अन्नदाता (वि)स्मरण दिवस … कोरोना संकट काल में विशेष स्मरण
सारे विश्व को एक प्रचंड सुनामी की तरह कोरोना के संकट ने घेर डाला। इस जानलेवा दबोच से कोई भी संपूर्ण सुरक्षित नही है, इस दर्दनाक सचाई का एहसास सारी दुनिया को हुआ। सजीव और निर्जीव, इन दो की सीमारेखा पर मौजूद इस क्षुद्र प्रतीत होने वाले कोविड-19 वायरस ने सबके मुँह पर पट्टियॉं बांध दीं, मुश्कें कस दीं।
इस दुर्धर संकटकाल में दो महत्व के पहलू दुनिया की समझ में आये। एक, भीड-भाड से बसाई बडी बस्तियों की समाज-रचना के बजाय खुली-खुली, प्रकृति से निकट और प्रकृति-स्नेही तरीके से जीनेवाली समाज-रचनाएं ज्यादा सुरक्षित तो हैं ही, अधिक सार्थक भी।
दूसरी बात, इससे भी ज्यादा तीव्रता से समझ में आई कि, जीने की अन्य जरूरतों और शौक की आवश्यकताओं के बिना भी जिया जा सकता है, लेकिन खाद्यान्नों (अनाज, दालें, फल, सब्जी, दूध, तेल आदि) के बिना किसी का भी जीना असंभव है। हर संभव उठा-पटक करके और जमीन-आसमान भी एक करके खाद्यान्नों की आपूर्ति और इंतजाम अबाधित रखना पड़ता ही पड़ता है। लॉकडाउन के दौर में दूसरे अन्य कामों को तो रोक सके, लेकिन खाद्यान्न से जुडे कामों को कोई रोक नहीं सकता।
इसी पहलू से जुडे, महत्व के एक और मुद्दे ने सारी दुनिया की आंखों में अंजन डालने का काम किया। अर्थव्यावस्था की विभिन्न घटक इकाइयां चाहे जितनी आत्मी-प्रशंसा कर लें, या दिखावे किये जायें, परंतु ऐसे कोरोना संकटकाल में देश की डूबती अर्थव्यवस्था को कृषि-क्षेत्र ने ही डूब जाने से बचाया। 2020-21 के पहले तीन महीनों में भारत का आर्थिक विकास दर (ग्रोथ रेट) (पिछले वर्ष के इसी काल खंड से तुलना करने पर) माइनस 23.9 प्रतिशत यांनी लगभग ऋण 24 प्रतिशत गिर गया। ऐसे समय कृषि-क्षेत्र ने अपना विकास दर 3.4 प्रतिशत पर टिकाकर देश की अर्थव्ययवस्थात को बदतर होने से बचाये रखा। तिस पर, सारे देश की आबादी को अपनी गोद में उठाये रखते हुए भरपेट रखा और लुढकने से बचाया।
हमें इन बातों का स्मरण है, या विस्मरण हो गया?
