25 जून और लोकतंत्र का सच: इमरजेंसी के साये में आज का भारत

एक छात्र की नजर से बीते और आज के लोकतंत्र की पड़ताल

वी के पंत, नोएडा से

25 जून — 1975 की आपातकाल, जिसकी चर्चा कुछ दिनों मे बहुत तेजी से मीडिया मे हो रही है। *मैं उस समय B.Sc का छात्र था, लखनऊ विश्वविद्यालय में हॉस्टल में रहता था। मेरे गांव से (जो सीतापुर जिले मे लखनऊ से 100 किमी दूर था) ट्रेन से यात्रा करता था। एक गाड़ी दोपहर 1 बजे आती थी, जो अक्सर 2–3 घंटे लेट होती। हम 1:30 बजे स्टेशन जाते थे। लेकिन इमरजेंसी लगने के बाद, पहली बार वह गाड़ी समय पर आने लगी। लोग स्टेशन पर ट्रेन से अपनी घड़ी मिलाने लगे। लखनऊ पहुँचने का समय — जो पहले 4:30 AM होता था — मशीन जैसी सटीकता से होने लगा।

एक बार अचानक हरिद्वार जाना पड़ा। बिना रिजर्वेशन के सफ़र करने की सोचने पर हमेशा टीटी को ‘जेब गर्म’ करनी पड़ती थी। पर इस बार — टिकट लिया, स्लिप बनी, और बिना घूस के बर्थ मिल गई। वह अनुभव आज भी एक स्वप्न की तरह याद है।

सिनेमा, दुकानें और सरकारी दफ्तर — एक अनुशासित समाज

• दुकानों पर रेट लिस्ट लगाना अनिवार्य हो गया था।

• महंगाई इतनी नियंत्रित थी कि कर्मचारियों का DA तक कम कर दिया गया।

• अधिकारी समय पर ऑफिस पहुँचने लगे।

• लखनऊ के सिनेमाघरों के बाहर टिकट ब्लैक करने वाले गायब हो गए।

• पुलिस सादे कपड़ों में निगरानी करती थी।

लोगों को पहली बार ऐसा लगा कि “अब सिस्टम काम करने लगा है।”

‘संजय गांधी युग’ — जब अनुशासन डर में बदल गया

एक साल बाद इमरजेंसी का मनोविज्ञान बदलने लगा।  संजय गांधी के उभार के साथ प्रशासनिक ‘टारगेट संस्कृति’ शुरू हुई। सुनने में आता था कि जब तक कर्मचारी 5 लोगों की नसबंदी नहीं करवाते, तब तक उन्हें छुट्टी नहीं मिलती। पुलिस युवाओं को उठाने लगी, डर का माहौल बनने लगा। जो गवर्नेंस शुरू में अनुशासन लाया था, वह धीरे-धीरे दमन और असंतोष में बदलने लगा।

जब जनता सच बोलना बंद कर दे, तो लोकतंत्र सिर्फ कागज़ पर बचता है

*एक स्मृति*: मेरे पिताजी सीतापुर जिले की एक फैक्ट्री में काम करते थे। वहां के डीएम ने नसबंदी का लक्ष्य सौंपा। एक सरकारी डॉक्टर को यह ज़िम्मेदारी दी गई — उसके पिता उसी फैक्ट्री में काम करते थे। डॉक्टर साहब ने जिन्हें नसबंदी नहीं करवानी थी, उन्हें मामूली चीरा लगाकर प्रमाण पत्र दे दिया। बाद में कुछ को संतान भी हुई। मैंने उनसे पूछा — “आपने ऐसा क्यों किया?” उन्होंने कहा — “मैं इन सबके साथ बड़ा हुआ हूँ। कैसे दुख दे सकता था?” आज जब दक्षिण भारत के जनसंवाद-आधारित परिवार नियोजन की सफलता देखता हूँ, तो सोचता हूँ कि भय और लालच से कोई काम टिकता नहीं है। संवाद ही लोकतंत्र की आत्मा है।

