राजनीति का अपराधीकरण क्या : अपराधियों को देश का कानून बनाने की इजाजत मिलनी चाहिए?
क्या अकेले सुप्रीम कोर्ट के चाहने से राजनीति का अपराधीकरण रुक पाएगा ? क्या अपराधियों को देश का कानून बनाने की इजाजत मिलनी चाहिए? क्या सियासी फायदे के लिए राजनीतिक दल अपने यहां अपराधियों को संरक्षण दे रहे हैं?
क्या अपराधियों को राजनीति में आने से रोकने के लिए बनाए गए नियमों की अवहेलना हो रही है?
ये वो सवाल है जिनका जबाब किसी भी दल के पास नहीं है?
अपराधियों को अपने दल में संरक्षण देने के मामले में कोई भी दल किसी से भी पीछे नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी ने यह साफ कर दिया है कि राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए कोई भी दल गंभीर नहीं है..
मंगलवार को देश की सबसे बड़ी अदालत ने कुछ तीखे सवाल उठाए हैं…कुछ तीखे सवाल पूछे हैं..कुछ तीखी बातें कही है…इन बातों की गूंज सत्ता के गलियारों में लंबे समय तक रह सकती है..सियासी दलों के भीतर अकलाहट और बेचैनी भर सकती है ..लेकिन ये बात पक्की है कि देश की सबसे बड़ी अदालत का ये रुख अब राजनीतिक दलों को सोचने पर मजबूर करेगा..
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ‘राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसकी शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। मगर हमारे हाथ बंधे हैं। हम सरकार के काम में दखल नहीं दे सकते..लेकिन हम केवल कानून बनाने वालों की अंतरात्मा से अपील कर सकते हैं।’
अब ये बात आप पूछ सकते हैं कि राजनीतिक दलों की अंतरात्मा जीवित है ? इस सवाल के जवाब में एक लंबी चुप्पी ही आपको मिलेगी…क्योंकि जनाब इस हम्माम में तो सब एक से हैं..मुहावरा बदल दिया है हमने….हम वो नहीं कहना चाहते…जिसके कहने से उन्हें शर्म आए…वैसे आप सवाल ये भी पूछ सकते हैं कि क्या उन्हें शर्म आती है… .शायद नहीं…
अभी हाल का एक किस्सा है..अपने यूपी का ही…प्रयागराज की सांसद रीता बहुगुणा के बंगले पर आगजनी करने के आरोपी पूर्व विधायक जितेंद्र सिंह बबलू को बीजेपी ने अपनी पार्टी में शामिल कर लिया था…रीता बहुगुणा जोशी ने कड़ा ऐतराज जताया …शीर्ष नेताओं से बात की …तब जाकर बबलू बाबू को बाहर का दरवाजा दिखाया गया..इतना ही नहीं एक मासूम सा तर्क भी दिया गया कि…जिला इलाई से गलत रिपोर्ट की वजह से उन्हें पार्टी में शामिल कर लिया गया था..जैसे लखनऊ वालों को तो महज सौ ढेर सौ किलोमीटर की कुछ खबर ही नहीं होती..और रीता बहुगुणा जोशी के घर जलाने का कांड तो राजधानी लखनऊ में हुआ था…खैर छोड़िए इन बातों को…ये कहानी केवल बीजेपी की नहीं है..दूध का धुला तो कोई भी नहीं…कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड और आरजेडी सबका यही हाल है..
