बाबरी मस्जिद के पैरोकार हाशिम अंसारी के बेटे इक़बाल ने मोदी के राम मंदिर भूमि पूजन का निमंत्रण स्वीकार किया

राम दत्त त्रिपाठी, पूर्व संवाददाता, बीबीसी 

बाबरी मस्जिद के एक प्रमुख पैरोकार स्वर्गीय हाशिम अंसारी  हाशिम अंसारी आज दुनिया में न होकर भी चर्चा में हैं. चर्चा की वजह यह है कि राम जन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने जिन चुनिंदा लोगों को पाँच अगस्त को भूमि पूजन का विशेष निमंत्रण भेजा है, उनमें उनके बेटे इक़बाल अंसारी प्रमुख हैं. भूमि पूजन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों होना है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख डा. मोहन भागवत मुख्य अतिथि होंगे. 

 ट्रस्ट के चेयरमैन महंत नृत्य गोपाल दास की ओर से  निमंत्रण कार्ड इक़बाल अंसारी को मिला. और उन्होंने इसे “भगवान राम की इच्छा” मानकर मंज़ूर किया. पत्रकारों से से बातचीत में उन्होंने कहा, “अयोध्या में हिंदू और मुस्लिम पारस्परिक सौहार्द में रहते हैं.”

अयोध्या में हिंदू – मुस्लिम दोनों समुदायों के लोगों की रोज़ी – रोटी मंदिरों और तीर्थ यात्रियों के सहारे चलती है. इसीलिए अंसारी ने कहा , ‘जब मंदिर बन जाएगा, अयोध्या के भाग्य बदल जाएंगे. अयोध्या और सुंदर हो जाएगी और स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा, क्योंकि भविष्य में इस मंदिर को तीर्थ की तरह लोग देखने आएंगे.’ इक़बाल ने याद दिलाया कि अयोध्या में हर धर्म-पंथ के देवी-देवता हैं. यह संतों की भूमि है.  वह खुश हैं कि राम मंदिर बन रहा है.’

इक़बाल ने प्रशासन को पत्र लिखकर सुझाव दिया था कि बाबरी मस्जिद के बदले में मुसलमानों को जो ज़मीन मिलनी है, वह उनके घर के पास ख़ाली ज़मीन में से दिया जाए. लेकिन सरकार ने इसे मंज़ूर नहीं किया. मस्जिद के लिए क़रीब पचीस किलोमीटर दूर धन्नीपुर  गाँव में जगह दी गयी है. 

वास्तव में इक़बाल अंसारी को जो सम्मान मिल रहा है उसमें उनके स्वर्गीय पिता हाशिम अंसारी का योगदान है. हाशिम गज़ब के जीवट के आदमी थे. लेकिन जीवन के आख़िरी दौर में वह मायूस रहने लगे थे. एक मुलाक़ात में कारण पूछने पर उन्होंने बताया था, “कुछ मायूसी है, हालात को देखते हुए. जो मुखालिफ़ पार्टियां चैलेंज कर रही हैं, उससे मायूसी है और हुकूमत कोई एक्शन नहीं लेती.”

यह बात वर्ष 2010 की है हाईकोर्ट जजमेंट से पहले . उन्होंने कहा था,””मैं फ़ैसले का भी इंतज़ार कर रहा हूँ और मौत का भी…लेकिन यह चाहता हूँ मौत से पहले फ़ैसला देख लूँ.” हाईकोर्ट का फ़ैसला तो उनके सामने आ गया था. पर छह साल बाद जुलाई 2016 में 95 वर्ष की उम्र में  उनकी मौत हो गयी. वह सुप्रीम कोर्ट का आख़िरी फ़ैसला नहीं देख पाए. 

हाशिम अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा बचे हुए लोगों में से थे जो दशकों तक अपने धर्म और बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और क़ानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ रहे थे.

स्थानीय हिंदू साधु-संतों से उनके रिश्ते कभी ख़राब नहीं हुए. मै जब भी उनके घर गया, हमेशा अड़ोस पड़ोस के हिंदू युवक चचा-चचा कहते हुए उनसे बतियाते हुए मिले.हाशिम ने कहा था, “मैं सन 49 से मुक़दमे कि पैरवी कर रहा हूँ, लेकिन आज तक किसी हिंदू ने हमको एक लफ़्ज़ ग़लत नहीं कहा. हमारा उनसे भाईचारा है. वो हमको दावत देते हैं. मै उनके यहाँ सपरिवार दावत खाने जाता हूँ.”

विवादित स्थल के दूसरे प्रमुख दावेदारों में निर्मोही अखाड़ा के राम केवल दास और दिगंबर अखाड़ा के राम चंद्र परमहंस से हाशिम की अंत तक गहरी दोस्ती रही.परमहंस और हाशिम तो अक्सर एक ही रिक्शे या कार में बैठकर मुक़दमे की पैरवी के लिए अदालत जाते थे और साथ ही चाय-नाश्ता करते थे. ये तीनों  दोस्त अब जीवित नहीं रहे. अयोध्या अवध की मिली जुली गंगा जमुनी तहजीब का केंद्र रहा है.हाशिम इसी संस्कृति में पले बढ़े थे, जहां मुहर्रम के जुलूस पर हिंदू फूल बरसाते हैं और नवरात्रि के जुलूस पर मुसलमान फूलों की बारिश करते हैं.

 2009 में हाशिम हज के लिए मक्का गए थे तो कई जगह उन्हें भाषण देने के लिए बुलाया गया. हाशिम ने वहाँ लोगों को बताया कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को कितनी आज़ादी है और वे कई मुस्लिम मुल्कों से बेहतर हैं.