जब लोकतंत्र की तीन आवाज़ें कुचल दी गईं — विपक्ष, छात्र, बुद्धिजीवी

• जेपी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई जैसे नेताओं को मीसा के तहत बिना मुकदमे बंद कर दिया गया।

• छात्र आंदोलन — विशेषकर जेपी आंदोलन — को कुचला गया।

• विश्वविद्यालयों में पुलिस तैनात हो गई, छात्रसंघ चुनाव बंद कर दिए गए।

• अखबारों पर सेंसर लगा। बिना अनुमति कोई खबर नहीं छपती थी।

• उस दौर में लोकतंत्र के प्रहरी — विपक्ष, छात्र, और बुद्धिजीवी — सबसे पहले प्रताड़ित  गए।

हम विज्ञान पढ़ते थे, पर डर समाजशास्त्र का था

मैं विज्ञान का छात्र था, और उस समय एक आम मान्यता थी कि प्रैक्टिकल परीक्षा में अंक अध्यापक के हाथ में होते हैं, इसलिए किसी भी प्रकार की सामाजिक गतिविधि से दूर रहना चाहिए। हम सब यही सोचते थे कि चुपचाप पढ़ाई करो, अच्छे नंबर लाओ और सुरक्षित रहो। अब पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो लगता है कि शायद वह एक मिथक ही था — डर का मिथक, जो उस दौर की हवा में घुला था। 

मगर हॉस्टल तो विचारों की प्रयोगशाला होता है। मेरे साथ एक B.A. का छात्र था — विचारशील, पढ़ाकू। एक दिन सुबह 8 बजे पुलिस और वार्डन उसके कमरे से कुछ पैम्फलेट और एक लाल किताब मिलने के बाद उठा ले गए। कई साल बाद जब उसके बगल वाले कमरे में रहने वाले छात्र से मिला, तो उसने कहा — “तब और अब में क्या फर्क है?” यह वाक्य आज भी भीतर गूंजता है।

1977 का चुनाव: लोकतंत्र की वापसी का पर्व

21 महीनों के बाद जब इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा की, तो किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे सत्ता हारेंगी। लेकिन हुआ यह: चुनाव आयोग ने स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान कराया। विपक्ष को प्रचार की छूट मिली। उत्तर भारत में जनता ने खुलकर मतदान किया इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों हार गए।

यह चुनाव भारत के लोकतंत्र का पुनर्जन्म था। यही चुनाव वह मोड़ था, जहाँ से चुनाव आयोग जैसी संस्थाएँ मजबूत हुईं। टी एन शेषन, जे एम लीनगदोह  जैसे ईमानदार चुनाव आयुक्तों ने इस विरासत को और आगे बढ़ाया — 2014 तक सत्ता बदलती रही, लोकतंत्र जीवित रहा।

आज जब इमरजेंसी नहीं है, फिर भी वैसा ही क्यों लगता है?

आज कोई संवैधानिक इमरजेंसी नहीं है — फिर भी ऐसा सुनाई देना आम बात सी  होती जा रही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ट्रोल और कानूनों से डराई जाती है, मीडिया स्वेच्छा से गोदी बन गया है,विपक्ष, छात्र, बुद्धिजीवी — सवाल करें तो एजेंसियाँ पीछे लग जाती हैं, चुनाव होते है लेकिन ऐसा लगता है कि मैदान में प्रतिद्वंदी उतारने ही नहीं दिए जाते। 1975 में डर घोषित था, आज डर अदृश्य है — लेकिन शायद  गहरा और स्थायी है

डर नहीं, संवाद चाहिए

1975 की इमरजेंसी और आज के लोकतंत्र में फर्क यह है — तब बताया गया था कि इमरजेंसी है, आज बिना बताए ही इमरजेंसी का सा अनुभव होता है। इसलिए ज़रूरी है कि हम  अनुशासन के साथ  ज़्यादा नागरिक स्वतंत्रता और संवाद को महत्व दें।

 

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