विश्वइ अन्नख दिवस :
16 अक्तूबर वैश्विक अन्न दिवस के रूप में मनाने के लिए विश्व के डेढ सौ से अधिक राष्ट्र भारत समेत सहभागी हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र् द्वारा स्थाषपित खाद्य एवम् कृषि संगठन (एफएओ) अपने पचहत्तर साल पूरे कर रहा है। इस अमृत-महोत्सव वर्ष की एक और भी अहमियत है। विश्व खाद्य परियोजना के उपलक्ष्य में अभी-अभी नोबेल पुरस्कासर के लिए चयन की महत्वपूर्ण घोषणा भी हुई है। तीसरी अहम बात इस विश्व खाद्य एवम् कृषि संगठन ने बयान की है — कोरोना के वैश्विक महासंकटकाल में खाद्यान्न के लिए जो सामाजिक इकाइयाँ संकट में हैं, उन सब के लिए मदद का हाथ इक-दिली से बढाया जाये, यह इस वर्ष का विशेष उद्देश्य सूत्र है। लेकिन असल में कोरोना संकट काल के अलावा अन्यस समय भी खाद्यान्न श्रृंखला की हर कडी को अपनी-अपनी जगह अपनी भूमिका अदा करना संभव है, बल्कि जरूरी है, ऐसा बयान एफएओ ने जारी किया है।
यह दिन, यह वर्ष एक नये वैश्विक संकल्प से मनाया जायेगा। सिर्फ भूख-मुक्ति नहीं, अपितु उससे आगे बढ़कर लोगों का पोषण और पृथ्वी का संरक्षण, इन दोनों का भी इस दिन समारोह है। स्वास्थ्यवर्धक खाद्यान्न हर किसी को मिल सके, इस वास्ते ‘हमारी क्रियाएं ही भविष्य का भरोसा हैं, यह सूत्र है।
वैश्विक हिसाब के मुताबिक निरंतर भूखे और अधपेट लोग 2015 साल में 78 करोड़ थे। इसमें ‘प्रगति और विकास’ (?!) होकर यह संख्या आज 82 करोड़ हो गयी है। यह संख्या ऐसी तो हरगिज नहीं कि अनदेखी की जाये। एक तरफ खाद्यान्न का पर्याप्त उत्पादन है और फिर भी दूसरी तरफ लोग भूखे हैं। खाद्यान्न बहुलता की इस दुनिया में एक तरफ इतनी बडी संख्या भूखी है, और दूसरी तरफ लगभग उतनी ही संख्या मोटापा और पेटूपन की बीमारियों से ग्रस्त है। कैसी यह क्रूर विडंबना और दुर्गति!
भारत पर एक नजर डालें तो क्या परिदृश्य है, यह सब लोगों को समझना जरूरी है।
अन्नदाता 138 करोड़ का : अभी हाल में सितंबर के अंत में 138 करोड़ से ऊपर पहुंची इस देश की विशाल जनसंख्या को सालभर 365 दिन, हर रोज दिन में 3 बार खिलाने की यह भारी-भरकम बात है। और यह जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठानेवाले देशभक्त हैं खाद्यान्न-सुरक्षा-सेना के सैनिक – किसान, खेतिहर मजदूर-महिला-पुरुष। और जिस सीमा पर यह अनमोल देशभक्ति का काम वे करते हैं, वह है कृषि-क्षेत्र। इसलिए खाद्यान्न के साथ कृषि-क्षेत्र को ठीक से समझ लेना तकाजे की बात है।
उत्पादन : 1950 में होने वाला साढे पांच करोड़ टन वार्षिक उत्पादन अब करीब तीस करोड़ टन, इतनी विपुलता में देश के आंचल में प्रतिवर्ष डाला जा रहा है कृषिक्षेत्र के द्वारा।
कमाई : सकल राष्ट्रीय उत्पादन (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का प्रतिशत लगातार गिरता जा रहा है – 1950 में जो 52 प्रतिशत था, अब 16 प्रतिशत, इतनी गिरावट है। मतलब यह कि कृषि क्षेत्र को दिया जाने वाला आर्थिक प्रतिफल और हिस्सा् इतना गिरा हुआ है।
विकास दर (ग्रोथ रेट) : देश का आर्थिक विकास दर प्रति वर्ष अब तक 5 से 10 प्रतिशत होता आया है। लेकिन कृषि क्षेत्र को, उसमें खटनेवालों को, मिलनेवाला विकास दर कुल विकास दर की तुलना में हरदम चौथाई ही रहा, बराबरी का भी नहीं। महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में कभी-कभी वह ऋृण दस (माइनस दस) प्रतिशत के आसपास तक गिरी।
नियोजन (प्लॅन्ड इकॉनॉमी) : में, यानी कि सरकारी प्रावधानों में बहुत कम हिस्सा कृषि क्षेत्र को दिया जाता है। पहली पंचवार्षिक योजना-काल में 19451-56 दरमियान कृषि क्षेत्र को इस बाट में हिस्सा मिला 14.7 प्रतिशत, वहां से फिसलते-गिरते अब वह 3 से 5 प्रतिशत के आसपास रसातल को पहुँच गया है, यानी लगभग तीन से पांच गुना गिरावट।
सार्थक रोजगार और आजीविका : भारत की जनसंख्या में से काम करनेवाले लोगों (वर्क फोर्स) के लगभग आधे लोग कृषि क्षेत्रों में काम करते हैं। इस प्रचंड संख्या की मानवी संपदा (human resource) को रोजगार और आजीविका मुहैया करवाने वाला ऐसा सबसे ज्यादा महत्व का यह क्षेत्र है।
मनस्थिति, समाधान, संतोष : 50 प्रतिशत से ज्यादा किसान खेती के जानलेवा फंदे से छूटने की कामना करते हैं। 1995 से आजतक पिछले 25 वर्षों में 3 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं कीं। यानी कि इस व्यवस्था ने तीन लाख अन्नदाताओं की बलि चढाकर इस अर्थव्यवस्था के आंगन में सामूहिक भोज खाया।
खेती क्षेत्र की शव-यात्रा, यह कैसी है इंडिया की विकास-यात्रा?
