पुलिस सुधार की आवश्‍यकता: अंग्रेजों के बनाए नियमों पर चल रही कानून व्‍यवस्‍था

पुलिस सुधार की आवश्यकता पर बात बहुत होती है. लेकिन ईमानदारी से विचार और अमल नहीं हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने निर्देशों का असर भी नहीं हो रहा. श्री सुशील चंद्र त्रिपाठी ने अपने लम्बे प्रशासनिक अनुभाव के आधार पर यह लेख लिखा है.

Sushil Chandra Tripathi

– पुलिस अवसंरचना में सुधार की आवश्यकता
– विचाराधीन कैदियों के मामलों की सुनवाई में तत्परता की आवश्यकता
-पुलिस फोर्स में एससी-एसटी, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की भागीदारी हो
– धर्मवीर कमीशन की संस्तुति को लागू किया जाए
-पुलिस स्टेशन का अधुनिकीकरण होना चाहिए
-प्रति पांच वर्ष में पुलिसकर्मियों के तीन से छः माह का प्रशिक्षण होना चाहिए
-सेवानिवृत्त सैन्य कर्मियों को प्रशिक्षित कर वीआईपी सुरक्षा में लगाना चाहिए
-विवेचना अधिकारी और वकील के बीच के लिंक को मजबूत करना चाहिए
– कार्यकारी मजिस्ट्रेट के पद को प्रभावी बनाया जाए
-मेडिको-लीगल मामलों पर ध्यान दिया जाए

भारतीय संविधान के अनुसार, कानून एवं व्‍यवस्‍था राज्‍य का विषय है। कई राज्‍यों में इंडियन पुलिस एक्‍ट 1861 का ही अनुपालन किया जाता है। सेंटर डेवलपिंग सोसाइटीज के साथ समन्‍वय कर नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्‍यूरो (एनसीआरबी) और ब्‍यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी) ने एक स्‍टडी का प्रकाशन किया है। इसका शीर्षक है ” स्‍टेटस ऑफ पुलिसिंग इन इंडिया रिपोर्ट, 2018, ए स्‍टडी ऑफ परफार्मेंस एंड परसेप्‍शन”।

इस स्‍टडी के अंतर्गत वर्ष 2012 से 2016 के कालखंड के 43 परिवर्तनशील इकाइयों का अध्‍ययन किया गया। इन्‍हें छ: अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित किया गया- 1) क्राइम रेट, 2) पुलिस एवं कोर्ट द्वारा वादों का निस्‍तारण, 3) पुलिस विविधता, 4) पुलिस इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर, 5) कारागार के आंकड़े और 6) एससी-एसटी, महिलाओं और बच्चों संग हुए अपराध के वादों का निस्तारण शामिल है। इनमें से कुछ के परिणाम चौंकाने वाले हैं जबकि कुछ सामान्य दृष्टिकोण को ही बल देते हैं।

पंजाब, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और तमिलनाडु में न्यूनतम आपराधिक दर वाले राज्य हैं और मध्य प्रदेश, राजस्थान, केरल और दिल्ली में अपराध की दर अधिक है। हिंसक अपराधों के प्रतिशत के मामले में ये आंकड़े बदल जाते हैं।

पुलिस द्वारा वादों के निस्तारण में (चार्जशीट दाखिल होने की दशा में) और कोर्ट द्वारा वादों के निस्तारण (सजा और वाद निस्तारण) के मामले में उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, यूपी और केरल की स्थिति अच्छी है।

वहीं, बिहार, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और असम की स्थिति खराब है। पुलिस विविधता सूची के मामले में ओडिशा, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु की स्थिति बेहतर है जबकि असम, हरियाणा, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश की स्थिति खराब है।

पुलिस अवसंरचना यानी इंफ्रास्ट्रक्चर की श्रेणी में दिल्ली, नागालैंड, राजस्थान और पंजाब में स्थिति बेहतर है जबकि पश्चिम बंगाल, गुजरात, यूपी और आंध्र प्रदेश की स्थिति खराब है। पचास प्रतिशत से अधिक कैदी विचाराधीन हैं और हिमाचल प्रदेश, एमपी, केरल और छत्तीसगढ़ का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है। एससी-एसटी, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हुए आपराधिक वादों के निस्तारण के मामले में आंध्र प्रदेश, असम और बिहार का प्रदर्शन सबसे खराब है और उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और दिल्ली की स्थिति सबसे अच्छी है।

