श्रम का उत्पीड़न चरम  पर

कार्ल माक्स के जन्म दिन पर

इस्लाम हुसेन

इस्लाम हुसेन, कठगोदाम नैनीताल से 

सृष्टि की रचना से लेकर आजकल मनुष्यों के विभिन्न समूहों में संसाधन कमाने, छीनने और हथियाने का संघर्ष चला आ रहा है। सभ्यता के काल खण्डों में यह संघर्ष विभिन्न रूप देखने को मिलता है। लेकिन पिछले 200 वर्षों में विकसित हुए कथित भूमंडलीकरण में वर्तमान कोरोना काल में यह संघर्ष जिस रूप में यह सामने आया है वह सबसे अलग है और मानव सभ्यता के लिए सबसे अधिक भयावह है।
औद्यौगीकरण के आरम्भ में इसका जो रूप था वह सूचना क्रान्ति काल तक बदल चुका था, 20वीं सदी तक जो पूंजीवाद यह समझने लगा था कि उसका आस्तित्व गरीबी उन्मूलन में ही सम्भव है, (जैसे गरीब साईकिल चलाने के स्थान पर मोटर साईकिल या कार चलाए इसमें पूंजीवाद का विस्तार हो) यह गरीबी का नया स्तर माना जा सकता था जिससे पूंजीवाद फलता फूलता, और जिसके लिए ही पूंजीवाद का बनाया हुआ भूमंडलीकरण प्लेटफार्म था, लेकिन अब वर्तमान वैश्विक स्थिति में वह धीरे धीरे पुन: अपने विद्रूप रूप में आने लगा है।
कितने आश्चर्य की बात है कि इस प्रछन्न पूंजीवाद में पूंजीपति हैं, श्रम को लूटकर बढाई गई पूंजी है, पूंजी के अन्य उपादान मशीनें, कारखाने, पर्याप्त उर्जा/बिजली, कच्चा माल, मांग और चैनल वगैरह वगैरह सब हैं, और सब मुस्तैद है, लेकिन श्रम उपलब्ध नहीं हैं, आज श्रमिक को मजदूरी नहीं चाहिए, सुरक्षा चाहिए। अनजाने खौफ से, जिससे उसका जीवन खतरे में आ गया है। जिसका कोई तोड पूंजीवाद के पास नहीं है। पूंजी असहाय सी खडी है, उसका मजदूरों को आजीविका देने का ब्रह्मास्त्र भी बेकार हो गया है। आज पूंजी व श्रम के अन्तर्द्वन्द में श्रम उभय पक्ष हो गया है भले ही यह काल बहुत लम्बा न चले।
विश्व परिदृश्य में लाकडाउन खोलने और नहीं खोलने का अन्तर्द्वन्द पूंजीवाद के चरित्र को दर्शा रहा है। मार्क्स ने घोषणा पत्र व  दास कैपीटल रचते समय जिस उत्पाद को परिभाषित किया था, वह उत्पाद असेम्बली लाइन उत्पादन के वृहद उपयोग के बाद बदल गया था। उसमें श्रम को और हीन व निम्न बना दिया था, तब श्रम की विशेषज्ञता एक रूटीन में बदल गई थी, जो कि पूंजीवाद के फलने फूलने का बडा कारण बना। जिसके कारण श्रम का और अवमूल्यन हुआ, इसी के साथ भूमंडलीकरण के दौर से पूंजीवाद ने उपभोग का भूमंडलीकरण करके राष्ट्रवाद को को पीछे ढकेल दिया। सूचना क्रान्ति तक आते आते पूंजीवाद के इन दोनो गणों ने राजनैतिक सत्ता पर अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण कर लिया।
जिस पूंजीवाद ने वृहद उत्पाद और उपभोक्तावाद के बल पर राष्ट्रवाद की जमीन खिसकाई थी, उसी के कारण आज विश्व परिदृश्य में भूमंडलीयकरण का पैरामीटर घटता जा रहा है और उसके सापेक्ष राष्ट्रवाद का उभार बढता जा रहा है, ऐसा लगता है कि पूंजीवाद का यही अन्तर्द्वन्द आज नए विश्व के रचने का मुख्य कारण होने जा रहा है। अमेरिकी  चीनी खेमे और मध्यपूर्व सहित रूसी खेमें का आपसी विवाद और घात प्रतिघात, इसी की ओर इशारा कर रहा है।
भारत में मजदूरों के साथ जो व्यवहार हो रहा है और अमेरिका सहित पूंजीवादी विश्व में लाकडाउन को लेकर उत्पादन जारी रखने का जो संघर्ष है, वह मार्क्स के सिद्धान्त याद दिलाता है कि पूंजीवाद/पूंजीपति हर हथकंडे अपना कर सस्ते श्रम का उपयोग अपनी पूंजी बढाने का या यूं कहें अपना विस्तार करता रहता है।