अन्नदाता कैसी-कैसी जानलेवा चुनौतियों को अपने माथे ढोकर देश के नागरिकों को अन्न सुरक्षा दे रहे हैं। यह बात इस अन्न -दिन पर समझ लेना समय का तकाजा है।
आसमानी जुल्म : आसमानी जुल्म पहले भी था। लेकिन, वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संकट के कारण यह जुल्म कई गुना बढ गया है, और हर साल बढता ही जा रहा है। सिर्फ तापमान वृद्धि, इतनी सी ही यह बात नहीं है। बल्कि गर्मी-ठंढ, वर्षास्तर, वर्षा का समयानुसार बँटवारा (डिस्ट्रिब्यूशन), जलवायु की उग्रताएं, वातावरण की नमी और आर्द्रता, तूफान-बिजली, ओले इन सबकी तीव्रता और उग्रता लगातार और तेजी से बढती जा रही हैं। तिस पर, उन सबकी अनियमितता, बारंबारिता और प्रदीर्घ-कालिकता ये सारे भी छलांगे मार रहे हैं। इन सब की मार सबसे ज्यादा खेतीक्षेत्र पर ही पड़ती है। भारत सरकार के मौसम विभाग (आईएमडी) के निरीक्षणों और अध्ययनों का निष्कर्ष है कि बीसवीं सदी में वर्ष 1900 से 1999 के 100 सालों में 32 साल खेती के लिए तीव्र प्रतिकूल थे। इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटिऑरॉलॉजी के निष्कर्ष हैं कि स्वाधीनता से लेकर वर्ष 2015 तक के 65 वर्षों में भारत में तीव्र सूखा 16 साल रहा और तीव्र अति वर्षा के साल 9 रहे। यानी 23 प्रतिशत वर्षों में सूखा और 14 प्रतिशत वर्षों में अति वर्षा, ये दोनों मिलाकर 37 प्रतिशत वर्षों को कृषि क्षेत्र के लिए तीव्र प्रतिकूल मौसम रहा है। मतलब हर तीन वर्षों में से एक साल तीव्र आसमानी जुल्म से कृषक-समाज तहस-नहस हो जाता है। भारत सरकार के ही कृषि आयुक्त के बयान के मुताबिक मौसम की यह उग्रता महाराष्ट्र सहित कईं प्रदेशों में तो बढ़कर दोगुना हो गयी है। इसका अर्थ है अब लगभग 50 प्रतिशत वर्ष खेती-क्षेत्र के लिए अति-विपदाभरे, विपरीत और कमरतोड़ होते हैं।
ऐसा यह आसमानी जुल्म!
