लोकतंत्र एवं संघीय ढांचे पर गम्भीर चुनौतियां
एक लोकतांत्रिक देश एवं संघीय ढांचे की व्यवस्था का चरमराना इस समय देश के सामने एक गम्भीर चुनौती के रूप में प्रस्तुत हुआ है. संदर्भ विगत एक वर्ष की कुछ घटनाएं हैं. सर्वप्रथम , कृषि , जो संघीय संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत संविधान की समवर्ती अनुसूची में है, अर्थात राज्यों का विषय है, उस पर केंद्र सरकार द्वारा कानून का निर्माण करना. इस को लेकर तमाम विवादों के अतिरिक्त चिंता का विषय इस से संघीय ढांचे को होने वाली चोट है. दूसरा संदर्भ ,हाल की त्रासदी में ऑक्सीजन की आपूर्ति में आवंटित एवम् आवश्यकता के अनुरूप कुछ राज्यो को निर्धारित कोटा प्राप्त नहीं होना है.
इस विषय में एक उच्च न्यायालय एवम् फिर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय के अनुरूप दिल्ली को प्रतिदिन 700 क्यूबिक मीटर गैस की आपूर्ति सुनिश्चित करने का आदेश जारी हुआ है. ऐसा ही प्रकरण कर्नाटक राज्य के संदर्भ में भी उपस्थित हुआ है.
यहां भी प्रश्न देश के संघीय ढांचे के अनुरूप केंद्र सरकार द्वारा कार्य नहीं करने को लेकर है. चूंकि ,उपरोक्त संदर्भित दोनों प्रश्न देश की करोड़ों जनसंख्या के जीवन से संबंधित हैं , केंद्र द्वारा संघीय ढांचे के अनुरूप कार्य न करना लोकतंत्र पर भी गहरी चोट है.
कृषि व्यवसाय से करोड़ों लोगों का जीवन जुड़ा हुआ है अतः इस संदर्भ में संवैधानिक सीमा का पालन किया जाना चाहिए था. इस प्रकार ही वैश्विक और राष्ट्रीय त्रासदी और संकट के दौर में केंद्र द्वारा पक्षपात अथवा राजनीतिक द्वेष प्रदर्शित करना कदापि उचित नहीं.
लोकतंत्र संकट में :-
देश में कमजोर और बुनियादी शर्तों से दूर कमजोर लोकतंत्र पर गहरी चोट और चुनौतियां चिंता का विषय हैं. राज्य एक संस्था के रूप में आसानी से न्यायालय में जा सकते हैं , लेकिन देश की जनता के जीवन , अनिवार्य आवश्यकताओं और दिन – प्रतिदिन की समस्याओं के संबंध में प्रत्येक विषय पर कोर्ट में जाने का तात्पर्य सरकार की अनुपस्थिति अथवा सरकार द्वारा अपने कर्तव्य का पालन नहीं करना है. इसके अतिरिक्त भी नागरिकों और सरकार से जुड़े प्रश्नों पर व्यक्तियों द्वारा संबंधित न्यायालयों में प्रकरण दर्ज किए जाने की रफ्तार बड़ी है.
लोकतंत्र का ढांचा खतरे में :-
अर्थात इन घटनाओं से हम यह पाते हैं कि, देश की व्यवस्था चार भागों में विभक्त दिखाई देती है. एक, केंद्र सरकार , दूसरी , राज्य सरकार , तीसरी, विपक्ष और चौथी , जनता. और कुल निष्कर्ष रूप में देश की दुर्दशा . दरअसल , वर्तमान में लोकतंत्र , सरकार और सरकार के कर्तव्यों के सही मायने सही अर्थों में देश की अधिसंख्य जनता को ज्ञात ही नहीं हैं, और जिन्हें ज्ञात हैं , वह भी उनके अनुपालन न होने से स्वयं को बहुत विचित्र स्थिति में पा रहे हैं, जब केवल दोषारोपण की राजनीति चल रही है.
लोकतंत्र को अराजकता , कानूनों के उल्लंघन की छूट, प्रदर्शन, अभिव्यक्ति ,व्यक्तिगत स्वतंत्रता , भों डे पन की छूट इत्यादि तक सीमित समझ लिया गया है.और किसी भी स्तर पर जिम्मेदारी एवम् अकाउंटेबिलिटी का पूर्ण अभाव है.
इस प्रकार , वर्तमान दशा सरकारों के अस्तित्व ,सार्थकता , संघीय ढांचे की मर्यादा , बुनियादी नागरिक अधिकारों इत्यादि पर गम्भीर चुनौतियां हैं . इनका शीघ्र निराकरण एवम् समाधान नहीं होना भविष्य में देश में अत्यंत गम्भीर स्थितियों को जन्म देने हेतु खतरे की घंटी के समान है. –
— —— अर्थशास्त्री प्रो. अमिताभ शुक्ल विगत चार दशकों से शोध , अध्यापन और लेखन में रत हैं. सागर ( वर्तमान में डॉक्टर हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय ) से डॉक्टरेट कर अध्यापन और शोध प्रारंभ कर भारत और विश्व के अनेकों देशों में अर्थशास्त्र और प्रबन्ध के संस्थानों में प्रोफेसर और निर्देशक के रूप में कार्य किया.