आभा

चौमासी माह सावन
हरे भरे खेत और मैदान, 
ढलकती शाम की बुंछेरी बूंदे
बीती रात की नम ओस की बूंदे, 
चमकती हरी पत्तियों पर
बिखर गयी मोतियोँ की माला है.
 
खेतों की चलताऊ मेडें
नागिन सी लहराती पतली पगडंडी, 
बासमती रामभोग धानों की महक
सुबह को महकाती सौंधी मिट्टी, 
हरे पेड़ों के झुरमुटों में बसा गाँव 
गाँव से हैं कुछ दूर खेत 
वहीं एक पाठशाला है.
 
फांवडे को कांधे पर रखे
तन पर डाले जर्जर पसीने से भीगी बंडी, 
बेटे का एक हाथ अपने हाथ में लिए
दूसरे नन्हें हाथ में काली चमकती पट्टी, 
बस्ते में नरकुल की कलम पहाडे की किताब
मिट्टी का इक लाल बुदक्का है.
 
सुबह के धुंधलके में चले
साइकिल पर पिता पुत्र, 
पगडंडियों की राह छोड
सडक को थामे मीलों दूर, 
उज्जवल जीवन की आस लिये
जीवन को पढने की पुस्तकें
थोड़ा सा भोजन साथ लिये, 
इम्तिहान है उस बच्चे का 
या कहूँ पिता का है ? 
 
नये पुराने कागजों पर
उकेरी गयी कुछ आभामय तस्वीरें, 
रंगों आभूषणों से सजी हुई
ज्यों बसायी हों अपनी जागीरें, 
सब हैं ये वहम या फिर
चित्रकारी और कला है.
 
गिरती उठती राहों पर है पिता पुत्र
सुबह का सूरज सब देख रहा, 
ओसीले हरे कैनवस पर 
उनकी तश्वीर उतार रहा, 
काया माया तो सब छोड़ो
छाया की आभा बना रहा है.
 
ब्रजेश सिंह

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