इस काल में भारत की परिस्थिति पर दृष्टि डालें तो पाऐंगे कि यहां श्रम के उत्पीडन के नए रिकार्ड बन रहे हैं, श्रम कानूनों में बदलाव के बाद कोरोना काल ने पूंजीवादी व्यवस्था को नंगा कर दिया है। इस समय श्रम का उत्पीडन चरम  पर है। यह उत्पीडन यह भी दर्शाता है कि भारतीय उद्योग पर श्रमिकों की गैर मौजूदगी का कितना आतंक है, और उसे रोकने के लिए पूंजीवादी सत्ता प्रतिष्ठान कितने पतित तरीके अपना रहा है।
याद करें मनरेगा के लागू होने के समय क्या हुआ था, तब गांवों में मनरेगा में काम मिलने के कारण अचानक शहरों में सीजनल मजदूरों की कमी हो गई थी, तब देश के अनेक उद्योग संघों ने बाकायदा मनरेगा का विरोध करते हुए इसे उद्योग विरोधी कहा था। तब मनरेगा लाने वाली सरकार ने इस पर कोई कान न धरा हो, लेकिन उद्योग जगत की एक सशक्त लाबी सस्ते मजदूरों की अबाध आपूर्ति के लिए मनरेगा बजट के आवंटन में बढोत्तरी को रोकने का प्रयास करती रहती थी। संसद में मनरेगा पर किया गया व्यंग, प्रधानमंत्री जी की प्रारम्भिक उपलब्धी में गिना जाता है।
वर्तमान समय में राजनैतिक स्थिति देश के उद्योग पतियों के बहुत अनुकूल और समर्थक है तभी वह मजदूरों को प्रताडित करने के हर हथकंडे अपना रहे हैं।
ऐसे में जब मजदूरों के ऊपर जान का जोखिम, आजीविका पर भारी पड रहा है, लाक डाउन आरम्भ होते ही बाद गुजरात और महाराष्ट्र आदि राज्यों में जिस तरह मजदूरों ने प्रदर्शन और आंदोलन किए है वह उनकी बेचैनी और आशंका को दिखाती थी, लेकिन भारतीय पूंजीपति मजदूरों की जान की परवाह न करते हुए उन्हे हर तरह से रोककर अपने हित सुरक्षित करना चाहता है। यहां पूंजीपतियों/उद्योगपतियों के हित साधने के लिए वर्तमान राज सत्ता हर तरह से उद्योगपतियों का साथ दे रही है। गुजरात महाराष्ट्र पंजाब सहित औद्यौगिक राज्यों से मजदूर किसी भी सूरत में अपने घर न जा पाएं, भले ही वह भूखे मर जाएं, या वह कोरोना के चपेट में आकर मारे जाएं। यदि वह जैसे तैसे घर जाने की जुर्रत करें तो उनके आवागमन के साधन और सीमा बंद करके उन्हे रोका जाए। यदि तब भी न रुकें तो आंसू गैस और गोली चलाई जाए।
 गुजरात मध्यप्रदेश आदि की सीमाओं पर पूंजीपतियों के हित में पुलिस ने जो मजदूरों के खिलाफ नंगा नाच किया है वह इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह प्रकरण बतलाता है कि देश का पूंजीपतिवर्ग और उसका समर्थक राजनैतिक नेतृत्व कितना खोखला और हृदयहीन है। वह मजदूरों के लिए  न तो रोटी की व्यवस्था कर सकता है और न किसी बीमारी से बचाने की व्यवस्था कर सकता है।
यह कोरोना काल कब समाप्त होगा या इसका प्रभाव भविष्य पर क्या पडेगा यह तो आने वाले समय में स्पष्ट होता जाएगा। लेकिन इस काल ने पूंजीवाद द्वारा स्थापित की जा रही अवधारणाओं को अवश्य नंगा कर दिया है।
पूंजीवाद ने हमेशा से ही उत्पादन,उत्पादों/ उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम की भागीदारी को निम्नतम स्थान दिया। पूंजीपति  के समर्थक कथित आध्यात्मिक नेता तक श्रम को बहुत भाव नहीं देते थे। क्योंकि सभी के अन्तर्निहित सम्बंध और हित परस्पर जुडे हैं, यह सभी मजदूरों को केवल उपभोग की दृष्टि से देखते हैं। लेकिन कोरोना काल ने यह सिद्ध कर दिया है कि उत्पाद हो अथवा विकास का केन्द्र दोनों में श्रम ही उभय पक्ष है ।
21 वी सदी के प्रारम्भिक काल में आए इस कोरोना काल ने सारी परिभाषाओं को और तहस नहस कर दिया है, बहुत सी अवधारणाओं को समूल नष्ट कर दिया है। कोरोना काल ने सबको अपने अतिवादी और वास्तविक रूप में दिखा दिया है, राजनीति, धर्म, आस्था और प्रकृति को भी, लेकिन पूंजीवाद और पूंजीपतियों का जो अपना नंगा रूप दिखा है वैसा सभ्य इतिहास में कभी नहीं हुआ है।

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