मौजूदा आंकड़ों के विश्लेषण से कोई बहुत अच्छी छवि उभर कर सामने नहीं आती है। कई केस रिपोर्ट ही नहीं हो पाते हैं, जिससे अपराध की वास्तविक दर का आंकलन नहीं हो पाता है। लेकिन इस स्टडी के माध्यम से वास्तविक स्थिति के आंकलन में मदद मिलेगी क्योंकि इसमें भौतिक इकाइयों जैसे अवसंरचना आदि का भी समावेश है। अन्यथा की स्थिति में , यह अग्रिम अध्ययन एवं विश्लेषण का आधार बनेगा।

पुलिस सुधार के इस अध्ययन में रोचक तथ्य सामने आए हैं, इसमें-पीड़ित द्वारा पुलिस से संपर्क करने की दर और पुलिस द्वारा पीड़ित से संपर्क करने की दर का समावेश है। इसमें रोचक तथ्य उभर कर सामने आए हैं, जिसमें सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा पुलिस को संपर्क करने की दर से दोगना पुलिस द्वारा गरीब वर्ग के लोगों को संपर्क करने की दर है।

लोग अभी भी पुलिस से डरते हैं और इसके ऊपर जाति, लिंग के अलावा धर्म के आधार पर भेद भाव के आरोप लगते रहे हैं। बहुत की कम राज्यों में एससी-एसटी, अल्पसंख्यक और महिलाओं की सही भागीदारी है। बिहार, यूपी और असम में पुलिस फंड का न्यूनतम उपभोग होता है, जिससे इन राज्यों में पुलिस की स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है।

कृपया इसे भी देखें : https://mediaswaraj.com/etah-highcourt-hearing-on-police-attrocity/

जिलाधिकारी अल्मोड़ा के रूप में मैंने राजस्व के आईजी के कर्त्तव्यों का भी निर्वहन किया है क्योंकि संबंधित क्षेत्र का पटवारी अपने क्षेत्र में पुलिस की शक्तियों से लैस रहता था। इस क्षेत्र में मात्र तीन पुलिस थाने ही थे, जो एक सीमित क्षेत्र को कवर करते थे। जन सामान्य की भी यही इच्छा थी कि पुलिस स्टेशन का अतिरिक्त विस्तार न किया जाए। उनकी ऐसी धारणा थी कि पुलिस स्वयं अपराधियों को जन्म दे सकती है।

कृपया इसे भी देखें : https://mediaswaraj.com/badayun-gang-rape-police-negligence/

केंद्र व राज्य की सरकारों ने कई कमिशनों के माध्यम से पुलिस सुधारों को अपनाने का प्रयास भी किया है। जनता सरकार द्वारा गठित धर्मवीर कमीशन ने एक समग्र रिपोर्ट पेश की थी, लेकिन कांग्रेस की सरकार ने उसके प्रति उदासीन रवैया अपनाया।

 

प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में पुलिस सुधारों से संबंधित एक पीआईएल दाखिल की और उसे निरन्तर फॉलो करते रहे। लेकिन सरकारें उदासीन रहीं। नवीन घटनाक्रम में सुप्रीम कोर्ट ने सजंघ लोक सेवा आयोग से राज्यों में डीजीपी की तैनाती के मामले में दखल देने को कहा। लेकिन इसमें भी राजनीतिकरण हो गया और वरिष्ठ अधिकारियों की अवहेलना कर जूनियर अधिकारियों को तरजीह दी गई।

 

मजिस्ट्रेट के रूप में अनुभव 

मैं पुलिस के मामलों का जानकार नहीं हूँ, लेकिन मजिस्ट्रेट के रूप में काम करने के अनुभव के कारण पुरानी सीआरपीसी नियमावली के तहत आपराधिक मामलों के निस्तारण का अनुभव है। मुझे रेवेन्यू पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी के तौर पर भी काम करने का अनुभव है।

मुझे अलीगढ़ जैसे संवेदनशील जिले के जिलाधिकारी के रूप में भी काम करने का अनुभव है। मुझे राज्य स्तर पर गृह विभाग में सीधे तौर पर काम करने का अनुभव नहीं है लेकिन यूपी में राष्ट्रपति शासन के समय राज्यपाल के सलाहकार और प्रमुख सचिव के रूप में काम करने का अच्छा अनुभव है।

महत्वपूर्ण इकाई पुलिस स्टेशन

पुलिस स्थापना की महत्वपूर्ण इकाई पुलिस स्टेशन है। पुलिस स्टेशन आधुनिक होने चाहिए, हेड मोहर्रिर के स्थान पर कंप्यूटर ऑपरेटर होने चाहिए, जिन्हें एफआईआर और जीडी लिखना आता हो। सभी एसएचओ, एसआई, आदि कार्मिकों के लिए स्नातक शैक्षिक योग्यता अनिवार्य हो और अपराध रोकने, कार्रवाई और शस्त्र संचालन की न्यूनतम एक वर्ष की ट्रेनिंग अनिवार्य हो.

