अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज हिंसा का सामूहिक प्रयोग
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज एक प्रकार से हिंसा का सामूहिक प्रयोग है।जब से तालिबान की अफ़ग़ानिस्तान में पुनः स्थिति मज़बूत हुई है तब से दुनिया चिंता में पड़ गयी है। अपने पिछले काल में इसने हिंसा से न केवल अफ़ग़ानिस्तान का नुकसान किया बल्कि क्षेत्र और दुनिया के सामने भी अनेक संकट खड़े किये।
तालिबान के काबुल आ पहुंचने से अफ़ग़ानिस्तान और क्षेत्रीय स्तर पर अनेक बदलाव आने की उम्मीद है। खासकर दक्षिण एशिया में धार्मिक कट्टरपंथ और राजनीतिक हिंसा को नयी गति प्राप्त हो जाएगी।
पाकिस्तान में लम्बे समय से निष्क्रिय रहे तत्व अचानक क्षितिज से ऊपर आ रहे हैं। क्वेटा और पेशावर में तालिबान के समर्थन में आयोजित रैलियां इस बात की पुष्टि करती हैं।
एक अध्ययन में पाया गया था कि पिछले दो हज़ार वर्षों में महज़ कुछ सौ साल ऐसे हुए हैं जबकि दुनिया में हिंसा नहीं हुई है। जबकि बाकि वर्षों में संसार किसी न किसी रूप में हिंसा का सामना करता रहा है। वैसे तो हिंसा अनेक कारणों से होती रही है किन्तु इसमें राजनीतिक कारण सर्वप्रमुख रहे हैं।
पश्तो भाषा में तालिबान का शाब्दिक अर्थ विद्यार्थी होता है। यह शब्द वर्ष 1990 के दशक के आरम्भिक वर्षों में तब संज्ञान में आया जब डूरंड लाइन के समीप के अफ़ग़ानी इलाकों में एक नए आंदोलन की तपिश महसूस की गयी। इसके पूर्व शीत युद्ध के अंतिम वर्षों में जो बदलाव आये उससे तालिबान जैसी सोच को बेहतर बल मिला। व
र्ष 1979 में सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप किया था। इरादा था कि हिन्द महासागर में अपनी स्थिति को मज़बूत किया जाये। इसके अलावा काबुल में साम्यवादी सरकार को बल प्रदान किया जाना अन्य उद्देश्य था।
भारी सोवियत सैन्य जमावड़े ने अमरीकी ख़ेमे को चिंतित किया कि कहीं सोवियत सेनाएं पाकिस्तान होते हुए अरब सागर का रुख न कर लें। ऐसे में अमेरिका चुप नहीं बैठ सकता था। किन्तु अमेरिका सैन्य कार्रवाही भी नहीं करना चाहता था। ऐसे में उसने पाकिस्तान के ज़रिये ऐसे गैर – राज्यीय तत्वों को खड़ा किया जो अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेनाओं से लोहा ले सकें। ये तथाकथित मुजाहिदीन अफगानिस्तान में लगातार पंप किये जाते रहे।
उधर सोवियत संघ में राजनीतिक असंतोष बढ़ता जा रहा था। मिख़ाइल गोर्बच्योव के गालसनोस्त और पेरेस्त्रोइका बेअसर रहे। आखिरकार सोवियत संघ टूट की कगार पर जा पहुंचा था। सोवियत फौजों की वापसी के बाद अफ़ग़ानिस्तान में शक्ति शून्यता उठ खड़ी हुई। इसे हासिल करने के उद्देश्य से अनेक गुट झगड़ने लगे। तालिबान इनमे से एक मज़बूत संगठन था जिसे शीत युद्ध के बाद भी पाकिस्तान से भरपूर सहायता मिलती रही।
पाकिस्तान प्रायोजित तालिबान की काबुल में सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करना अचंभित करने वाला था। पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान को सामरिक गहराई के रूप में प्रयोग करता रहा है। तालिबान को काबुल में पहुँचाने के पीछे उसका मक़सद इस देश का इस्तेमाल अपने रणनीतिक लाभ के लिए करना था। ऐसा हुआ भी।
चाहें वह कारगिल का युद्ध रहा हो या फिर कश्मीर में आतंकवाद, तालिबान का प्रभाव दिखाई देता रहा। भारत को 1999 में तालिबान के साथ वार्ता के लिए तब आना पड़ा जब इंडियन एयरलाइन्स की उड़ान संख्या आई सी 814 को अपहृत किया गया। यह अनुभव अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण था। तालिबान ऐसे तत्वों को प्रश्रय दे रहा था जो वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए घातक थे। परिणामस्वरूप अमेरिका पर वायुयान को मिसाइल की तरह इस्तेमाल करके हमले किये गए। बदले में जब अमेरिका ने जवाबी कार्यवाही की तो तालिबान के पैर काबुल से उखड गए।
लेकिन वह अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद रहा। उसे सही अवसर का इंतज़ार था। कोविड की महामारी ने वैश्विक स्थिरता को प्रभावित किया। इससे सर्वाधिक हानि अर्थव्यवस्था को पहुंची। राष्ट्रपति ट्रम्प के समय से ही अमेरिका इस खर्चीले और धीमे युद्ध से निकलना चाहता था। इसीलिए जब बाइडेन को यह निर्णय लेना पड़ा तो उन्होंने अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के बीस वर्ष पूरे होने पर अफ़ग़ानिस्तान से निकलने की घोषणा की।
विशेषज्ञों का मानना है कि तालिबान की वापसी की पटकथा दोहा में लिखी जा चुकी थी। उस पर अमल होना भर शेष था। जिस तरह से तालिबान निर्विरोध काबुल की सत्ता तक पहुंचे हैं, उससे इस मत को और बल मिलता है।
भारत के लिए तालिबान की यह वापसी कैसी होगी ? अभी कुछ भी अनुमान लगाना उचित नहीं हैं। इंडियन एक्सप्रेस की एक ख़बर के अनुसार क़तर के ज़रिये तालिबान ने भारत को सन्देश भेजा है कि वह भारत के साथ शांतिपूर्ण रिश्ते चाहता है।
वहीँ संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् ने अपने एक प्रस्ताव में तालिबान शब्द को हटा दिया है। दिलचस्प यह है कि इस समय भारत सुरक्षा परिषद् का अध्यक्ष है। इसके पहले भी इस तरह की बातें होती रही हैं कि भारत और तालिबान के बीच ट्रैक टू कूटनीति के ज़रिये संपर्क रहा है। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर के तेहरान और मास्को में किसी गुप्त और अनौपचारिक प्रक्रिया शामिल होने की बातें भी आती रहीं हैं। हालाँकि औपचारिक तौर पर भारत ने इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
तालिबान पहले से बदले स्वरुप का संकेत दे रहा है। उम्मीद है कि वह भारत के हितों को ध्यान में रखेगा। इसके अलावा अफगानिस्तान के आर्थिक और राजनीतिक विकास में भारत के योगदान को तालिबान नकार नहीं सकता।