ए स्युटेबल गर्ल, क्यों इतना उलझा है हमारा समाज

क्या लड़कियां पैदा ही दूसरों के लिए होती हैं

ए स्युटेबल गर्ल, एक ऐसी फिल्म, जो हमारे भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही परंपरा के डार्क शेड्स हमारे सामने लेकर आती है. एक ऐसी परंपरा जिसे सदियों से ​हमारी कई पीढ़ियां चाहे अनचाहे आगे बढ़ाती जा रही हैं, खासकर लड़कियां. 21वीं सदी में एक ओर जहां महिलाएं पुरुषों से हर क्षेत्र में आगे हैं, वहीं दूसरी ओर आज भी हमारा समाज पुरानी कुरीतियों में इस कदर जकड़ा है कि उसी बेटी की शादी के अलावा उसे कुछ और सूझता ही नहीं. शादी ऐसी, जो उनके लिए उनकी बेटी को सही जगह पहुंचा देता है, जिसके बाद वे उसे लेकर बेफिक्र हो जाते हैं, जबकि वही शादी उस लड़की के लिए एक ऐसा बंधन हो जाता है, जिसमें बंधने के बाद उसकी खुद की पहचान ही खत्म हो जाती है. ऐसे में समीक्षक हिमांशु जोशी ‘ए स्युटेबल गर्ल’ के दर्शकों से एक सवाल उठाते हैं कि आखिर क्यों इतना उलझा है हमारा समाज

उधम सिंह, रश्मि रॉकेट की गम्भीरता के बाद मैं फिर कुछ ऐसा ही गम्भीर विषय देखना चाहता था तो मुझे ‘ए स्युटेबल गर्ल’ के रूप में डाक्यूमेंट्री सुझाई गई, डॉक्यूमेंट्री देख जान पड़ता है कितना उलझा हुआ है हमारा भारतीय समाज.

कट्टरतावाद तो यहां भी है, जिसमें हर युवा खुद उलझता जाता है, उसे तोड़ना जरूरी है.

‘ए स्युटेबल गर्ल’ डॉक्यूमेंट्री सवाल उठाती है कि क्या लड़कियां पैदा ही दूसरों के लिए होती हैं, कौन तोड़ेगा ये मिथक.
2017 में आई इस डॉक्यूमेंट्री पर इससे पहले मैंने कहीं पढ़ा भी नहीं था इसलिए निर्णय लिया कि मैं इस पर लिखूं और फिर लोग इसे पढ़ें, डॉक्यूमेंट्री देखें, इसका उद्देश्य समझें.

‘ए स्युटेबल गर्ल’ डॉक्यूमेंट्री शुरू ही इस बात से होती है कि लड़की के पैदा होते ही यह सोचना शुरू कर दिया जाता है कि इसकी कल शादी होगी, ये अपने माता-पिता का घर छोड़ेगी. सब तय है, यही हमारी भारतीय संस्कृति है.

‘ए स्युटेबल गर्ल’ डॉक्यूमेंट्री शुरू ही इस बात से होती है कि लड़की के पैदा होते ही यह सोचना शुरू कर दिया जाता है कि इसकी कल शादी होगी, ये अपने माता-पिता का घर छोड़ेगी. सब तय है, यही हमारी भारतीय संस्कृति है.

मतलब चल क्या रहा है!

स्वयंवर, डिवोर्सी, बैचलर, क्या शादी के लिए ये सब शर्तें होनी चाहिए?

डॉक्यूमेंट्री देख कर सोचने लगा कि लव जिहाद जैसे शब्द भी किसने गढ़े होंगे. धर्म और शादी तो निजी मामला होना चाहिए, हमने उसे बाजार में बेच-बेच कर अखबारों में इश्तेहार निकाल लिए.

‘ए स्युटेबल गर्ल’ डॉक्यूमेंट्री आम भारतीयों के सपनों के शहर दिल्ली और मुंबई और मुंबई के आसपास रह रही तीन लड़कियों की ज़िंदगी दिखाती है, जो एक तरह से पूरे भारत की लड़कियों के जीवन का आईना बन जाती है.

डॉक्यूमेंट्री बताती है कि कैसे शहरों में बस जाने के बाद भी भारत में शादियां अब भी उन्हीं शर्तों में होती हैं जिनसे वो सालों से हो रही हैं, वही धर्म, जाति, रंग, वज़न.

