आयुर्वेद में 80 प्रकार के वात रोग

(वात रोग पर चर्चा भाग – 4)

आयुर्वेद के चिकित्सा शास्त्रों में 80 प्रकार के वात संबंधी रोगों का उल्लेख किया गया है। जिनमें स्वाद नाश, बहरापन, शून्यता, अफ़ारा, मुख का टेढ़ा होना, गर्दन में जकड़न, ठोढ़ी की जकड़न, कमर दर्द, एक पैर का दर्द, पूरे शरीर का अकड़ना, कंपन, झटके आना, पक्षाघात, कुबड़ापन, पैरों में जलन, आदि रोग प्रमुख हैं। वात व्याधियों के उत्पन्न होने के कारणों का वर्णन करते हुये आचार्य चरक चिकित्सा स्थान में लिखते हैं:

सक्षमशीताल्पलध्वन्नव्यवायति प्रजागरै:। विषमादुपचाराश्च दोषासृकस्रवणदापि॥

लंघन प्ल्वनात्यध्वव्यायामादिवीचेष्टतै:। धातुनाम संक्षयाच्चिंताशोक रोगातिकर्षणात॥

वेग संधारणादामादभिघातादभोजनात। मर्मबाधाद्गजोष्ट्राश्वशीघ्रायानापतंसनात॥

देहे स्रोंतांसि रिक्तानि पूरयित्वाsनिलोबली। करोति विविधान व्याधीन सर्वाङ्गैकाङ्गसंश्रयान॥

अर्थात, ठंडे और रूखे पदार्थों के काणे तथा हल्का (लघु) भोजन के निरंतर सेवन करते रहने, अधिक मैथुन रात्रि जागरण, विषम उपचार से, देश और काल के विरुद्ध असात्म्य आहार विहार का सेवन करने से, वमन, विरेचन और बस्ति कर्म के द्वारा दोष, मल एवं रक्त के अत्यधिक निकाल जाने से, अधिक उछलने, कूदने, तैरने, पैदल चलने व अधिक व्यायाम करने से, धातुओं के क्षय होने से, चिंता, शोक रोगजनित दुर्बलता तथा मल, मूत्र, आदि वेगों के धरण करने से, शरीर में आमरस की उपस्थिति, चोट, उपवास तथा मर्म स्थान की बाधा से तथा हाथी, घोड़े, ऊंट आदि तेज चलने वाली सवारियों से गिर जाने के कारण शरीर में प्रकुपित वायु रिक्त स्रोतों को पूरित करके अनेक प्रकार की एकांगिक (लोकल) व सर्वांगिक (जनरल) व्याधियों को उत्पन्न कर देता है। 

चूंकि स्वस्थ नागरिकों से ही स्वस्थ समाज का निर्माण होता है, इसलिए, मीडिया स्वराज ने इस व्यापक विषय को आमजन तक सरल भाषा में पहुंचाने के लिए चर्चाओं की एक श्रंखला तैयार की है। इस श्रंखला के चतुर्थ एवं वात दोष के समापन अंक में आज श्री रामदत्त त्रिपाठी के साथ आयुषग्राम चित्रकूट के संस्थापक, भारतीय चिकित्सा परिषद, उ.प्र. शासन में उपाध्यक्ष तथा कई पुस्तकों के लेखक, आयुर्वेद फार्मेसी एवं नर्सिंग कॉलेज के प्रधानाचार्य एवं प्रख्यात आयुर्वेदचार्य आचार्य वैद्य मदन गोपाल वाजपेयी, एवं बनारस विश्वविद्यालय के दृव्य गुण विभाग के प्रो. (डॉ) जसमीत सिंह वात दोष के सैद्धांतिक पक्ष एवं व्यावहारिक पक्ष के साथ-साथ, इसके प्रकोप एवं क्षय के लक्षणों, बचाव के उपाय, एवं इनके रोगों पर आगे विस्तार से चर्चा कर रहे हैं कि एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार यह समझ सकता है कि अब उसका वात दोष असंतुलित हो रहा है और उससे बचाव के लिए अपने आहार-विहार, जीवनचर्या, दिनचर्या एवं ऋतुचर्या में क्या क्या परिवर्तन करना चाहिए :

Leave a Reply

Your email address will not be published.

9 + five =

Related Articles

Back to top button