इन-सर्विस ट्रेनिंग

पुलिस सुधार योजना के अंतर्गत  प्रति पांच वर्ष में तीन से छः माह की इन-सर्विस ट्रेनिंग भी अनिवार्य होने चाहिए। हर पुलिस स्टेशन में अपराध की विवेचना और आपराधिक वारदातों पर अंकुश लगाने के लिए प्रशिक्षित इंसपेक्टरों की टीम होनी चाहिए। यहां तैनात कांस्टेबल और हेड कांस्टेबल केवल अपने बीट क्षेत्र में मौजूद रहकर सीनियर अफसरों को अहयोग प्रदान करते हैं।

प्रत्येक थाने में एक महिला और एक एससी-एसटी सब-इंस्पेक्टर की आवश्यक रूप से तैनाती होनी चाहिए। अल्पसंख्यक बाहुल्य जिलों में तथाकथित समुदाय के भी एक अधिकारी की तैनाती होनी चाहिए। सब-इंस्पेक्टर से निचली रैंक के अफसर को गिरफ्तारी का अधिकार न हो। कांस्टेबल और हेड कॉन्स्टेबल को केवल उन्हीं परिस्थितियों में गिरफ्तारी का अधिकार हो, जब वह अपराध घटित होते देखें।

शहर के प्रत्येक पुलिस स्टेशन का डीएसपी या एएसपी स्तर के अधिकारी द्वारा नेतृत्व किया जाए जिससे आम जन सामान्य थाने आकर पुलिस वालों से मिलने में सहज रहें। विवेचना और कार्रवाई को प्रभावी बनाया जाए। जिला स्तर पर एक प्रशिक्षित एसपी स्तर के अधिकारी द्वारा जिले के सभी थानों की विवेचना और कार्रवाई को प्रभावी बनाया जाए। पुलिस स्थापना की सभी इकाइयों में सुपरवाइजर के रूप में अधिकारियों की तैनाती होती है लेकिन उन्हें उचित प्रशिक्षण की आवश्कयता है। इस स्थिति में बदलाव होना चाहिए।

विवेचना और कार्रवाई के लिए अलग से व्यवस्था

पुलिस सुधार में जिले स्तर से लेकर पुलिस थानों तक विवेचना और कार्रवाई के लिए अलग से व्यवस्था होनी चाहिए। पुलिस विवचना , जांच और कार्रवाई में लगे अधिकारी को सामान्य कानून-व्यवस्था की परिस्थिति अथवा प्रोटोकाल के पालन के लिए नहीं भेजना चाहिए, उसके लिए होमगार्ड या एनसीसी कैडेट्स का प्रयोग किया जा सकता है।

पुलिस सुधार कार्यक्रम में विवेचना अधिकारी, कार्रवाई करने वाले अधिकारी और सरकारी वकील के बीच लिंक को मजबूत किया जाना आवश्यक है। तभी वादों के शीघ्र निस्तारण और सज़ा के मामलों में तेजी आएगी। विवेचना अधिकारी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि घटना के गवाह से एक बार में ठीक से पूछताछ कर लेनी चाहिए और उसे बार-बार बुलाने से बचना चाहिए।

सुरक्षा ड्यूटी 

इसके अलावा सुरक्षा उपकरणों की दृष्टि से भी सुधारों की दरकार है। हज़ारों पुलिसकर्मियों को व्यक्तिगत रूप से सुरक्षाकर्मी के रूप में अथवा असंवेदनशील इकाइयों में तैनात कर दिया जाता है। व्यक्तिगत सुरक्षा प्रदान करने के मामलों में कमी होनी चाहिए।

ति महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सुरक्षा में मात्र एक उप निरीक्षक अथवा इंस्पेक्टर से काम चलाया जा सकता है, जो संबंधित क्षेत्र के पुलिस स्टेशन से समन्वय स्थापित कर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करे। इसके अतिरिक्त जल्दी सेवानिवृत्त होने वाले पूर्व सैन्य कर्मियों को विशेष प्रशिक्षण देकर इस कार्य में उपयोग में लाया जा सकता है। जिससे सुरक्षा में लगे पुलिसकर्मियों को अपराध रोकने, विवेचना और अपराधियों की धर पकड़ में इस्तेमाल किया जा सके।

