फिर मुलाकात होगी – मगरमच्छ

मणि शंकर अय्यर

—मणि शंकर अय्यर

राहुल गांधी की समानता किंग लीयर से की जाये तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके अपने चहेतों ने ही सबसे पहले उनसे दग़ाबाज़ी की है। जिनके प्रति उन्होंने कम प्रेम दिखाया, आज वो ही उनके साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं।

‌वर्ष 2004 में जब वह संसद में आये तो उनके साथ सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी आए। ये दोनों इनके साथ साये की तरह रहते थे। आपको वो आंख मारने वाली घटना तो याद ही होगी। और शायद आपको राहुल गांधी का बयान भी याद हो जिसमें उन्होंने कहा था कि सिंधिया एक ऐसे शख्स हैं जो उनके घर कभी भी आ सकते हैं। इस निकटता का ही परिणाम था कि पार्टी में वरिष्ठ और युवा नेताओं के बीच गुटबाजी की चर्चाएं शुरू हो गईं। कांग्रेस में प्राथमिकता पाने वाले नेताओं की होड़ लग गई। पार्टी में कुछ ऐसे भी युवा नेता थे जो अपनी महत्वाकांक्षा और उपलब्धियों के प्रति अधिक ईमानदार किंतु आडंबर विहीन थे। ये वही नेता हैं जो अब भी पार्टी के विश्वासपात्र हैं। वहीं कुछ ऐसे भी नेता हैं जो उपलब्धियां हासिल करने के लिए सिद्धांतों से समझौता कर लेते हैं।

ऐसे लोग हर प्रकार से अपना मतलब ही देखते हैं। हमारी पीढ़ियों में लोग जय प्रकाश नारायण (जिन्हें नेहरू अपना उत्तराधिकारी मानते थे) को याद करते हैं। वहीं, आचार्य नरेंद्र देव, अशोक मेहता के नेहरू से सिर्फ वैचारिक मतभेद थे। उनका मानना था कि नेहरू जरूरत से ज्यादा सोशलिस्ट हैं। उन्होंने मतलब सिद्ध करने के लिए नेहरू से अलगाव नहीं किया था बल्कि सिद्धांतों को लेकर अलगाव किया था क्योंकि वो भारत के लिए एक अलग वैचारिक बदलाव चाहते थे। इसके बाद सिंडिकेट पध्दति का उद्भव हुआ। इंदिरा गांधी किसी के हाथों की कठपुतली नहीं थीं। चंद्र शेखर और उनके युवा सहयोगियों ने इंदिरा गांधी पर धर्मनिरपेक्ष न होने का आरोप लगाया। उनका जनता पार्टी सरकार का प्रयोग निष्फल सिद्ध हुआ।

राजीव गांधी को भी इन परिस्थितियो का सामना करना पड़ा। उनके प्रिय मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। उस समय उनके सिंधिया और पायलट के रूप में आरिफ मोहम्मद खान निकटस्थ नेता थे। उनके एक चचेरे भाई अरुण नेहरू के साथ मिलकर इन्होंने जनमोर्चा का गठन किया। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर सरकार का गठन किया। ये गठबंधन टिक नहीं सका और बेहद कम समय मे सरकार गिर गई। ये उन लोगों की किस्मत का वर्णन है जिन्होंने कांग्रेस का दामन छोड़ा।

अब पायलट और सिंधिया भी ये कह सकते हैं कि देश उनके लिए आंसू बहाए और मीडिया उनकी आवाज़ बने लेकिन कांग्रेस अपने आंसू पूंछ के अपनी नियति की राह पर आगे बढ़ चुकी है। यह कांग्रेस के लिए थोड़ा मुश्किल दौर है क्योंकि कभी इतने बड़े पैमाने पर पार्टी नहीं सिमटी है। लेकिन खत्म नहीं हुई है। सचिन पायलट ने विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के आगे टिक न सके। उन्हें पार्टी में युवा होने के नाते उस तरह के पद नहीं दिए गए ,क्योंकि उनसे ज्यादा गहलोत का पलड़ा भारी रहा। वहीं सिंधिया को भी पराजय का सामना करना पड़ा जबकि कमलनाथ ने जीत हासिल की थी।

उन्हें पार्टी द्वारा दिये गए पद और प्रतिष्ठा अपनी योग्यता से कम लगे क्योंकि उन्हें पहले से ही सोनिया गांधी और राहुल गांधी द्वारा काफी प्रेम, स्नेह और पद दिए गए थे। हालांकि उन्हें ये सब कम लगा और उन्होंने कांग्रेस को ही अंतवोगत्वा नुकसान पहुंचाया। जब पायलट के पिता की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई तो वह मझ 23 साल के थे। 26 साल की उम्र में वह सांसद बने। 32 वर्ष की उम्र में उन्हें केंद्रीय मंत्री के पद से नवाजा गया। 36 वर्ष की उम्र में वह राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। 40 वर्ष की उम्र में वह उप मुख्यमंत्री की कुर्सी को सुशोभित कर रहे थे। इसमें कोई शंका नहीं कि उन्होंने काफी मेहनत की लेकिन उनके पीछे कांग्रेस आलाकमान का भी हाथ था। इसी प्रकार ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता की विमान दुर्घटना में मृत्यु के बाद वह सांसद बने। वह कांग्रेस के अच्छे समय के साथी बने। लेकिन असली अग्निपरीक्षा तब होती है जब आप संकट के समय साथ देते हैं।

इस बात में कोई संशय नहीं कि आगे वह वापस कांग्रेस का दामन थाम लें लेकिन यह कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए एक सबक है। पार्टी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की है। मैं ये मानता हूँ कि नेहरू से लेकर राजीव गांधी औए इंदिरा गांधी ने लोगों को मिन्नतें करते देखा है कि उन्हें कहीं एडजस्ट या समायोजित किया जाए। लेकिन शीर्ष नेतृत्व को सबका ही ध्यान रखना पड़ता है, जो ऐसा नहीं करते उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

नेहरू-गांधी-वाड्रा के वंशजों ने सात दशकों से कार्यकर्ताओं को आश्वासन ही दिया है, जो कांग्रेस के लिए घातक साबित हो रहा है। अब केंद्र और राज्य सरकारों में पार्टी कार्यकर्ताओं को समायोजित करने की संभावनाएं बेहद कम हो गई हैं। शीर्ष नेतृत्व से आग्रह है कि वह इसका निर्णय उम्र, टैलेंट या अन्य पैमानों के बजाय निष्ठा, समर्पण के पैमाने पर करें और ऐसे लोगों को मौका दें जो स्वयं की महत्वाकांक्षा से ऊपर पार्टी हिट को रखते हों।

“इसी के साथ सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया को अलविदा। फिर मुलाकात होगी।

(लेखक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हैं और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं. यह लेख 15 जुलाई के इंडियन एक्सप्रेस से साभार लिया गया)

( अनुवाद सुधांशु सक्सेना द्वारा किया गया है)”

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