लड़कों का पैसा देखा जाता है तो लड़कियों की काया पर ध्यान ध्यान दिया जाता है.

फ़िल्म शादी के लिए जूझती दीप्ति, बुझे मन से खुद को शादी के लिए सौंपती रितु और मर्जी से शादी कर उसे निभाती अमृता की कहानी है.

‘ए स्युटेबल गर्ल’ डॉक्यूमेंट्री कम देखी जाती हैं पर एक बार इसे देखना शुरू किया जाए तो ‘ए स्युटेबल गर्ल’ अपनी सी लगती है, ऐसा लगता है जैसे आप वीडियो में अपनी ही कहानी देख रहे हैं. न कोई मन बहलाने वाला संगीत न आंखों को रिझाने वाले दृश्य. बस अपने घर की ही कहानी, अपना संगीत, अपने जाने पहचाने दृश्य.

फ़िल्म शादी के लिए जूझती दीप्ति, बुझे मन से खुद को शादी के लिए सौंपती रितु और मर्जी से शादी कर उसे निभाती अमृता की कहानी है.

ये पूरे भारत की लड़कियों की कहानी है, जहां वो खुद से जूझती, शादी निभाती और जबरदस्ती शादी के लिए खुद को सौंपती आई हैं.

मुंबई के पास के ‘भायंदर’ की दीप्ति स्वयंवर में मोटापे की वजह से रिजेक्ट होने के बाद दूसरे देखने आने वाले लड़के के लिए तैयार हो रही है. यहां लड़की के सपने हैं, अपने पति को लेकर उसके सवाल हैं और फिर लड़के वालों के सवाल भी.
बिल्कुल बेहतरीन तरीके से सब कुछ दर्शाया गया है. लड़का कम बोलता है उसके परिवार वाले ज्यादा, लड़की कम उसके परिवार वाले ज्यादा.
अरेंज मैरिज के हर कदम पर प्रकाश डाला गया है.
दीप्ति का जन्मदिन आना और उसकी तीस की उम्र होने पर सब शादी की बात करते हैं. यह सीन लड़कियों की बढ़ती उम्र पर भारतीय समाज में जड़ जमा चुकी छोटी सोच पर तमाचा है.
फेसबुक पर लड़का देख उससे शादी भारत में फेसबुक कल्चर को भी दिखाता है, इसके अच्छे-बुरे परिणाम दोनों मिल सकते हैं पर दीप्ति यहां खुशनसीब है.
दीप्ति का शादी तय होने पर घर से अपना सामान समेटना जैसे दृश्य और उसके ‘अपने शहर को, अपने पेरेंट्स को, अपने लोगों को छोड़कर जाना’ जैसे संवाद लड़की के दर्द को हम तक पहुंचाते हैं.

वहीं मुंबई में ही रितु की मां दूसरों के लिए तो लड़का देख रही है पर खुद की लड़की के लिए परेशान है और रितु न चाहते हुए भी खुद को शादी के लिए तैयार कर रही है.

वहीं मुंबई में ही रितु की मां दूसरों के लिए तो लड़का देख रही है पर खुद की लड़की के लिए परेशान है और रितु न चाहते हुए भी खुद को शादी के लिए तैयार कर रही है.

लड़के के लिए ज्योतिष का सहारा, शादी बारातों में लड़की को देखने का रिवाज़, भारतीय लड़की को जॉब के साथ डांस भी आना चहिए. यह सब साबित करते हैं कि हर जगह लड़की को बस एक उत्पाद की तरह पेश किया जाता है.

रिश्तेदारों की बातों पर गौर किए जाने वाली संस्कृति पर भी प्रकाश डाला गया है, लोगों की वजह से सीमा और उसके पति रितु की शादी कराना चाहते हैं.

रितु को जॉब, अपना घर खोने का डर सता रहा है. शायद मेरी तरह एक लड़का कभी कल्पना भी न कर पाए कि जिस घर में हम पले-बढ़े, उस घर को हमेशा के लिए छोड़ना एक लड़की के लिए क्या होता है पर ‘ए स्युटेबल गर्ल’ डाक्यूमेंट्री देख ये समझ आता है.