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को भाजपा, कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी, एलजेपी और सीपीआई पर एक-एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया। वहीं, एनसीपी और सीएपीएम पर पांच-पांच लाख रुपए का जुर्माना किया गया है। कोर्ट ने आदेश देने से पहले कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि बार-बार अपील करने के बावजूद राजनीतिक दलों ने नींद तोड़ने में रुचि नहीं दिखाई।
चुनाव में जीत का दमखम रखने वाले बाहुबलियों को अपनी पार्टी का टिकट देने में कोई भी संकोच नहीं करता..जीत की गारंटी मिले तो वह रावण को भी टिकट दे सकते हैं…
लेकिन अब शायद हालात बदल सकते हैं…चुनावी उम्मीदवार के आपराधिक रिकॉर्ड को सार्वजनिक न करने पर सुप्रीम कोर्ट सख्त हो गया है… मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी और कांग्रेस समेत 8 दलों पर जुर्माना लगाया। इन सभी 8 पार्टियों ने बिहार चुनाव के समय तय किए गए उम्मीदवारों के क्रिमिनल रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं किया था।
राजनीतिक दलों पर जुर्माना तो लगाया ही गया …उन्हें हिदायत दी गई है कि आगे से सभी राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों का चयन करने के 48 घंटे के भीतर उनका क्रिमिनल रिकॉर्ड सार्वजनिक करना होगा। सभी पार्टियों को अपने सभी उम्मीदवारों की जानकारी न केवल अपनी वेबसाइट पर देनी होगी बल्कि दो अखबारों में भी पब्लिश करानी होगी। उम्मीदवार के चयन के 72 घंटे के भीतर इसकी रिपोर्ट चुनाव आयोग को भी सौंपनी होगी।
वैसे सियासी दल भी कम चतुराई थोड़े दिखाते हैं..ये आदेश तो पहले भी थे..लेकिन वे ऐसे उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास के बारे में उन्हीं अखबारों में छपवा देते थे जो लोगों तक पहुंचते ही नहीं…सुप्रीम कोर्ट ने इनकी चोरी पकड़ ली है…अदालत ने साफ कर दिया है कि अब वे ऐसा नहीं करें…ऐसे महानुभावों के बारे में उन अखबारों में छपवाया जाए..जिनकी प्रसार सख्या सबसे ज्यादा हो.. वैसे ये आदेश पहले से ही थे…लेकिन अदालत की आंखों में बंधी पट्टी का अर्थ इन्होंने ठीक से समझा नहीं..अदालत ने खुद ही कहा है कि अवमानना की कार्रवाई से बचने के लिए पार्टियों ने आपराधिक छवि वाले प्रत्याशियों के रिकॉर्ड की जानकारी ऐसे अखबारों में छपवाई, जिनकी प्रसार संख्या बहुत कम थी। जबकि हमने आदेश दिया था कि जानकारी ज्यादा प्रसार वाले अखबारों में प्रकाशित कराई जाए। इतना ही नहीं, इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी यह जानकारी प्रसारित की जाए। भविष्य में राजनीतिक दल ऐसी गलती न दोहराएं और आदेश का सही तरह से पालन किया जाए।
नए आदेश के साथ ही कोर्ट ने अपने पिछले फैसले में बदलाव किया है। फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि उम्मीदवार के चयन के 48 घंटे के अंदर या फिर नामांकन दाखिल करने की पहली तारीख से दो हफ्ते पहले (इन दोनों में से जो भी पहले हो) उम्मीदवारों की पूरी जानकारी देनी होगी। वहीं पिछले महीने कोर्ट ने कहा था कि इसकी संभावना कम है कि अपराधियों को राजनीति में आने और चुनाव लड़ने से रोकने के लिए विधानमंडल कुछ करेगा।
इस मामले में नवंबर 2020 में एडवोकेट ब्रजेश सिंह ने याचिका दायर की थी। उन्होंने बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान उन पार्टियों के खिलाफ मानहानि की अर्जी दाखिल की थी, जिन्होंने अपने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड का ब्योरा नहीं दिया था।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के चयन में कोई सावधानी बरतेंगे? या फिर अपराधियों को राजनीति में लाने और उनके ऊपर लगे आपराधिक मुकदमों को वापस लेने का खेल जारी रहेगा। सियासत को यह सवाल खुद से पूछना चाहिए कि क्या अपने दल के लोगों से मुकदमे हटाने और विरोधियों पर मुकदमे लगाने से लोकतंत्र जीवित रह पाएगा?
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