाथ आपदा आयी तो इसे मान लिया जाता है।
प्रोफेसर शेखर पाठक हिमालय के इनसाइक्लोपीडिया हैं। उनकी हाल ही में हिंदी अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तक हरी भरी उम्मीद में तफ्सील से हिमालय की पीड़ा के साथ वो सारे तथ्य़ हैं जिनसे कथित विकासजीवियों की आंखें खुल जाएंगी।
डा नवीन और प्रोफेसर एस पी सती जैसे हिमालय के अध्येता वैज्ञानिकों की लेखमालाएं हैं। कुछ पर्यारणविद तो पद्म सम्मानित होकर भक्त हो चुके लेकिन चंडी प्रसाद भट्ट जैसे बुजुर्ग अभी हमारे बीच बचे हैं.
हिमालय के अंदर 700 किलोमीटर से ज्यादा की सुरंगें
सरकार इन आवाजों को सुनना ही नहीं चाहती। बांधों के लिए हिमालय के अंदर 700 किलोमीटर से ज्यादा की सुरंगे खोदी गई हैं। जाहिर सी बात है कि दिल्ली में विकास के नक्शे बनाने वालों को इस बात की कोई परवाह नहीं कि हिमालय अत्यधिक भूकंप संवेदी है। यहां बड़े भूकंप आ चुके हैं और पहाड़ के अंदर बारूदी धमाके इनकी संभावना बढ़ाते रहेंगे। सुरंगों से रिसता पानी भी भूगर्भीय हलचल बढ़ा ही रहा होगा। जब तक यह शतीति रहेगी चमोली में ऋषिगंगा की बाढ़ जैसी आपदाएँ रोकी नहीं जा सकती.
कृपया सुनें https://anchor.fm/ram-dutt-tripathi/episodes/–eq6t6q #Chamoli
उन्हें इतना तो पता है कि इस विशाल हिमालय के रहस्य अभी हम ठीक से जान भी नहीं पाए हैं। लेकिन विकास की इतनी जल्दी है कि हिमालय को समझने में समय नहीं गंवाना चाहते, भले ही चमोली में ऋषिगंगा की बाढ़ जैसे त्रासदी बार – बार होती रहें.
पंचेश्वर जैसा विशाल बांध बनाने की जिद कायम है। जन सुनवाई भी फर्जी तरीके से हुई। हिमालय की बात उठाने वालों के साथ बदसलूकी हुई, एक पार्टी के कार्यकर्ता ही आम जनता बन गए।
मैंने पिछले साल खुद क्षेत्र का दौरा कर लोगों से बात की। लोग बांध के रूप में तबाही नहीं चाहते, अपना घर बाप छोड़ उजड़ना नहीं चाहते लेकिन सरकार कहती है जनता ने हरी झंडी दे दी है। दरअसल हजारों करोड़ों बिछाने में जिन लोगों का फायदा होता है वे जिस भी खेमे में जिस भी हैसियत में हों, वे बहुत बलवान हैं लेकिन हिमालय के एक और आर्तनाद के बहाने उसके साथ इस तरह रोया तो जा ही सकता है।
याद आते हैं कर्नल पलफोर्ट
कर्नल पलफोर्ट अंग्रेजी हुकूमत में रायवाला यानी हरिद्वार के पास तैनात एक सुप्रिंटेडेट इंजीनियर का नाम है। जुलाई 1883 में उन्हें सूचना मिली है सुदूर हिमालय में अलकनंदा का सहायक नदी विरही में एक पहाड़ दरक कर बीच में आ गया है और बड़ी झील बन गई है। इसे गौना झील कहा गया। उन्होंने मौके पर अफसर तैनात किए वहां से रायवाला तक आनन फानन में टेलीफोन लाइन बिछाई ताकि पल पल की खबर मिले। अध्ययन कर हिसाब लगाया कि 15 अगस्त 1984 तक ये झील फट जाएगी।
इस बीच झील में फिसिंग भी की गई। और जैसे ही समय करीब आया हरिद्वार तक सारे किनारे खाली करा लिए। कुछ पुल भी हटा लिए गए। तय समय के 13 दिन बाद 27 अगस्त को बांध का एक हिस्सा टूटा लेकिन जनहानि शून्य रही। दूसरी बार जब यह झील पूरी तरह टूटी तो अंग्रेज जा चुका था 1970 की इस तबाही में कई लोग मारे गए.
दिनेश जुयाल , वरिष्ठ पत्रकार देहरादून
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
देहरादून में रहते हैं।
हिंदुस्तान और अमर उजाला में संपादक रह चुके हैं।–