 

हाशिम 2009 में हज के लिए मक्का गए थे तो कई जगह उन्हें भाषण देने के लिए बुलाया गया. हाशिम ने वहाँ लोगों को बताया कि हिंदुस्तान में मुसलमानों को कितनी आज़ादी है और वे कई मुस्लिम मुल्कों से बेहतर हैं.

उनका  परिवार कई पीढ़ियों से अयोध्या में रह रहा है. वो 1921 में पैदा हुए थे, 11 साल की उम्र में सन् 1932 में उनके पिता का देहांत हो गया.दर्जा दो तक पढाई की. फिर सिलाई यानी दर्जी का कम करने लगे. यहीं पड़ोस में फैजाबाद में उनकी शादी हुई. उनके बच्चे हैं. एक बेटा और एक बेटी. उनके परिवार की आमदनी का कोई खास ज़रिया नहीं है.

छह दिसंबर, 1992 के बलवे में बाहर से आए दंगाइयों ने उनका घर जला दिया, पर अयोध्या के हिंदुओं ने उन्हें और उनके परिवार को बचाया.जो कुछ मुआवज़ा मिला था उससे हाशिम ने अपने छोटे से घर को दोबारा बनवाया और एक पुरानी एम्बेसडर कार ख़रीदी थी.

वह  एक बात बड़े गर्व से कहते थे, “हमने बाबरी मस्जिद की पैरवी ज़रूर की. लेकिन राजनीतिक फ़ायदा उठाने के लिए नहीं.” उनके एक साथी ने बताया था कि छह दिसंबर, 1992 के बाद एक बड़े नेता ने उनको दो करोड़ रुपए और पेट्रोल पंप देने की पेशकश की तो हाशिम ने उसे न केवल ठुकरा दिया बल्कि उस संदेशवाहक को दौड़ा दिया.

उनके घर की दीवार पर बाबरी मस्जिद की पुरानी तस्वीर टंगी रहती थी  और घर के बाहर अंग्रेज़ी में बाबरी मस्जिद पुनर्निमाण समिति का बोर्ड. आख़िरी बार जब मैं उनसे मिलने पहुंचा था तो हाशिम जाँघिया पहने लेटे थे. जल्दी जल्दी लुंगी और कुरता पहना, सिर पर सफ़ेद टोपी लगाई और बातचीत के लिए तैयार हुए.

उनकी याददाश्त 90 साल की उम्र में भी दुरुस्त थी. वर्ष 1934 का बलवा भी उन्हें याद था, जब हिंदू वैरागी संन्यासियों ने बाबरी मस्जिद पर हमला बोला था. उन्होंने बताया था कि ब्रिटिश हुकूमत ने सामूहिक जुर्माना लगाकर मस्जिद की मरम्मत कराई और जो लोग मारे गए उनके परिवारों को मुआवज़ा भी दिया था.

सन 1949 में जब विवादित मस्जिद के अंदर मूर्तियां रखी गईं, उस समय प्रशासन ने शांति व्यवस्था के लिए जिन लोगों को गिरफ़्तार किया, उनमें हाशिम भी शामिल थे. हाशिम ने कहा था, “चूँकि मै सोशल (मेलजोल रखने वाला) हूँ इसलिए लोगों ने मुझसे मुक़दमा करने को कहा और इस तरह मैं बाबरी मस्जिद का पैरोकार हो गया.”

बाद में 1961 में जब सुन्नी वक्फ़ बोर्ड ने मुक़दमा किया तो उसमे भी हाशिम एक मुद्दई बने. पुलिस प्रशासन की सूची में नाम होने की वजह से 1975 की इमरजेंसी में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और आठ महीने तक बरेली सेंट्रल जेल में रखे गए.यह भी एक वजह हो सकती है कि हाशिम ने कांग्रेस को कभी माफ़ नहीं किया. बाबरी मस्जिद मामले में हर क़दम पर वो कांग्रेस को दोषी मानते थे.

वह  सभी पार्टियों के मुस्लिम  नेताओं के भी आलोचक थे. बातचीत में वो बार-बार जोर देते थे, “हर हालत में हम अमन चाहते हैं, मस्जिद तो बाद की बात है.”हाशिम कहते थे, “अगर हम मुक़दमा जीत गए तो भी मस्जिद निर्माण तब तक नहीं शुरू करेंगे, जब तक कि हिंदू बहुसंख्यक हमारे साथ नहीं आ जाते.”हाशिम की सुरक्षा के लिेए स्थानीय पुलिस अफसरों ने उनके घर के बगल ही पुलिस पिकेट तैनात कर दी थी.

अगर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के समय या आज भूमि पूजन के समय वह जीवित होते तो क्या प्रतिक्रिया होती कहना मुश्किल है. शायद  वही होती जो बेटे इक़बाल अंसारी की है. 

कृपया अधिक जानकारी के लिए इसे  पढ़ें

 https://mediaswaraj.com/ayodhya_history_of_long_dispute/

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ये लेखक के निजी विचार हैं. 

राम दत्त त्रिपाठी

लेखक राम दत्त त्रिपाठी, लगभग चालीस वर्षों से अयोध्या विवाद का समाचार संकलन करते रहे हैं. वह क़ानून के जानकार हैं. लम्बे अरसे तक बीबीसी के संवाददाता रहे. उसके पहले साप्ताहिक संडे मेल और दैनिक अमृत प्रभात में काम किया.

 

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