ये सुरक्षा व लागत के अनुकूल है और इसके क्रियान्वयन से कई पुलिसकर्मी बेवजह के कार्यों से मुक्त हो जाएंगे। अंततः पुलिस नियंत्रण पर बात करते हैं। सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में पुलिस जनता द्वारा चुनी सरकार के प्रति उत्तरदायी होती है। वहीं, कुछ देशों में पुलिस मेयर के अधीन होती है। भारत में पुलिस व्यवस्था में जरूरत से ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप होता है , जिसकी वजह से यह प्रभावी रूप से काम नहीं कर पाती है। जब तक पुलिस पूर्ण रूप से इस प्रकार के हस्तक्षेप से मुक्त नहीं हो जाती तब तक वर्तमान पुलिसिंग मॉडल सफल नहीं हो सकता है।

एक्ज़ीक्यूटिव  मजिस्ट्रेट

नवीन सीआरपीसी ने एक्ज़ीक्यूटिव  मजिस्ट्रेट के पद को लगभग समाप्त कर दिया है, जो पुलिस और जनसामान्य के बीच एक अहम कड़ी था। अब न्यायिक मजिस्ट्रेट विवेचना और कार्रवाई के मामले को देखते अवश्य हैं लेकिन वह जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होते हैं।

इसलिये वर्तमान व्यवस्था में जिलाधिकारी को शामिल करना आवश्यक हो जाता है जिससे पुलिस विवेचना व कार्रवाई के मामलों में दिशा-निर्देश प्राप्त कर सके। जिलाधिकारी द्वारा मासिक कोआर्डिनेशन मीटिंग में जिले के पुलिस व न्यायिक अधिकारी के साथ आवश्यक रूप से बैठक करनी चाहिए। तहसील स्तर पर एसडीएम न्यायिक व पुलिस अधिकारियों के साथ यह बैठक कर सकता है।

सर्वाधिक उपेक्षा वाला क्षेत्र मेडिको-लीगल 

इस सिस्टम में सर्वाधिक उपेक्षा वाला क्षेत्र मेडिको-लीगल मामलों का है। मॉर्चरी की हालत बेहद खस्ता है। वहां शव सड़ते रहते है और गिने-चुने सफाईकर्मी ही थोड़ी बहुत सफाई कर देते हैं। वहां प्रभावी कूलिंग सिस्टम के साथ मेडिकल व पैरा-मेडिकल स्टाफ की तैनाती आवश्यक रूप से होनी चाहिए। न्यायालयों में कई वादो में उचित पोस्टमार्टम न होने के चलते भी प्रभावी पैरवी नहीं हो पाती है। यदि उचित हो तो इनकी देखभाल का जिम्मा प्रभावी कार्य करने वाली एनजीओ को दिया जा सकता है।

 पुलिस स्थापना की महत्वपूर्ण इकाई पुलिस स्टेशन है। ऐसे में हमें पुलिस सुधार करते समय इसे आधुनिक व प्रोफेशनल बनाना चाहिए। तहसील व जिले की इकाई को उन्हें तकनीकी सहयोग प्रदान करना चाहिए।

इनके निरीक्षण के लिए बड़ी संख्या में आईजी, डीआईजी आदि की तैनाती की जाती है, इनकी संख्या में कमी की जा सकती है। इसमें थाने स्तर के पर्यवेक्षण का कार्य डीआईजी और जिले स्तर के पर्यवेक्षण का कार्य डीजीपी को दे देना चाहिए।

जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने डीजीपी का कार्यकाल निश्चित किया है, यही व्यवस्था पुलिस स्टेशन स्तर पर होनी चाहिये। राज्यमंत्री को गृह सचिव स्तर के अधिकारी के साथ मिलकर फोर्स को प्रभावी बनाने का कार्य करना चाहिए। उन्हें पुलिस संगठन में आवश्यक प्रशिक्षण, आधुनिकीकरण और अवसंरचना संबंधी बदलाव हर स्तर पर करने चाहिए। तभी  पुलिस सुधार पर चर्चा सार्थक होगी. 

सुशील चंद्र त्रिपाठी 

= लेखक : भारत सरकार में कई विभागों के सचिव, उत्तर प्रदेश राज्यपाल के सलाहकार, प्रमुख सचिव वित्त एवं तहसील, ज़िला तथा कमिश्नरी स्तर पर विभिन्न पदों पर रह चुके हैं. समाज हित के लिए चिंतन करते रहते हैं. उनका यह लेख दो साल पूर्णा होते हुए भी प्रासंगिक है, क्योंकि पुलिस सुधार में अपेक्षित कार्य केंद्र, राज्य सरकारों ने नहीं  किए, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद. 

 

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