‘ए स्युटेबल गर्ल’ डॉक्यूमेंट्री में रितु के पति के ज़रिए भारतीय लड़कों की बात भी कही गई है कि पता नहीं, हम क्यों शादी करते हैं, भारत में हमें करनी पड़ती है, मैं अगले जन्म में यूरोप में पैदा होना चाहूंगा, जहां चालीस साल के बाद शादी करते हैं.

दिल्ली में नौकरी करने वाली लड़की अमृता ‘नोखा’ गांव राजस्थान पहुंच गई, अब लड़की के जीवनशैली में बदलाव के संघर्ष को दिखाया जाता है कि कैसे वो शादी निभाने के लिए अपना भविष्य खत्म कर देती है.

बैकग्राउंड में राजस्थानी संगीत. जहां शादी के नौ महीने बाद वो साड़ी से एडजस्ट कर रही होती है. वेस्टर्न ड्रेस नहीं पहन सकती, साड़ी का रंग भी अपनी सास के कहे पर चुना जाता है और उसे काम करने के लिए मना कर दिया जाता है.
जब अमृता किचन में कुकर का ढक्कन खोलती है तो उस दृश्य से लगता है कि काम करने वाली कितनी ही महिलाएं शादी के बाद अब समझौता कर किचन तक सीमित हो गई होंगी.

डॉक्यूमेंट्री में अंग्रेज़ी की जगह हिंदी बोली जा सकती थी लेकिन वो कहानी की जरूरत है, भारतीय समाज ऐसा ही तो है. अंग्रेज़ी बोलता है पर जीता देशी जीवन ही है.

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डॉक्यूमेंट्री का संगीत ऐसा है, जिसे हम सुबह शाम सुनते हैं, जिसमें चिड़ियों की आवाज़ हो, शादी में बजने वाला संगीत हो या दृश्य की गम्भीरता के अनुसार बजता संगीत.

डॉक्यूमेंट्री के अंत में रोटी बनाती अमृता कहती है कि शादी के बाद आप अपनी पहचान खो देते हैं, मैं यही नहीं चाहती थी. घर में आने वाले 80 प्रतिशत लोग मुझे मेरे नाम से नहीं, केशव की पत्नी के रूप में जानते हैं.

‘ए स्युटेबल गर्ल’ डॉक्यूमेंट्री का छायांकन बेहतरीन है, जिस एंगल से दृश्य दिखाए गए हैं, वह खुद ही प्रभावित करते जाते हैं. अभिनय की बात की जाए तो इसके कलाकार खुद की ही कहानी कह रहे हैं और मंझे हुए नहीं हैं फिर भी अमृता झंवर और रितु की मां सीमा टापरिया भविष्य में बड़े पर्दे पर कैरियर तलाश सकते हैं.

डॉक्यूमेंट्री में महिलाओं की शादी से जुड़ी परेशानियों को दिखाने की जो कोशिश की गई है, उसके लिए जितने लोग इसमें शामिल हुए, उनकी हिम्मत काबिलेतारीफ है कि वो समाज के इस कट्टरतावाद के खिलाफ खड़े हुए. एक ऐसा जाल जिसमें वो भी फंसे हुए हैं.

डॉक्यूमेंट्री एक और महत्वपूर्ण सवाल यह छोड़ जाती है कि क्यों भूमि पेडनेकर को अपने बॉडी ट्रांसफॉर्मेशन की जरूरत पड़ी, क्या हम दीप्ति को वैसे ही नहीं अपना सकते थे, जैसी वो है! कमी उनके शरीर में है या हमारे विचारों में!

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निर्देशक- सरिता खुराना, स्मृति मुंद्रा
लेखक- सरिता खुराना, स्मृति मुंद्रा, जेनिफर टिएक्सिएरा
छायांकन- नैती गामेज़ू, शिवानी खट्टरी, आंद्रे डी अलेंकर ल्यों
संपादित- जेनिफर टिएक्सिएरा
संगीत- शाऊल साइमन मैकविलियम्स, अदरक शंकर
ओटीटी- अमेज़न प्राइम, नेटफ्लिक्स

समीक्षक- हिमांशु जोशी, उत्तराखंड.
https://mobile.twitter.com/Himanshu28may

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