सुलतानी जुल्म : आसमानी जुल्म से भी भारी-भरकम जुल्म है सरकारी नीतियों का, अमलदार नौकरशाही का, और बाजार का – इन तीनों का मिलकर। बाकी समाज को और उपभोक्ताओं को सस्ता खिलाने के लिए कृषि क्षेत्र निगेटिव सब्सिडी पर कृषि-उपज देता चला आ रहा है। डंकेल और गॅट करार के समय भारत सरकार ने कबूल किया है कि यह प्रमाण 69 प्रतिशत के बराबर इतना प्रचंड है। यह नीति अब भी थोडे-बहुत फरक से जारी है।
इसके अलावा, ‘गाड़ीभर लूटकर मुठ्ठीभर सहूलियतें’ देनेवाली सरकारी नीतियाँ (कुछ अपवादों को छोड़) कम नहीं। इनमें कहीं कमी न रह जाये, ऐसे चरित्र के कई राजनेताओं के छगनेवाले भुलावे और गुड़ चटाने वाले बहकावे सिरमौर हैं। आज भी, कृषि उपजों का न्यूनतम आधार-मूल्य (एमएसपी) तय करते समय कृषि-खर्चों के कुछ असली मद भी सरकार चालाकी से नजरअंदाज करती है। अनेक सरकारी संस्थाएं, विश्वविद्यालय, शोध-संस्थान, स्वामीनाथन आयोग जैसी ढेरों सरकार मान्य इकाइयों के नतीजे हैं कि सरकारी घोषित आधार-मूल्यों की तुलना में असल में उत्पादन खर्च डेढ़ गुना हैं। उसके ऊपर 50 प्रतिशत मुनाफा किसान को, अन्नदाता को, मिले यह वाजिब मांग तो बहुत दूर की बात है। कृषक समाज ने अपनी यह बात प्रचंड संख्या में एकत्रित होकर बिना लाग-लपेट के सरकार को और समाज को कई बार बताई, सरकार की लाठियां खाईं, कई अपंग हो गये, गोलियां झेलीं, खून बहाया, अपनी जानें तक दीं। इतना सारा होकर भी आज आधारमूल्य तय करने के लिए सिर्फ A-2 और FL इतने ही खर्च माने जायें, यहां तक ही सरकार की सीमित पहुंच हुई है। अब भी, अन्यं कई सारे छिपे खर्च और असली भारी खर्च के मद भी शामिल करने को सरकार राजी नहीं। नियोजन आयोग के रमेश चंद ने लिखा कि ये अन्य खर्च शामिल नहीं करने चाहिए। इसका अर्थ है कि अन्नदाता कृषिक्षेत्र के द्वारा सारे देश को सस्ते में खाना खिलाने के लिए अपना खून और मांस खरोंचने की शहादत बिना सुधार के जारी रखी जानी चाहिए। सच में तो, कर्जमाफी के दिखावे की मरहम पट्टियों की जरूरत ही नहीं रहेगी, यदि कृषि उपज को उचित दाम (अत: आज की तुलना में पर्याप्त ऊंचे दाम) मिलने का असली काम किया जाये।
अपनी उपज बाजार में बेचने के लिए भेजने पर व्यापारी की तरफ से रकम किसान को मिलने के बजाय, व्यापारी से किसान को वसूली की ‘उलटी पट्टी’ मिले, ऐसा यह कृषि क्षेत्र है। यह किस्मत का उलटा पासा नहीं, बल्कि जुल्मी व्यवस्था का पाश है।
कर्ज-माफी का झुनझुना : प्रसार माध्यमों में आये समाचारों के अनुसार वित्त राज्यमंत्री ठाकुर महोदय ने संसद में कबूल किया कि पिछले पांच वर्षों में व्यापारिक बँकों ने लगभग सात-लाख-करोड़ रुपये के रुके हुए कर्जों (बॅड लोन्स, एनपीए) को माफ कर दिया। यह बहाली मुख्यतः व्यापारी क्षेत्र को 28 प्रतिशत और उद्योग क्षेत्र को 65 प्रतिशत दी गयी। इसमें हर ‘कमजोर’ और ‘दुर्बल’ कर्जदार 100 करोड़ रुपये से अधिक रकम को लिये बैठे हैं ! गौर करने लायक बात यह है कि कृषि क्षेत्र को माफी का प्रमाण सिर्फ 7 प्रतिशत इतना नाममात्र है। लेकिन शोर और चिल्लाहट होती है कृषिक्षेत्र के नाम से!
ऑल इंडिया बैंक एम्प्म्लॉईज असोसिएशन के सहसचिव तुलजापुरकर का आरोप है कि इन क्षेत्रों को यह बहाली देने के लिए सरकार ने पिछले सात वर्षों में तीन-लाख-करोड़ रुपये से अधिक पूंजी बैंको को दी; यानी आम करदाता की दी हुई कर राशि में से, और बैंक के आम ग्राहकों पर बेशुमार शुल्की लादकर, और आम आदमी के बचत खातों के ब्याज की दर पर कैंची चलाकर आम आदमी की जेब काटी गयी है।
एक दाने के हजार दाने बनाने वाला सचमुच का उत्पादन-वृद्धि का क्षेत्र है कृषिक्षेत्र। भारत देश को प्रचुर सौर-ऊर्जा का वरदान भी है। प्रति वर्ग फीट पर हर रोज औसत 1 हजार दो सौ किलो कैलरी, इतनी प्रचंड सौर ऊर्जा का वरदहस्त है। पर फिर भी कोई उपाय नहीं क्योंकि ऊपरी जुल्मों का प्रचंड भारी-भरकम पहाड भी अन्नपदाता के माथे पर है और उसके बोझ से कृषि क्षेत्र रौंदा जा रहा है।
कुपोषणग्रस्त भारत : इस वैश्विक अन्न-दिवस का एक सूत्र है – पर्याप्त पोषक आहार सबको और सतत मिले, जिससे सबका स्वास्थ्य बने। यह मुद्दा भारत के लिए विशेष ध्यान देने का है। एक तरफ अतिरिक्त खाद्यान्न का उत्पादन देश को दिया जा रहा है, फिर भी भारत में कुपोषण का अनुपात बहुत अधिक है। युनिसेफ ने 2019 में प्रकाशित किये निष्किर्षों में बताया है कि बाल-कुपोषण की सूची में (GHI) भारत काफी ऊँचे पायदान पर है। भारत में 54 प्रतिशत बालक कुपोषित हैं। और इसके परिणामस्वरूप सेव दी चिल्ड्रेन संस्था ने अपने अलग विस्तृत अध्ययन में प्रकाशित किया कि आने वाले 15 वर्षों में सिर्फ बाल कुपोषण के कारण भारत को चार-हजार-छह-सौ-करोड़ रुपये की आर्थिक हानि होगी, यानी प्रति वर्ष 300 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान होगा। भारत की तुलना में पड़ोसी बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्ता्न, श्रीलंका जैसे देश भी बेहतर पायदानों पर हैं। एनीमिया से कुपोषणग्रस्त बालकों का अनुपात भारत में 40 प्रतिशत और महिलाओं में 50 प्रतिशत है, ऐसी पोषण की दर्दनाक हालत है।
सहचारी सहक्रिया का महत्व : खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) साफतौर पर चेतावनी देता है कि खाद्य और कृषिक्षेत्रों से जुड़ा यह विषय विश्व के सभी राष्ट्रों की सरकारों द्वारा स्वीकृति के अनुसार सहस्र-विकास-उद्देश्यों (मिलेनिअम डेवलपमेंट गोल्स) में प्राथमिकता पर है। और, यह महनीय काम देशों की अपनी-अपनी सरकारें, किसान और किसानों द्वारा अपनाई जाने वाली खेती पद्धतियाँ और तकनीकें, वैज्ञानिक, नीति-निर्धारकों की जमात, और जागरूक जिम्मेदार नागरिक, प्रक्रिया करने वाले, और अंत में खाद्यान्न को रसोई में पकाकर थाली में परोसने का अहम काम करनेवाली करोडों महिलाएं, इन सब की सहक्रिया से यानी सिनर्जी से ही यह संभव होगा। उपभोक्ता नागरिकों को चाहिए कि सस्ता खाने का लालच छोड़कर, वाजिब ऊँचे दाम देकर ‘सस्ते के बजाय स्वस्थ’ और सुरक्षित विषमुक्त खाद्यान्नों का कृषि उपज करनेवाले अन्नादाता को अपना साथ और समर्थन दें। यह दोनों पक्षों के लिए हितकारी है। उपभोक्ता की ‘हर नोट एक वोट’ है ! यह विशेष शक्ति नागरिकों के हाथों में है। अतः नागरिकों की विशेष भूमिका है।
प्रचुर प्राकृतिक संसाधन (मिट्टी, पानी, वनस्पतियां, सूक्ष्म जीवाणु, बीज और जनुकीय संपदा) प्राप्त इस देश को; और समृद्ध कृषि-परंपरा (ज्ञान, कौशल, संस्कृति, रिवाज, परिश्रमी किसान और श्रमिक) से विभूषित भारतीय समाज को; एवम् कृषि-विज्ञान के उच्चतम शिखरों पर पहुंचे हुए इस लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत को उपरोक्त् उद्देश्यों को प्राप्त कर पाना कठिन नहीं है।
जरूरी कदम :
एक : राजसत्ता की नीतियों पर कृषि क्षेत्र के लिए कहीं अधिक अनुकूल प्रभावकारी बदलाव हों। तात्कालिक, दिखावे की फुलझडियों के बजाय स्थाई, सातत्य के साथ बुनियादी असरदार बदल हों।
दो : खेती की पद्धतियां, तकनीकें आदि में भी सही बदलाव हों। संयुक्त राष्ट्र और खाद्य व कृषि संगठन दोनों जतलाकर कह रहे हैं कि – ”गुड प्रैक्टिसेस यानी अच्छे तरीके अपनाये जायें, जिससे कि खेती में रसायनों का इस्तेमाल कम-कम होता जाये, वरना प्रजनन और स्वस्थ विकास दोनों ही कुप्रभावित होते हैं, रोग-प्रतिरक्षा तंत्र को हानि पहुंचती है और कैन्सर भी बढ़ता है। दोनों आग्रह करते हैं कि एक-फसली खेती के बजाय बहुविध फसलें, शाश्वतता का संवर्धन करने वाली खेती पद्धतियां और सारी खेती जिन प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है (मिट्टी, पानी, सूक्ष्म जीवाणु, वनस्पतियां आदि) उन सबका संरक्षण और संवर्धन करनेवाली पर्यावरणीय खेती-पद्धतियां ये सब अपनाना जरूरी है।
इसका मतलब ये हरगिज नहीं है कि पुरानी खेती की माला का जप करना है, या तो ये-नहीं-वो-नहीं ऐसी नकारात्मक बातों की निषेधात्मक खेती का गीत गाना है। असल में, स्थानिक अंदरूनी पहलुओं की समृद्ध निर्मिती करते हुए खेती बलशाली बने, ऐसी वैज्ञानिक अति-आधुनिक और स्वावलंबी खेती पद्धति अपनाने की जरूरत है। यह व्यावहारिक है, किफायती है और फायदे के साथ-साथ सशक्त बनानेवाली पद्धति है; यह प्रमाणों के साथ साबित कर दिखाया गया है। अन्नदाता के खेत के बाहर की नीतियों में अनुकूल बदलाव तो जरूरी हैं ही, वैसे ही खेतों की मेड़ों के अंदर खेत में कैसी तकनीकें और पद्धतियां इस्तेमाल हों, यह भी कृषि क्षेत्र को करना होगा। किसान यह सब करने के लिए पीछे नहीं रहेंगे, इसके लिए अनुकूल और प्रोत्साहक नीतियां, योजनाएं और प्रावधान सरकार करे तो किसान कितना भरा-पूरा विशाल परिवर्तन तत्काल करते हैं, यह इस देश ने अनेकों बार देखा है। इसीलिए यह सर्वदेशीय वैश्विक संगठन चेतावनी दे रहा है कि यह सब हासिल करने के लिए कृषिक्षेत्र को पर्याप्त प्रोत्साहक और सबलता देने वाली सरकारी नीतियां, समग्र दृष्टि और कृति जरूरी है।
भारत में अन्न को ‘अन्न-ब्रहम’ कहा गया है। तब यह ब्रह्म मिला देनेवाले अन्नदाता को क्या माना जाना चाहिए? समाज को इस बात का स्मरण होने के बजाय विस्मरण हो गया है।
देश क 138 करोड जनता की पेट की आग बुझा कर पोषण और स्वास्थ्य दिया जाये, इन बातों से जुड़ा यह अहम् मुद्दा है। वह प्रदान करनेवाले अन्नदाता देशभक्तों के बारे में संवेदनशील और क्रियाशील होने का विशेष स्मरण और संकल्प आज वैश्विक अन्न दिवस पर जरूरी है।
* (लेखक कृषि-वैज्ञानिक, कृषि समस्यायों के अध्ययनकर्ता और वरिष्ठ क्रियाशील सामाजिक कार्यकर्ता हैं)